नाटक-एकाँकी >> अभिज्ञान शाकुन्तल अभिज्ञान शाकुन्तलकालिदास
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विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवादित अभिज्ञान शाकुन्तल का नया रूप...
राजा : अब तुम्हें क्या बताऊं। तुम बस यही समझो कि-ब्रह्मा ने जब उसको बनाया होगा तब पहले उसका चित्र बनाकर उसका निर्माण किया होगा। या फिर अपने मन में संसार की सब सुन्दरियों की कल्पना करके उनके रूपों को एकत्रित कर उसने उसमें प्राण फूंके
होंगे। क्योंकि ब्रह्मा की कुशलता और शकुन्तला की सुन्दरता इन दोनों पर बार-बार विचार करने से यही विदित होता है कि यह कोई निराले ही ढंग की सुन्दरी उन्होंने निर्मित की है।
विदूषक : यदि ऐसी बात है, तब तो इसने सभी सुन्दरियों को परास्त कर दिया है।
राजा : उसके विषय में तो मेरे मन में यही आता है कि-उसका रूप वैसा ही पवित्र है जैसा कि बिना सूंघा हुआ पुष्प, नखों से अछूते पत्ते, बिना बिंधा हुआ रत्न, बिना चखा हुआ नया मधु और बिना भोगा हुआ पुण्यों का फल। किन्तु यह मैं नहीं समझ पा रहा हूं कि इस रूप का उपभोग करने के लिए ब्रह्मा ने किसको चुन रखा होगा।
विदूषक : यदि ऐसी बात है तो आप इसको चटपट हथिया लीजिए, जिससे कि यह हिंगोट के तेल से चिकनी खोपड़ी वाले किसी तपस्वी के हाथ न लग जाय।
राजा : लेकिन वह बेचारी तो परवश है, इसमें उसके वश की कोई बात नहीं है। और इस समय उसके पितातुल्य मुनि यहां नहीं हैं।
विदूषक : अच्छा! तो फिर यह तो बताइए कि जब वह आपको देखती थी तो वह किस भाव से देखती थी?
राजा : मित्र! तपस्वी कन्यायें तो स्वभाव से ही बड़ी भोली-भोली होती हैं।
फिर भी-
जब मैं उसकी और मुख करता था तो वह अपनी आंखें चुरा लेती थी और किसी-न-किसी बहाने हंस भी देती थी। वह शील के कारण इतनी दबी हुई-सी लगती थी कि न तो वह अपने प्रेम को छिपा ही पा रही थी और न खुलकर प्रकट ही कर पा रही थी।
विदूषक : (हंसकर) तो क्या वह आपको देखते ही आपकी गोद में आकर बैठ जाती?
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