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विभिन्न रामायण एवं गीता >> भगवती गीता

भगवती गीता

कृष्ण अवतार वाजपेयी

प्रकाशक : भगवती पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :125
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6276
आईएसबीएन :81-7775-072-0

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गीता का अर्थ है अध्यात्म का ज्ञान ईश्वर। ईश्वर शक्ति द्वारा भक्त को कल्याण हेतु सुनाया जाय। श्रीकृष्ण ने गीता युद्ध भूमि में अर्जुन को सुनाई थी। भगवती गीता को स्वयं पार्वती ने प्रसूत गृह में सद्य: जन्मना होकर पिता हिमालय को सुनाई है।

तृतीयोऽध्यायः - देवी भक्ति की महिमा


हिमालय उवाच
दुःखस्य कारणं देहः पञ्चभूतात्मकः शिवे।
यतस्तद्विरहाद्देही न दुःखैः परिभूयते।।1।।
सोऽयं संजायते मातः कथं देहो महेश्वरि।
यं प्राप्य सुकृतान्कामान् कृत्वा स्वर्गमवाख्यति।।2।।
क्षीण पुण्यः कथं जीवो जायते च पुनर्भुवि।
तद् ब्रूहि विस्तरेणाशु यदि ते मय्यनुग्रहः।।३।।

हिमालय ने कहा-हे शिवे! यह पञ्चभूतात्मक शरीर ही दुःख का कारण है; क्योंकि उससे पृथक् जीव दुःखों से प्रभावित नहीं होता है। माता! महेश्वरी! जिस शरीर को प्राप्त कर यह जीव पुण्य कार्य सम्पन्न कर स्वर्ग पाता है वह यह शरीर किस प्रकार पैदा होता है? तथा यह जीव पुण्य समाप्त होने पर फिर पृथ्वी पर कैसे उत्पन्न होता है? यदि आपकी मुझ पर कृपा है तब समस्त जिज्ञासाओं को शीघ्र ही विस्तार से मुझे समझाइये।।1-3।।

श्री पार्वत्युवाच
क्षितिर्जलं तथा तेजो वायुराकाश एव च।
एतैः पञ्चभिराबद्धो देहोऽयं पाञ्चभौतिक।।4।।

श्री पार्वती जी ने कहा-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पञ्चमहाभूतों से यह देह बना हुआ है, अतः यह पाञ्चभौतिक शरीर कहा गया है।।4।।

प्रधानं पृथिवी तत्र शेषाणां सहकारिता।
उक्तश्चतुर्विथः सोऽयं गिरिराज निबोध मे।।5।।
अण्डजा स्वदेजाश्चैवोद्धिज्जाश्चैव जरायुजा।
अण्डजाः पक्षिर्स्ग्पाद्याः स्वेदजा मशकादयः।।6।।
वृक्षगुल्मप्रभूतयश्चोद्भिजा हि विचेतनाः।
जरायुजा महाराज मानुषा पशवस्तथा।।7।।

उन पाँचों महाभूतों में पृथ्वी तत्व प्रधान है, शेष चार की उसके साथ सहभागिता है। इतरिराज! पञ्चभौतिक शरीर भी चार प्रकार का कहा गया है जिसको मुझसे समझे। अण्डज, स्वेदज, उद्भिज्ज एवं जरायुज ये चार भेद हैं। महाराज! उनमें प क्षी, सर्पादि अण्डज, जूँ मशकादि स्वेदज, वृक्ष, झाड़ियाँ आदि सुषुप्त चैतन्य वाले उद्धिज्ज हैं तथा मनुष्य और पशु आदि जरायुज (जेर से उत्पन्न होने वाले) है।।5-7।।

शुक्रशाणितसष्णुतो देहो ज्ञेयो जरायुजः।
भूय स त्रिविधो ज्ञेयः पुंस्त्रीक्लीब विभेदत।।8।।
शुक्राधिक्येन पुरुषो भवेमथ्वीधराधिप।
रक्ताधिक्ये भवेन्नारी तयोः साम्ये नपुंसकम्।।9।।

शुक्र, रज आदि के योग से बनी देह को जरायुज जानना चाहिए। उस जरायुज को भी पुरुष-स्त्री तथा नपुंसक भेद से तीन प्रकार का समझिये। गिरिराज! शुक्र की अधिकता से पुरुष; रज की अधिकता से स्त्री और शुक्र-रज दोनों की समानता से नपुंसक होते हैं।।8-9।।

