नाटक-एकाँकी >> अभिज्ञान शाकुन्तल अभिज्ञान शाकुन्तलकालिदास
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विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवादित अभिज्ञान शाकुन्तल का नया रूप...
हां, बैठे हैं महाराज।
अपनी प्रजा को अपनी सन्तान के समान मानकर उसका कार्य करने के उपरान्त थक जाने पर ये महाराज यहां पर एकान्त में, उसी प्रकार विश्राम कर रहे हैं जैसे दिन की धूप से तपा हुआ गजराज हाथियों के झुण्ड को चरने के लिए छोड़कर स्वयं ठण्डे स्थान में विश्राम लेता है।
[राजा के समीप जाकर]
महाराज की जय हो! महाराज! हिमालय की उपत्यकाओं में निवास करने वाले कुछ तपस्वी लोग महर्षि कण्व का सन्दश लेकर और साथ में दो स्त्रियों को लिये हुए आये हुए हैं। अब आप जैसा ठीक समझें, आज्ञा कीजिए।
राजा : (आदर-सा व्यक्त करता हुआ) क्या महर्षि कण्व का सन्देश लेकर कोई तपस्वी आये हैं?
कंचुकी : जी हां।
राजा : तो तुम कुल पुरोहित सोमरात जी को मेरी ओर से कहो, वे इन आश्रमवासियों का वैदिक परम्परा से उचित आदर-सत्कार कर उन्हें अपने साथ मेरे पास लिवा आवें।
मैं भी तब तक वहां पर चलकर बैठता हूं, जहां कि ऋषि गणों से मिलना उपयुक्त होगा।
कंचुकी : जैसी महारा की आज्ञा।
[प्रस्थान]
राजा : (उठकर) वेत्रवति! चलो, हमें यज्ञशाला की ओर ले चलो।
प्रतिहारी : महाराज! आइए, इधर आइए।
राजा : (उधर घूमता है? फिर राज-काज की कठिनाइयों का वर्णन करता हुआ कहता है।) मनचाहा सब कुछ प्राप्त हो जाने पर अन्यान्य जीवों को तो बहुत सुख की अनुभूति होती है। परन्तु हम जैसे लोगों की जब राजा बनने की इच्छापूर्ण हो जाती है तो देखते हैं कि उसके बाद भी कष्ट-ही-कष्ट हाथ लगता है।
क्योंकि-
राजा बनकर बड़ा प्रतिष्ठित हो जाने से राजा के मन की उमंग तो पूर्ण हो जाती है, किन्तु जब राज-काज करना पड़ता है, तब जो कष्ट होता है, उसमें तो समझो कि छठी का दूध स्मरण हो आता है। अत: राज्य तो ऐसा है जैसे कि छतरी की मूंठ हाथ में ले लेने से विश्राम तो क्या मिलता है, विपरीत इसके छतरी को वहन करने का परिश्रम और करने से थकावट ही अधिक होती है।
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