विभिन्न रामायण एवं गीता >> भगवती गीता भगवती गीताकृष्ण अवतार वाजपेयी
|
8 पाठकों को प्रिय 313 पाठक हैं |
गीता का अर्थ है अध्यात्म का ज्ञान ईश्वर। ईश्वर शक्ति द्वारा भक्त को कल्याण हेतु सुनाया जाय। श्रीकृष्ण ने गीता युद्ध भूमि में अर्जुन को सुनाई थी। भगवती गीता को स्वयं पार्वती ने प्रसूत गृह में सद्य: जन्मना होकर पिता हिमालय को सुनाई है।
चतुर्थोऽध्यायः - अनन्य शरणागति की महिमा
हिमालय उवाच
अनाभ्रितानां त्वां देवि मुक्तिश्चेन्नैव विद्यते।
कथा समाश्रयेत्त्वां तक्रपया सूहि मे सदा।।1।।
संध्येयं कीदृशं रूपं मातस्तव मुमुक्षुभिः।
त्वयि भक्तिः परा कार्या देहबन्धविमुक्तये।।2।।
हिमालय ने कहा-हे भगवती! यदि आपका आश्रय ग्रहण न करने वालों की मुक्ति है ही नहीं, तब कृपया मुझे यह समझाइये कि लोग किस तरह आपकी शरण प्राप्त करें। माता! देहबन्धन से छकारा पाने हेतु मोक्ष की कामना वालों को आपके किस रूप का ध्यान करना चाहिए तथा आपकी कैसी परम भक्ति करनी चाहिए?।।2।।
श्री पावंत्युवाच
मनुष्याणां सहस्त्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।
तेषामपि सहस्रेषु कोऽपि मां वेत्ति तत्त्वतः।।३।।
रूपं मे निष्कलं दश वाचातीतं सुनिर्मलम्।
निर्गुण परमं ज्योतिः सर्वव्याप्येक कारणम्।।4।।
निर्विकल्पं निरालम्बं सच्चिदानन्दविग्रहम्।
ध्येयं मुमुक्षुभिस्तात देस्थन्धविमुक्तये।।5।।
श्री पार्थती जी ने कहा-हजारों मनुष्यों में कोई-कोई ही सिद्धि हेतु प्रयास करता है, सिद्धि हेतु तत्पर उन हजारों में भी कोई-कोई ही मुझ को तत्त्वतः जान पाता है। पिताजी! मुमुक्षुओं को देहबन्ध से मुक्ति के लिये मेरे शुद्ध (निष्फल), सूक्ष्म, वाणी से परे, अत्यधिक निर्मल, निर्गुण, परम ज्योतिस्वरूप, सर्वव्यापक, एकमात्र कारण रूप, निर्विकल्प आश्रयहीन, एवं सच्चिदानन्द विग्रह वाले स्वरूप का ध्यान करना चाहिए।।3-5।।
अहं मतिमतां तात सुमतिः पर्वताधिप।
पृथिव्या पुण्यगन्धोऽहं रणेऽप्सु शशिनः प्रभा।।6।।
तपस्विनां तपश्चास्मि तेजश्चास्मि विभावसोः।
कामरागादिरहितं बलिनां बलमप्यहम्।।7।।
पिताजी! बुद्धिमानों की मैं सद् बुद्धि हूँ। गिरिराज! मैं ही पृथ्वी में पावन गन्ध रूप में विद्यमान हूँ, मैं ही जल में रस के रूप में व्याप्त हूँ चन्द्रमा की प्रभा (प्रकाश) मैं ही हूँ मैं ही तपस्वियों की तपस्या हूँ सूर्य का तेज भी मैं ही हूँ बलवान् प्राणियों का काम-रागरहित बल भी मैं ही हूं।।6-7।।
सर्वकर्मसु राजेन्द्र कर्म पुण्यात्मकं तथा।
छन्दसामस्मि गायत्री यीचानां प्रणबोऽस्थ्यहम्।।8।।
थर्माविरुद्धः कामोमऽस्मि सर्वस्तेषु भूधर।
एवमन्येऽपि ये भावाः सात्त्विका राजसास्तथा।।9।।