स्व कर्मवशतो जीवो नीहारकलया युतः।
पतित्वा धरणीपृष्ठे व्रीहिमध्यगतो भवेत्।।1०।।
स्थित्वा तत्र चिरं भूकवा भुज्यते पुरुषैस्ततः।
ततः प्रविष्टं तदगुह्यं पुंसो देहे प्रजायते।।11।।
रेतस्तंन म जीवोऽपि भवेद्रेतोगतस्तदा।।11/1/2।।

अपने-अपने कर्मों के वशीभूत जीव ओसकणों से युक्त होकर पृथ्वी पर गिरने पर धान्य (सभी प्रकार का वनस्पति) के मध्य पहुँचता है वहाँ रहकर बहुत समय तक कर्मभोग करता है। पुनः जीवों द्वारा उसका भोग किया जाता है। तत्पश्चात् पुरुष के शरीर में गह्येन्द्रियों मे प्रविष्ट होकर वह वीर्य रूप हो जाता है। इस प्रकार वह जीव भी वीर्य में सन्निविष्ट हो जाता है।।1०-11/1/2।।

ततस्त्रियादुभियोगेन ऋतुकाले महामते।
रेतसा सहितः सोऽपि मातृगर्भं प्रयाति हि।।12/1/2।।

भो महामते! तदनन्तर ऋतुकाल में स्त्री पुरुष संयोग होने पर वीर्य के साथ-साथ वह जीव भी माँ के गर्भ मैं पहुँच जाता है।।12/1/2।।

ऋतुस्नाता भवेन्नारी चतुर्थेऽहनि तद्दिनात्।
आषोडशदिनाद्राजन् ऋतुकाल उदाहृतः।।1३/1/2।।

 राजन् ऋतुकाल के चौथे दिन स्त्री ऋतुस्नान से पवित्र होती है उस दिन से लेकर सोलहवें दिन तक ऋतुकाल कहा जाता है।।13/1/2।।

अयुग्मदिवसे नारी जायते पर्वतर्षभ।।14।।
जायते च पुमांस्तत्र युग्मके दिवसे पितः।
ऋतुस्नाता तु कामार्ता मुखं यस्य समीक्षते।।15।।
तदाकृतिः संततिः स्यात्तत्पश्येद्भर्तुराननम्।।15/1/2।।

पर्वत श्रेष्ठ! विषम दिनों में समागम होने से स्त्री तथा सम दिनों में समागम करने से पुरुष की उत्पत्ति होती है। पिताजी! ऋतुस्नाता और कामार्ता स्त्री जिसका मुख दर्शन करती है, उसी की मुखाकृति की संतान जन्म लेती है। इसलिए स्त्री को उस काल में अपने पति का ही मुख दर्शन करना चाहिए।।14-15/1/2।।

तद्रेतो योनिरक्तेन युक्तं भूत्वा मह्ममते।।16।।
दिनेनैकेन कललं जरायुपरिवेष्टितम्।
भूत्वा पञ्चदिनैरेव बुद्बुदाकारतामियात्।।17।।
या तु चर्माकृतिः सूक्ष्मा जरायुः सा निगद्यते।
शक्रशोणितयोर्योगस्तस्मिन् संजायते यतः।।18।।
तत्र गर्भो भवेद्यस्मात्तेन प्रोक्तो जरायुजः।।19/1/2।।

महामते! वह वीर्य स्त्री के योनिस्थित रज से मिलकर एक दिन में कलल (स्थित विशेष) बनता है वही कलल अत्यधिक सूक्ष्म झिल्ली से ढककर पाँच दिनों में बुलबुले के रूप में हो जाता है। अति पतली आकार की जो चर्म की झिल्ली होती है उसा को जरायु कहते हैं। उस में वीर्य और रज का मिश्रण होता है, उसी से गर्भ उत्पन्न होता है अतः उसको जरायुज कहा गया है।।16-18/1/2।।

ततस्तत्सप्तरात्रेण मांसपेशीत्वमास्तुयात्।।19।।
पक्षमात्रेण सा पेशी तच्छोणितपरिप्लुता।
ततश्चांकुर उत्पन्नः पञ्चविंशति रात्रिषु।।2०।।
स्कन्धो ग्रीवा शिरः पृष्ठोदराणि च महामते।
पञ्चधांगकनि जायन्ते एवं मासेन च क्रमात्।।21।।

इसके बाद सात रात्रियों में वह मांसपेशियों से युक्त हो जाता है, एक पक्ष मे उस पेशी में रक्त प्रवाह प्रारम्भ हो जाता है। तदनन्तर पच्चीस रातों में शरीर के अवयव अंकुरित ताने लगते हैं। महाभते! एक मास में क्रमशः स्कन्ध, गर्दन, सिर, पीठ और उदर (पेट) ये पाँच अंग बन जाते हैं।।19-2०।।

