नाटक-एकाँकी >> अभिज्ञान शाकुन्तल अभिज्ञान शाकुन्तलकालिदास
|
333 पाठक हैं |
विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवादित अभिज्ञान शाकुन्तल का नया रूप...
राजा : तुम भी क्या बात करते हो! सुनो, जब वह जाने लगी तो उस समय शिष्टता की रक्षा करते हुए भी उसने अपना प्रेम जता ही दिया।
क्योंकि-
कुछ दूर जाने पर वह सुन्दरी सहसा यह कहती हुई रुक गई कि-'अरे! मेरे पैर में तो दाम का कांटा चुभ गया है।' यद्यपि उसका वल्कल कहीं उलझा नहीं था, फिर भी धीरे-धीरे वल्कल सुलझाने का बहाना करके वह मेरी ओर देखती हुई कुछ देर तक वहां पर खड़ी रह गई थी।
विदूषक : तब तो आप अपना सब साज समान यहां पर ही मंगवा लीजिए। मैं देख रहा हूं कि इस तपोवन को आपने तो एक दम प्रमोदवन के रूप में ही समझ लिया है।
राजा : मित्र! यहां के कुछ ऋषियों ने मुझको पहचान लिया है। अब सोच-विचारकर कोई ऐसा उपाय बताओ कि कम-से-कम एक बार तो किसी बहाने से आश्रम में जाने का अवसर सुलभ हो जाये।
विदूषक : वाह, आप तो राजा है, राजा के लिए किसी बहाने की आवश्यकता नहीं होती। आप तो सीधे जाकर कह सकते हैं कि आप राजा हैं और ऋषि लोग जो नीवारकण एकत्रित करते हैं राज-कर के रूप में उसका छठा भाग प्राप्त करने की अभिलाषा से आप इस वन में पधारे हैं।
राजा : माढव्य! तुम तो निपट मूर्ख ही हो। मैं जाकर ऋषियों से कर-प्राप्ति की बात करूं? अरे, इन ऋषियों की रक्षा के विनिमय में हमें ऐसा अनूंठा कर मिलता है कि उसके आगे तो रत्नों का ढेर भी तुच्छ है।
देखो-
बारों वर्णों से राजाओं को जो कर मिलता है उसका फल तो कालान्तर में नष्ट हो जाता है, परन्तु ये अरण्य में रहकर तप करने वाले ऋषि गण अपने तप का जो छठा भाग हमें कर रूप में प्रदान करते हैं वह तो सदा अमिट रहता है।
[नेपथ्य में]
[अहा, हम लोगों के सब काम पूर्ण हो गये हैं।]
|