इतिहास और राजनीति >> भारत की एकता का निर्माण भारत की एकता का निर्माणसरदार पटेल
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स्वतंत्रता के ठीक बाद भारत की एकता के लिए सरदार वल्लभभाई पटेल द्वारा देश की जनता को एकता के पक्ष में दिये गये भाषण
जितने लोग सोशलिस्ट का लेबिल लगाते हैं, वे सब सोशलिस्ट हैं ऐसा न मानिए। जितने लोग कैपिटलिस्टों के दोस्त हैं, उनके साथ घूमते हैं उन सबको कैपिटलिस्ट का एजेंट कह दिया जाता है, परन्तु उससे काम खतम नहीं होता। लेकिन मैंने कलकत्ता में भी कहा था कि मैं सोशलिस्ट का लेबिल तो नहीं लगाता, लेकिन मैं अपनी कोई प्रौपर्टी (जायदाद) नहीं रखता। जब से गान्धी जी का साथ हुआ, तभी से। और मैं भी आपके साथ सोशलिस्ट में था। उससे भी आगे जाना हो तो उसमें मुकाबिला करने को तैयार हूँ। लेकिन हिन्दुस्तान की बरबादी होने के काम में मैं कभी साथ नहीं दूंगा। उसमें आप कहें कि मैं कैपिटलिस्ट का एजेंट हूँ, जो चाहे सो नाम लगाइए, लेकिन मैं इस रास्ते पर हिन्दुस्तान को नहीं चलने दूँगा। जब तक मैं बैठा हूँ, में ऐसा हरगिज़ नहीं होने दूँगा। मुझे तो बड़ा अफसोस होता है कि हम लोग कहाँ जा रहे हैं। सवाल यह है कि अब हमें क्या करना चाहिए। एक तो हमने हिन्दुस्तान का दो टुकड़ा किया। उसके बाद हमारे मुल्क में यह हालत थी कि सल्तनत जब चली गई, तो यह कह कर गई कि भारत में जो सार्वभौम सत्ता थी वह खत्म हो गई और जो पैरामाउन्सी थी, वह हवा में उड़ गई। तो हमारे मुल्क में पाँच सौ राजा पड़े हैं, क्योंकि यहाँ इतनी रियासते हैं। इनमें बहुत से लोगों को लगा कि अब क्या होगा, अँग्रेज तो चले गए। बहुत-से सोचने लगे कि राजस्थान बनाओ और उसमें काफी कोशिश हुई। अगर अलग राजस्थान बन जाता, तो वह पाकिस्तान से भी बुरी चीज थी। हमने तो हिदुस्तान गँवाया ही इसी कारण से कि अनेक अलग-अलग राज्य एक नहीं हो सकते थे। अब हमें फिर से उसे नहीं गवाँना है। इसलिए साथ-साथ दो-चार महीने में यह भी काम करना था कि हिन्दुस्तान को संगठित करके सब राजाओं को भी साथ ले लें। आप देखते हैं कि हमने यही काम कर लिया। दो-तीन राज्यों के साथ झगड़ा चलता है, उसका भी फैसला हो जाएगा और ठीक तरह से हो जाएगा। उसमें मुझे कोई शंका नहीं है। लेकिन जब मैंने यह काम किया तो कई लोग कहने लगे कि भई, यह तो राजाओं का दोस्त हो गया। कैपिटलिस्ट का दोस्त तो मैं पहले ही था, अब राजाओं का भी दोस्त हो गया। ४८ घंटों में चालीस रियासतें मैंने खत्म की। तब वे लोग कहने लगे कि यह क्या चीज़ बनी! तो काम तो दिमाग से होता है और जिस समय मौका आता है, उस समय काम होता है। जब फल पकता है, तब उसमें मिठास आती है। लेकिन कच्चा खाओ तो दाँत खट्टे हो जाएँगे, और पेट खराब हो जारागा। इस तरह से यह सब भी हमने चार महीने में कर लिया।
