नाटक-एकाँकी >> अभिज्ञान शाकुन्तल अभिज्ञान शाकुन्तलकालिदास
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विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवादित अभिज्ञान शाकुन्तल का नया रूप...
शकुन्तला : क्यों, इस धूर्त ने तो मुझे छला ही है और अब आप लोग भी मुझको छोड़कर चले जा रहे हैं?
[वह भी उनके पीछे-पीछे जाने लगती है।]
गौतमी : (रुककर) वत्स शार्ङरव! देखो, शकुन्तला तो रोती हुई हमारे पीछे ही चली आ रही है। अब तुम ही बताओ कि ऐसे निर्दयी व्यक्ति द्वारा ठुकराये जाने पर आखिर मेरी पुत्री करे भी, तो क्या करे?
शार्ङरव : (क्रोध से उसकी ओर लौटकर) क्यों री दुष्टा! क्या तू अपनी मनमानी करना चाहती है।
[शकुन्तला भय से कांप उठती है।]
शार्ङरव : शकुन्तला! सुन-
यदि राजा जो कह रहा है वह सत्य है तो तुझ जैसी कुलकलंकिनी का पिता के घर में कोई काम नहीं है। और यदि तू स्वयं को पवित्र समझती है तो तुझे दासी बनकर भी अपने पति के घर में ही रहना चाहिए।
तुम यहीं ठहरो। हम जाते हैं।
राजा : तपस्वी जी महाराज! आप इस बेचारी को क्यों व्यर्थ में धोखे में डाल रहे हैं,
क्योंकि-
जिस प्रकार चन्द्रमा केवल कुमुदों को ही खिलाता है और सूर्य केवल कमलों को ही खिलाता है, उसी प्रकार जितेन्द्रिय लोग पराई स्त्री को स्पर्श तक करने की इच्छा नहीं करते।
शार्ङरव : जब तुम अपनी पहली रानियों के पास जाकर अपनी पिछली बात भूल सकते हो तो तुम्हें अधर्म से भी क्या डर हो सकता?
राजा : (अपने पुरोहित से पूछता है) इस अवस्था में मैं आपसे ही ऊंच-नीच के विषय में पूछता हूं।
क्योंकि-
या तो मैं भूल गया हूं या फिर ये ही झूठ बोल रही है। इस अवस्था में मैं अपनी पत्नी को छोड़ने का पाप करूं या कि पराई स्त्री को स्पर्श करने का पाप अपने सिर पर लूं?
पुरोहित : (कुछ विचारकर) यदि इस प्रकार की बात है तो फिर आप एक काम करिये।
राजा : हां, बताइये।
पुरोहित : जब तक इनका प्रसव नहीं हो जाता तब तक ये देवी मेरे घर पर रहें।
आप जानना चाहेंगे कि मैं क्यों ऐसा कह रहा हूं।
क्योंकि ऋषि-मुनियों ने तो आपको पहले ही आशीर्वाद दिया हुआ है कि आप के घर में चक्रवर्ती पुत्र उत्पन्न होगा। यदि शकुन्तला से उत्पन्न कण्व ऋषि के नाती में चक्रवर्ती राजा के सारे लक्षण मिल गये तब तो आप इनको सादर अपने रनिवास में स्थान दीजियेगा और यदि वे लक्षण न मिले तो इनके पिता के पास वापस भिजवा दीजियेगा।
राजा : गुरुजी! जैसा आपको उचित प्रतीत होता हो, वह कीजिये।
पुरोहित : (शकुन्तला) बेटी! आओ, मेरे साथ चली आओ।
शकुन्तला : भगवती वसुन्धरे! तू फट जा और मैं उसमें समा जाऊं।
[इस प्रकार विलाप करती हुई शकुन्तला पुरोहित जी और ऋषियों के पीछे-पीछे चली जाती है। शाप के कारण भूला हुआ राजा शकुन्तला के सम्बन्ध में सोचता है।]
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