लोगों की राय

नाटक-एकाँकी >> अभिज्ञान शाकुन्तल

अभिज्ञान शाकुन्तल

कालिदास

प्रकाशक : राजपाल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6162
आईएसबीएन :9788170287735

Like this Hindi book 2 पाठकों को प्रिय

333 पाठक हैं

विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवादित अभिज्ञान शाकुन्तल का नया रूप...


[बड़ी ललचाई आंखों से देखता हुआ]

परन्तु संदेह किया ही क्यों जाए?
क्योंकि-
इसके स्तनों पर तो खस का लेप लगा हुआ है, इसके एक हाथ में कमल के नाल का ढीला कंगन बंधा हुआ है। यद्यपि यह इतनी बेचैन हो रही है तदपि इस अवस्था में भी इसका शरीर  कुछ कम सुन्दर नहीं लग रहा है। यद्यपि लू लगने और प्रेम के ताप में तपने पर दोनों में  एक-सी बेचैनी होती है, किन्तु लू लग जाने पर युवतियों में उतनी सुन्दरता नहीं रह जाती।

प्रियंवदा : (अलग) अनसूया! जब से शकुन्तला ने उस राजर्षि को देखा है तभी से यह उन पर मुग्ध हो गई है। हो सकता है कि इसको यह ताप उसके ही कारण हो।

अनसूया : सखी! मेरे मन में भी कुछ इसी प्रकार की शंका हो रही है। ठीक है। तब इससे ही क्यों न पूछ लें।

[प्रकट में]

सखी! हम तुमसे कुछ पूछना चाहती हैं? देखो, तुम्हारा सन्ताप तो बहुत बढ़ता जा रहा है।

शकुन्तला : (बिछौने पर अधलेटी-सी होकर) सखी! तुम क्या पूछना चाह रही हो?
अनसूया : सखी शकुन्तला! हम प्रेम-वेम की बातें तो कुछ जानती नहीं हैं। इस पर भी  इधर-उधर की इतिहास की कहानियों में हमने प्रेमियों की जिस प्रकार की बातें पढ़ी और सुनी  हैं, कुछ-कुछ उसी प्रकार की तुम्हारी दशा हमें दिखाई दे रही है। अब तुम ही बताओ कि यह  तुम्हारा सन्ताप किस कारण से है? क्योंकि जब तक रोग का ठीक-ठीक पता नहीं चलेगा तब  तक उसकी चिकित्सा किस प्रकार की जा सकती है?

राजा : मैंने जो बात सोची थी ठीक वही बात उसकी सखी अनसूया सोच रही है। इसका  मतलब यह हुआ कि जो मैंने सोचा था वह केवल मेरे अपने मन की बात नहीं थी।

शकुन्तला : (मन-ही-मन) सचमुच ही मेरा प्रेम तो बहुत ही आगे बढ़ गया है। इस पर भी इनसे सहसा कुछ कहते नहीं बन पा रहा है।

प्रियंवदा : सखी शकुन्तला! अनसूया ठीक कह रही है। तुम इस प्रकार अपना रोग क्यों बढ़ाती  जा रही हो। दिन-प्रतिदिन तुम सूखती ही चली जा रही हो। तुम्हारे शरीर पर तो केवल एक  सुन्दर लावण्यमयी काया-सी झलकती दिखाई देने लगी है।

राजा : प्रियंवदा सच कहती है।
क्योंकि-
इसके कोमल कपोल मुरझा गए हैं, मुंह सूख गया है। स्तनों की कठोरता भी समाप्त हो गई है। कटि प्रदेश और भी पतला हो गया है। कन्धे झुक गए हैं और देह पीली पड़ गई है। मदन के क्लेश से यह ऐसी हो गई है जैसे वायु के परस से मुरझाई हुई पत्तियों वाली माधवी लता हो, जो सुन्दर भी लगती है और जिस पर दया भी आती है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book