अब हमें क्या करना है? अब करने का काम यह है कि हमें हिन्दुस्तान को उठाना है और दुनिया के और उन्नत मुल्कों के साथ उसको रखना है। उसके लिए आज हिन्हुस्तान में किस चीज की जरूरत है? एक मैंने जो कहा और जिसके लिए गान्धीजी फाका कर रहे हैं, उस चीज की हमें पूरी जरूरत है। हमें गुस्से पर, अपने मिजाज पर, काबू रखना है कि इधर हिन्दुस्तान में कोई फसाद न हो। आज मैं एक प्रेस कांफ्रेंस में गया था। एक आदमी ने सवाल पूछा कि जितने हिन्दू और सिक्ख वहाँ से निकालते हैं, उतने मुसलमान हम इधर से निकालें कि नहीं? अब इस तरह से हमारा दिमाग चलेगा, तो हमारा काम नहीं होगा। जितने मुसलमान इधर पड़े हैं, उन सबको चैन से रहने दो। यदि उनको जाना पड़े, तो अपने कर्म से जाना पड़े, हमारे कर्म से नहीं। यदि वह गल्ती करेगा, तो उसको जाना ही पड़ेगा। लेकिन यदि वह वफादारी से हमारे यहाँ रहे, तो हमें उसपर पूरा भरोसा करना चाहिए। जैसा हमारा रहने का अधिकार है, इसी तरह से उसका भी है। उनको दिल की पूरी अमन और चैन से यहाँ रहना चाहिए। चन्द मुसलमानों को मार देने से मुल्क का कोई फायदा न होगा। इससे मुल्क का बुरा होगा, नुकसान होगा। यह चीज़ हमको छोड़ देनी चाहिए। यही मै मुसलमानों से भी कहता हूँ और कभी-कभी कड़ी भाषा में भी कहता हूँ। लेकिन कई मुसलमान समझने लगे कि यह हमारा दुश्मन है। तो मैं कहता हूँ कि गान्धी भी तो एनेमी नम्बर १ था। वैसे ही मैं भी हूँ। लेकिन जैसे गान्धी आज उनका सबसे बड़ा मित्र है, ऐसा ही मैं भी हूँ, यह आप समझ लीजिए। क्योंकि मैं कोई बात छिपाऊँगा नहीं। मैं साफ सुनाऊँगा। यदि मैं छिपाऊँगा तो वह आपसे दगा करना होगा। तब मैं दगाबाज हो जाऊँगा। मैं दगाबाज नहीं होना चाहता। तो आप ऐसी बात न समझें। जो बात मैं कहता हूँ, उससे आपको थोड़ा सा बुरा या कटु भी लगे, तो हजम कर लीजिए। लेकिन मेरी बात समझ लीजिए।
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- वक्तव्य
- कलकत्ता - 3 जनवरी 1948
- लखनऊ - 18 जनवरी 1948
- बम्बई, चौपाटी - 17 जनवरी 1948
- बम्बई, शिवाजी पार्क - 18 जनवरी 1948
- दिल्ली (गाँधी जी की हत्या के एकदम बाद) - 30 जनवरी 1948
- दिल्ली (गाँधी जी की शोक-सभा में) - 2 फरवरी 1948
- दिल्ली - 18 फरवरी 1948
- पटियाला - 15 जुलाई 1948
- नई दिल्ली, इम्पीरियल होटल - 3 अक्तूबर 1948
- गुजरात - 12 अक्तूबर 1948
- बम्बई, चौपाटी - 30 अक्तूबर 1948
- नागपुर - 3 नवम्बर 1948
- नागपुर - 4 नवम्बर 1948
- दिल्ली - 20 जनवरी 1949
- इलाहाबाद - 25 नवम्बर 1948
- जयपुर - 17 दिसम्बर 1948
- हैदराबाद - 20 फरवरी 1949
- हैदराबाद (उस्मानिया युनिवर्सिटी) - 21 फरवरी 1949
- मैसूर - 25 फरवरी 1949
- अम्बाला - 5 मार्च 1949
- जयपुर - 30 मार्च 1949
- इन्दौर - 7 मई 1949
- दिल्ली - 31 अक्तूबर 1949
- बम्बई, चौपाटी - 4 जनवरी 1950
- कलकत्ता - 27 जनवरी 1950
- दिल्ली - 29 जनवरी 1950
- हैदराबाद - 7 अक्तूबर 1950