तामसा मत्त ज्यभ्रा मदप्रीनाश्च ते मयि।
नाहं तेषामधीनास्मि कदाचित्पर्वतर्षभ।।1०।।
राजेन्द्र! मैं सभी कर्मो में पुण्यात्मक कर्म हूं, छन्दों में गायत्री छन्द हूँ, बीज मन्त्रों में प्रणव (ओंकार) हूँ तथा सभी जीवों में धर्मानुकूल काम हूँ। पर्वतराज! इसी भाति दूसरे भी जो सात्त्विक, राजस् एवं तामस् भाव हैं वे मुझी से उत्पन्न हुए हैं, वे मेरे अधीन हैं तथा मुझ में ही विद्यमान हैं। पर्वतश्रेष्ठ! मैं उनके अधीन बिलकुल नर्ही हूँ।।8-1०।।
एवं सर्वगत रूपमद्वैतं परमव्ययम्।
न जानन्ति मसराज मोस्तिा मम मायया।।11।।
ये भजन्ति च मां भक्त्या मायामेतां तरन्ति ते।
ममैश्वयं न जानन्ति ऋगाद्याः भुतयः परम्।।12।।
महाराज। माया द्वारा मोहित हुए पुरुष मेरे इस सर्वव्यापी, अद्वैत, परम एवं निर्विकार रूप को नही समझ पाते हैं, परन्तु जो पुरुष भक्ति सहित मेरी आराधना (उपासना) करते है वे इस माया को पार कर जाते हैं। ऋक् सामादि श्रुतियां भी मेरे परम ऐश्वर्य को नही जानती हैं।।11-12।।
सृष्ट्यर्थमात्मनो रूप मयैव स्यैच्छया पितः।
कृतं द्विधा नगश्रेष्ठ स्मीपुमानिति भेदतः।।13।।
शिवः प्रधानः पुरुषः शक्तिश्च परमा शिवा।
शिवशक्सात्मकं बस योगिनस्तत्त्व दर्शिन।।14।।
वदन्ति मां महाराज तत्त्वमेवं परात्यरम्।।14/1/2।।
पिताजी! पर्वत श्रेष्ठ! सृष्टि हेतु मैंने ही अपने रूप को स्त्री-पुरुष भेद से दो भागों में विभक्त किया। शिव ही प्रधान पुरुष हैं और शिवा ही श्रेष्ठ शक्ति हैं। महाराज! तत्त्वदर्शी योगीजन मुझको ही शिवशक्ति से सम्पन्न ब्रह्म परात्पर तत्त्व बताते हैं।।1३-14/1/2।।
सृजामि बखरूपेण जगदेतच्चराचरम्।।15।।
संहरामि मह्मरुद्ररूपेणान्ते निजेच्छया।
दुर्वृत्तशमनार्थाय विष्णुः परमपूरुष।।16।।
भूत्वा जगदिद कृक्लं पालयामि महामते।
अवतीर्य क्षितौ फ्लो फ्लो रामादिरूपत।।17।।
निहत्य दानवान्यूध्वीं पालयामि पुनः पुनः।
रूपं शन्सात्मकं तात प्रधान यच्च मे मतम्।।18।।
यतस्तया बिना स्वः कार्य नेहात्मना स्थितम्।।18/1/2।।
ब्रह्मरूप से मैं इस चराचर जगत की रचना करती हूँ, परम पुरुष विष्णु रूप में समस्त जगत का पालन करती हूँ अन्त में अपनी ही इच्छ से दुराचारियों का शमन महारुद्ररूप से संहार करती हूँ। महामते! मैं राम आदि विभिन्न रूपों से पृथ्वी पर बार-बार जन्म लेकर दानवों का संहार करके बार-बार विश्व का पालन करती हूँ। तात्! मेरा शक्लात्मक रूप ही प्रधान है, क्योंकि अपने स्वरूप में स्थित रहता हुआ पुरुष उसके बिना कुछ भी करने में सक्षम नहीं है।।15-189/1/2।।
रूपाण्येतानि राजेन्द्र तथा काल्यादिकानि च।।19।।
स्थूलानि विद्धि सूक्ष्म च पूर्वमुक्तं तवाध।
अनभिज्ञाय रूपं तु स्थूल पर्वतपुगंव।।2०।।