द्वितीये मासि जायन्ते पाणिपादादयस्तथा।
अंगाना संधयः सर्र्व तृताय सम्भवान्ते हि।।22।।
अंगुल्यश्चापि जायन्ते चतुर्थे मासि सर्वतः।
अभिव्यक्तिश्च जीवस्य तस्मिन्नेव हि जायते।।23।।
ततश्चलति गर्भोऽपि जनन्या जठरे स्थितः।।2३/1/2।।

दूसरे माह में हाथ और पैर बन जाते हैं तीसरे माह में अंगों की सभी सन्धियां (जोड़), चौथे माह में सभी अंगुलियाँ बन जाती है, उसी माह में उसके अन्दर जीव की अभिव्यक्ति हो जाती है; तब माँ के उदर में स्थित गर्भ चलने (स्फुरण) लगता है।।22-23/1/2।।

श्रोत्रे नेत्रे तथा नासा जायन्ते मासि पञ्चमे।।24।।
तथैव च मुखं श्रोणिर्गुह्म तस्मिन् प्रजायते।
पायुर्मेढ्रपस्थं च कर्णछिद्र द्वय तथा।।25।।
तथैव मासि घष्ठे तु नाभिश्चापि भवेन्नणाम्।
सप्तमे केशरोमाद्या जायन्ते च तथाष्टमे।।26।।
विभक्तावयवत्यं च जायते गर्भमध्यतः।
विह्मय श्मखुदन्तदीन्जन्मान्तरसमुद्धबात्।।27।।
समस्तावयवाएवं जायन्ते क्रमतः पितः।।27/1/2।।

पाँचवे माह में आँखें, कान तथा नाक बन जाते हैं, इसी माह में मुख, कमर, गुदा, शिश्न-लिंग आदि गुह्य भाग तथा कानों में दोनों छिद्र (छिद्र) निर्मित हो जाते हैं। उसी भांति षठवें मास में ही मनुष्यों की नाभि बन जाती है, सातवे मास में केशरोमादि निकल आते हैं, आठवें मास में गर्भ में समस्त अवयव स्पष्ट रूप से पृथक-पृथक बन जाते है। पिताजी! इस तरह जन्म के अनन्तर उगने वाली दाढ़ी, मूंछ और दन्त छेड़कर समस्त अंग क्रम से तैयार हो जाते हैं।।24-27/1/2।।

नवमे मासि जीवस्तु चैतन्य सर्वशो लभेत्।।28।।
माइ भुक्तानुसारेण वर्धते जठरे स्थितः।
प्राप्त वै यातनां घोरां खिद्यते च स्वकर्मतः।।29।।
स्मृत्या प्राक्तनदेहोत्थकर्माणि बहुदुःखितः।
मनसा वचनं बूते विचार्य स्वयमेव हि।।3०।।
एवं दुखमनुप्राप्य भूयो जम लभेत्क्षितौ।
अन्यायेनार्जितं वित्तं कृदुश्वभरणं कृतम्।।31।।
नाराधिता भगवती दुर्गा दुर्गतिहारिणी।
यद्यस्माब्रिफतिर्मे स्वाद गर्भदुखात्तदा पुनः।।३2।।
विषयाम्नानुसेविष्ये विना दुर्गा महेश्वरीम्।
नित्यं तामेद भक्त्याहं पूजये यतमानसः।।३3।।
वृथा पुत्रकलत्रादिवासनावशतोऽसकृत्।
निविष्टसंसारमनाः कृतवानात्मनोऽहितम्।।34।।
तस्येदानीं फलं भुञ्जे गर्भदुःखं दुरासदम्।
तत्र भूयः करिष्यामि वृथा संसार सेवनम्।।३5।।

