नाटक-एकाँकी >> अभिज्ञान शाकुन्तल अभिज्ञान शाकुन्तलकालिदास
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विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवादित अभिज्ञान शाकुन्तल का नया रूप...
[दृश्य परिवर्तन]
[नेपथ्य में]
दो वैतालिक : महाराज की जय हो।
प्रथम वैतालिक : अपने सुख की अभिलाषा छोड़कर आप निरन्तर प्रजा की भलाई में ही संलग्न रहते हैं। अथवा यह कि इस प्रकार करने से आप अपने धर्म का ही पालन कर रहे हैं। यह ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार कि वृक्ष अपने सिर पर तो कड़ी धूप सहता रहता है किन्तु जो जीव उसके तले आकर बैठ जाता है उसको तो वह छाया ही प्रदान करता है।
दूसरा वैतालिक : और भी-
जो लोग कुमार्ग पर चलते हैं, जो दुष्ट हैं, उनको तो आप अपने राजदण्ड से नियन्त्रित करते हैं। परस्पर विवाद करने वालों के विवादों का आप निबटारा कर देते हैं। इस प्रकार आप प्रजा की रक्षा के लिए तत्पर रहते हैं। जिनके पास बहुत-सा धन-दौलत है उनके तो बहुत से सगे-सम्बन्धी होते हैं या फिर उनके सम्बन्धी बन भी जाते हैं। किन्तु जन-साधारण के तो आप ही सब कुछ हैं। उनका और कौन होता है इस संसार में।
राजा : (सुनकर) इनकी बातें सुनकर तो मेरा क्लान्त मन भी प्रफुल्लित हो गया है।
[घूमता है।]
प्रतिहारी : (राजा से) महाराज! यज्ञशाला की बैठक इधर है। यह देखिये, इसको झाड़-बुहारकर सुन्दर साफ-सुथरा किया हुआ है। इसके समीप ही हवन के लिए प्रयोग में लाने के लिए दूध देने वाली गाय भी बंधी हुई है। आइये महाराज! अपने इस बैठने के स्थान पर चढ़ जाइये।
राजा : (ऊपर चढ़कर परिवारकों के कन्धों का आश्रय लेकर खड़ा होता है।) वेत्रवति! समझ में नहीं आ रहा है कि भगवान कण्व ने किस उद्देश्य से मेरे पास अपने ऋषियों को भेजा होगा?
क्या कहीं उपद्रवी राक्षसों ने इस घोर तप करने वाले ऋषियों के तप में फिर से बाधा डालना तो आरम्भ नहीं कर दिया है। अथवा धर्म में प्रवृत्त इन तपोवन के प्राणियों को किसी ने सताया तो नहीं है। अथवा क्या मेरे पापों के कारण तपोवन की लताओं और वृक्षों का फलना-फूलना तो बन्द नहीं हो गया है। इस प्रकार न जाने मेरे मन में कितनी ही प्रकार की आशंकायें उठने लगी हैं। मैं ठीक-ठीक अनुमान नहीं लगा पा रहा हूं, इस कारण मेरा मन बड़ा ही व्याकुल हो रहा है।
प्रतिहारी : महाराज! आप ऐसा क्यों सोचते हैं? मेरा मन तो यही कहता है कि ये ऋषि लोग तो महाराज के धर्म-पालन के कार्यों से प्रसन्न होकर महाराज को बधाई देने के लिए पधारे होंगे।
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