नाटक-एकाँकी >> अभिज्ञान शाकुन्तल अभिज्ञान शाकुन्तलकालिदास
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विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवादित अभिज्ञान शाकुन्तल का नया रूप...
राजा : यद्यपि प्यारी शकुन्तला का मिलना है तो बड़ा कठिन, पर उसकी भावाभिव्यक्ति से मन को आश्वासन-सा मिल ही रहा है। हम दोनों का मिलन भले ही न होने पाये, किन्तु इतना सन्तोष तो है कि मिलने का चाव दोनों ओर एक समान है।
(मुस्कुराकर) जो प्रेमी अपनी प्रियतमा के मन को अपने मन से परखता है, वह इसी प्रकार धोखा खाता है।
और देखो-
जब वह बड़े प्यार से किसी अन्य की ओर भी आंखें घुमाती थी तब मैं यही समझता था कि उसने अपनी प्रिय चितवन मेरी ओर ही डाली है। नितम्बों के भारी होने के कारण जब वह मन्द-मन्द चलती थी तब मैं समझता था कि वह मुझे ही अपनी चटक-मटक भरी चाल द्रिखा रही है।
जब उसको सखियों ने उस समय जाने से किसी बहाने से रोका, उस समय वह अपनी सखियों पर जिस प्रकार से कुद्ध-सी हुई, तब भी मैंने यही समझा कि यह सब मेरे प्रति प्रेम के कारण ही हो रहा है।
अहो! कामी पुरुष को सब बातें अपने ही मन की दिखाई पड़ती हैं।
विदूषक : (उसी लुंज-पुंज मुद्रा में खड़ा हुआ) मेरे हाथ-पैर तो खुल नहीं रहे हैं, इसलिए मैं केवल मुख से आपकी जय-जयकार करता हूं।
[आपकी जय हो, जय हो।]
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