नवें मास में जीव मे पूर्णतः चेतना शक्ति आ जाती है। वह उदर (पेट) में रहते हुए माता द्वारा भोजन किये गये पदार्थानुसार वृद्धि को प्राप्त होता है। उदर में अपने जन्मान्तर के कमी के अनुसार घोर यातना पाता हुआ वह जीव खिन्न हो उठता है तथा पूर्वजन्म में अपनी देह से किये गये कर्मों को याद करके अत्यधिक दुखी हो जाता है। माता के गर्भ में इस तरह का कष्ट पा करके जीव पुनः पुनः पृथ्यी पर जन्म ग्रहण करता है। गर्भकाल में वह जीव मन में सब कुछ विचार करके स्वयं ही बात कहता है-''मैंने अन्यायपूर्वक धन कमाया, उससे अपने कुटुम्ब का भरण-पोषण किया, परन्तु दुर्गतिनाशिनी भगवती दुर्गा की आराधना नहीं की। अब अगर गर्भ के दुःख से मुझे मुक्ति मिल जाय तब मैं पुनः महेश्वरी दुर्गा को छोड़कर जगत विषयों का सेवन (भोग) नहीं करूँगा, सदैव एकाग्रचित होकर भक्ति सहित उन्हीं की पूजा करुंगा। पुत्र, स्त्री आदि के मोह पाश में बँधकर सांसारिकता में मन को लगा करके मैंने व्यर्थ में ही बहुबार अपना अमंगल कर डाला। इस समय उसी के परिणामस्वरूप मैं यह असहनीय गर्भवेदना उठ रहा हूँ। अतः अब मैं फिर से सांसारिक विषयों का भोग नहीं करूँगा।।28-३5।।

इत्येवं बहुधा दुखमनुभूय स्वकर्मतः।
अस्थियन्त्रविनिष्यिष्टो निर्याति योनिवर्त्मना।।३6।।
सूतिवातवशाद्धौरनरकादिव पातकी।
मेदोऽसृक्प्लुतर्वाङ्गो जरायुपरिवेष्टितः।।37।।

इस तरह अपने पूर्व कमानुसार बहु प्रकार से दुःखों का अनुभव करके वह जीव अपने अंगों में मेदा और रक्त लिपटाये हुए झिल्ली से ढका होकर प्रसववायु के वशवर्ती योनि के अस्थि यन्त्र से पिसा जाता हुआ सा उसी तरह योनि मार्ग से बाहर आता है जिस प्रकार पातकी जीव नरक से निकलता है।।36-37।।

ततो मन्मायया मुग्धस्तानि दुखानि विस्मृतः।
अकिंचित्करतां प्राप्य मांसपिण्ड इव स्थितः।।३४।।
सुषुम्णा पिहिता नाडी श्लेष्यणा यावदेव हि।
तावद्वक्तुं न शक्मोति सुव्यक्तवचनं त्यसौ।।३9।।
न गन्तुमाषे शक्मोति कषुभि यरिरस्पते।
श्वभाजांरादि दषिध्यो इजः कालवशात्तत।।40।।
यथेष्ट भाषते वाक्यं गच्छत्यपि सुदूरतः।
ततश्च यौवनाद्रिक्तः कामक्रोधादि संयुतः।।41।।
कुरुते विविधं कर्म पापपुण्यात्मकं पितः।।41/1/2।।

तत्पश्चात् वह जीव मेरी माया से मोहित होकर सभी उन दुःखों को विस्मृत कर देता है तथा कुछ भी न कर सकने की स्थित को पाकर मांस पिण्ड की भांति स्थित रहता है। जब तक कफादि से उसकी सुषुष्णा नाड़ी अवरुद्ध रहती है, तब तक वह स्पष्ट बोलने में एवं चल-फिर सकने में सक्षम नहीं होता। दैवयोग से वह पिण्ड कुत्ता-बिल्ली आदि दाढ़ युक्त प्राणियों से पीड़ित होता है तब बन्धुओं द्वारा उसकी रक्षा की जाती है। कालान्तर में वह स्वेच्छ से धीरे-धीरे बोलने लगता, है तथा चलने लगता है। पिताजी! तदनन्तर कुछ समय बीतने पर यौवन के उन्माद में आकर वह काम क्रोध आदि से भरकर पाप और पुण्यकर्म करने लगता है।।38-41/1/2।।

कुरुते कर्मतन्त्राणि देहभोगार्थमेव हि।।42।।
स देहः पुरुषाद्भिन्नः पुरुषः किं समश्नुते।
प्रतिक्षणं क्षरत्यायुश्चलत्थर्णस्थतोयवत्।।43।।

जिस शरीर भोग हेतु जीव समस्त कर्म करता है वह शरीर पुरुष (जीवात्मा) से अलग है; क्योंकि जीवात्मा का जगत विषयों (भोगों) से क्या सम्बन्ध? प्रतिपल आयु का क्षरण हो रहा है, वह वायु से हिलते हुए पत्ते पर पड़े जल बिन्दु के समान क्षणिक है।।42-43।।

