लोगों की राय

नाटक-एकाँकी >> अभिज्ञान शाकुन्तल

अभिज्ञान शाकुन्तल

कालिदास

प्रकाशक : राजपाल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6162
आईएसबीएन :9788170287735

Like this Hindi book 2 पाठकों को प्रिय

333 पाठक हैं

विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवादित अभिज्ञान शाकुन्तल का नया रूप...


विदूषक : आपने यह अच्छा ही किया जो यहां से सब मक्खियों को भगा दिया है। अब यहां से चलिए। चलकर वृक्षों की घनी छाया वाले लता मण्डप के नीचे सुन्दर आसन पर आप भी चलकर बैठिए। मैं भी कुछ थकान मिटाता हूं। शरीर सारा शिथिल हो रहा है।

राजा : चलो, तुम आगे-आगे चलो।

विदूषक : मैं चल रहा हूं, आप भी आइए।

[दोनों घूमकर बैठ जाते हैं।]

राजा : माढव्य! यदि तुमने इस संसार में देखने योग्य वस्तुओं को न देखा तो फिर तुम्हारी इन आंखों का तुम्हें क्या लाभ है?

विदूषक : आप तो सदा मेरी आंखों के आगे रहते ही हैं न?

राजा : अपने आप को तो सभी सुन्दर ही समझते हैं। किन्तु मैं तो इस आश्रम की शोभा शकुन्तला के विषय में बात कर रहा हूं।

विदूषक : (आप ही आप) अच्छा, तो यह बात है। मैं इस बात को यहीं काटे देता हूं। (प्रकट) अच्छा मित्र! ऐसा जान पड़ता है कि आप उस तापस कन्या पर मुग्ध हो गए हैं।

राजा : मित्र! पुरुवंशियों का मन कुपथ की ओर तो बढ़ ही नहीं सकता।
सुना है-
उसकी माता कोई अप्सरा थी। वह जब इसे जन्म देकर वन में ही इसको छोड़कर चली गई तो मुनि कण्व इसको उठाकर ले आये। यह तो ठीक उसी प्रकार हुआ मानो कि नवमल्लिका का फूल अपनी डाली से टूटकर मंदार पर आ गिरा हो।

विदूषक : (हंसकर) जिस प्रकार कोई मीठा छुहारा खाते-खाते ऊबकर इमली पर टूट पड़े उसी प्रकार आप भी रनिवास की एक-से-एक बढ़कर सुन्दरियों को भुलाकर इस पर लट्टू हो गए हैं।

राजा : तुमने अभी तक उसको एक बार भी नहीं देखा है, इसीलिए ऐसा कह रहे हो।

विदूषक : तो ठीक ही है! जब आप ही उसको देखकर अपनी सुध-बुध खो बैठे हैं तो इसमें सन्देह नहीं कि वह वास्तव में रूपवती ही होनी चाहिए।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book