नाटक-एकाँकी >> अभिज्ञान शाकुन्तल अभिज्ञान शाकुन्तलकालिदास
|
333 पाठक हैं |
विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवादित अभिज्ञान शाकुन्तल का नया रूप...
शकुन्तला : यदि तुमसे न कहूंगी तो फिर किससे कहूंगी? सखी! अब तो तुम दोनों को मेरे लिए कुछ-न-कुछ करना ही होगा। यह कष्ट किसी अन्य को नहीं दिया जा सकता।
दोनों : अरे, इसीलिए तो इतनी देर से हम दोनों तुमसे इतना आग्रह कर ही हैं। अपने आत्मीयों से दुःख बांट लेने पर उसकी वेदना कुछ कम हो जाती है, वह सहनीय हो जाता है।
राजा : (उनकी बात सुनकर) सुख-दुःख में साथ देने वाली अपनी इन सखियों के पूछने पर तो यह बाला अवश्य ही अपने मन की बात बता देगी।
यद्यपि उस समय शकुन्तला ने बार-बार और बड़े प्यार से तथा ललचाई आंखों से देखा था, फिर भी मेरे जी में धुकधुकी-सी हो रही है। देखें, यह अपनी सखी को अपने दुःख का क्या कारण बताती है।
शकुन्तला : सखी! आश्रम की रक्षा करने वाले वे राजर्षि जबसे मेरी आंखों में समाए हैं तभी से, उन्हीं के प्रेम में मेरी यह दशा हो रही है।
राजा : (हर्ष से) यही तो मैं सुनना चाहता था। जो कामदेव मुझे पीड़ा दे रहा था उसी ने मुझे इस प्रकार जिला लिया जैसे गर्मी का दिन पहले तो जीवों को व्याकुल कर देता है पर दिन ढल जाने पर वही सबका जी हरा भी कर देता है।
शकुन्तला : यदि तुम दोनों ठीक समझो तो कोई ऐसा उपाय करो कि उन राजर्षि की मुझ पर कृपा हो जाये। अन्यथा बस! मेरी मृत्यु ही समझो। तुम लोग मुझे तिलांजलि देने की तैयारी कर लो।
राजा : यह सुनकर तो मेरे मन का सारा संसय मिट गया है।
प्रियंवदा : (अनसूया से अलग में जाकर) सखी! इसकी प्रेम-कथा तो इतनी बढ़ गई है कि इसका कोई-न-कोई उपाय शीघ्र ही करना चाहिए। इसने चुना भी तो आखिर पुरु वंश के भूषण महाराज दुष्यन्त को ही। इसकी इस उत्तम अभिलाषा और इसके चयन की सराहना ही करनी चाहिए।
अनसूया : हां, यह तो है ही।
प्रियंवदा : (प्रकट में) सखि! तू अत्यन्त भाग्यशालिनी है, जो ऐसा योग्य पुरुष तेरी दृष्टि में समाया है। भला कोई बताये कि सागर को छोड़कर महानदी और जाएगी भी कहां? आम के वृक्ष को छोड़कर नये पत्तों वाली माधवी लता और भला किसका सहारा लेगी?
राजा : यदि विशाखा के दोनों नक्षत्र चंद्रकला के पीछे-पीछे चलें तो इसमें आश्चर्य ही क्या है?
अनसूया : तब तो कोई ऐसा उपाय बताओ कि जिससे हमारी सखी की मनोकामना भी तुरंत पूरी हो जाये और किसी को कानो-कान इसकी सूचना भी न होने पाये।
|