स्थप्नोपमं महाराज सर्वं वैषयिकं सुखम्।
तथापि न भवेद्धानिरभिमानस्य देहिनाम्।।44।।
न चैतद्वीक्षते देही मोहितो मम मायया।
वीक्षते केवलान्धोगांस्तत्र शाश्वतिकानिव।।45।।
अकस्मादग्रसते कालः पूणे चायुषि अर।
यथा स्थालोऽन्तिके प्राप्तंमण्दूकं ग्रसते क्षणात्।।46।।

पर्वतराज महाराज! विषय भोग सम्बन्धी समस्त सुख स्वभ के सदृश हैं, फिर भी जीव के अभिमान में किसी प्रकार की कमी नहीं आती, मेरी माया से मोहित हुआ जीव यह सब देख व समझ नहीं पाता। वह भोगों को शाश्वतः जानकर केवल उन्हीं का अवलोकन करता है। पृथ्वी पति। आयु के पूर्ण हो जाने पर काल जीव को अचानक उसी भाति ग्रस लेता है जैसे सर्प समीप आये हुए मेढक को एक क्षण में ग्रस लेता है।।44-46।।

ह्य हन्त जमैतदपि विफलं यातमेव हि।
एवं जन्यान्तरमपि विफलं जायते तथा।।47।।
निफतिर्विद्यते नैव विषयाननुसेविनाम्।
तस्मादात्मविचारेण त्यक्त्वा वैषयिकं सुखम्।।48।।
शाश्वतैश्वर्यमन्त्रिच्छन्यदर्चनपरो भवेत्।
सदैव जायते भक्तिरियं बह्मणि निश्चला।।49।।

बड़े दुःख की बात है कि यह जन्म भी व्यर्थ चला गया तो इसी भाति दूसरा जन्म भी व्यर्थ बीत गया। विषयभोगों में लिप्त रहने वालों का स्सार नहीं होता है। इसलिये आत्म तत्त्व का विचार करके वासनात्मक सुख को त्यागकर शाश्वतैश्वर्य की प्राप्ति की अभिलाषा करते हुए मेरी आराधना में तत्पर रहना चाहिए। तभी ब्रह्म से स्थायी सम्बन्ध स्थापित होता है।।47-49।।

देहादिभ्यः पृथक्त्वेन निश्चित्यात्मानमात्मना।
देहादिममता मिध्याज्ञानजां परिसंत्यजेत्।।5०।।
पितक्त्यं यदि संसार दुःखान्निर्मृत्तिमिच्छसि।
तदाराधया मां भक्का ब्रह्मरूपां समाहितः।।51।।

अपनी आत्मा को शरीरादि से अलग निश्चित करके मिथ्या ज्ञान जनित देह आदि का ममत्व (मोह) त्याग देना चाहिए। पिता जी! अगर आप सांसारिक (भौतिक) दुःखो से फ्टना चाहते हैं तब समाहितचित्त होकर भक्तिपूर्वक मुझ ब्रह्मरूपिणी भगवती की आराधना करें।।5०-51।

ॐश्रीभगवती गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे पार्वती-हिमालय संवादे ब्रह्मयोगोपदेश वर्णन नाम तृतीयोऽथ्यायः।

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    अनुक्रम

  1. अपनी बात
  2. कामना
  3. गीता साहित्य
  4. भगवती चरित्र कथा
  5. शिवजी द्वारा काली के सहस्रनाम
  6. शिव-पार्वती विवाह
  7. राम की सहायता कर दुष्टों की संहारिका
  8. देवी की सर्वव्यापकता, देवी लोक और स्वरूप
  9. शारदीय पूजाविधान, माहात्म्य तथा फल
  10. भगवती का भूभार हरण हेतु कृष्णावतार
  11. कालीदर्शन से इन्द्र का ब्रह्महत्या से छूटना-
  12. माहात्म्य देवी पुराण
  13. कामाख्या कवच का माहात्म्य
  14. कामाख्या कवच
  15. प्रथमोऽध्यायः : भगवती गीता
  16. द्वितीयोऽध्याय : शरीर की नश्वरता एवं अनासक्तयोग का वर्णन
  17. तृतीयोऽध्यायः - देवी भक्ति की महिमा
  18. चतुर्थोऽध्यायः - अनन्य शरणागति की महिमा
  19. पञ्चमोऽध्यायः - श्री भगवती गीता (पार्वती गीता) माहात्म्य
  20. श्री भगवती स्तोत्रम्
  21. लघु दुर्गा सप्तशती
  22. रुद्रचण्डी
  23. देवी-पुष्पाञ्जलि-स्तोत्रम्
  24. संक्षेप में पूजन विधि

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