अगम्यं सूक्ष्मरूप मे यसन्यवा मोक्षभाग्भवेत्।
तस्मास्थूलं हिमे रूपं मुमुक्षुः पूर्वमाअयेत्।।21।।
क्रियायोगेन तान्येव समथ्यर्व्य विधानतः।
शनैरालोचयेत्सुक्ष्म रूपं मे परमब्धयम्।।22।।
हे राजेन्द्र! मेरे इन काली आदि रूपों को स्थूल रूप समझो। निष्पाप! अपने सूक्ष्म-रूप के विषय में मैं आपको पहले ही कह चुकी हूँ। पर्वतश्रेष्ठ! मेरे स्थूल रूप का ज्ञान किये बिना उस सूक्ष्म रूप का ज्ञान नहीं किया जा सकता है जिसके दर्शन मात्र से प्राणी मोक्ष का अधिकारी हो जाता है। इसलिये मोक्ष की इच्छ करने वाले प्राणी को प्रथम मेरे स्थूलरूप का ही आश्रय लेना चाहिए। मुमुक्षु को चाहिए कि वह किया योग द्वारा विधानपूर्वक मेरे उन स्थूल रूपों की आराधना करके शनैः-शनैः मेरे शाश्वत परम सूक्ष्म रूप का दर्शन करे।।19-22।।
मातर्बहुविथं रूपं स्कूल तब मझेवरि।
तेषु किं रूपमाभ्रित्य सहसा मोय्यनुग्रहः।
तन्मे बूहि महादेवि यदि ते मय्यनुग्रहः।
संसारान्मोचय त्वं मां दासोऽस्मि भक्तवत्सले।।24।।
हिमालय ने कहा-माता! आपके स्थूल रूप बहुत तरह के हैं। महेश्वरि! उनमें किस रूप का आश्रय लेकर मनुष्य शीघ्रतम् मोक्ष का अधिकारी बन सकता है? महादेवि! अगर मुझ पर आपकी कृपा है तब मुझको उसे बताइये। हे भक्तवत्सले! मैं आप का सेवक (दास) हूँ। अस्तु, इस संसार से मुझको मुक्त कीजिये।।2०-24।।
श्री पार्वत्युवाच
मया व्याप्तमिदं विश्व स्थूलरूपेण भूधर।
तत्राराध्यतमा देवीमूर्तिः शीघ्रं विमुक्तिदा।।25।।
सापि नानाविद्या तत्र मह्मविद्या महामते।
विमुक्तिदा महाराज तासां नामानि मे श्रुणु।।26।।
महाकाली तथा तारा षोडशी भुवनेश्वरी।
भैरवी बगला छिन्ना महात्रिपुरसुन्दरी।।27।।
धूमावती च मातंगी नृणां भोक्षफलप्रदा।
आसु कुर्वन् परां भक्तिं मोक्ष प्राप्नोत्यसंशयम्।।28।।
श्री पार्वती जी ने कहा-पर्वतराज! मेरे स्थूल रूपों से यह समस्त विश्व ही व्याप्त है, फिर भी शीघ्र मुक्ति प्रदान करने वाली मेरी देवीमूर्ति सर्वाधिक आराधनीया है। महामते! ये देवी भी मुक्तिदायिनी महाविद्या नाम से नाना (बहुत) स्वरूपों वाली हैं। महाराज! मुझसे उनके नाम सुनें-महाकाली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, भैरवी, बगला, किा, महात्रिपुरसुन्दरी, धूमावती तथा मातङ्गी (दस) नामों वाली ये लोगों को मोक्ष फल प्रदान करने वाली हैं। इनकी किसी एक की) परम भक्ति (आराधना) करने वाला निश्चित शीघ्र मोक्ष प्राप्त कर लेता है।।29-28।।
आसामन्यतमां तात क्रियायोगेन चाश्रय।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यसि निश्चितम्।।29।।
मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्।
न लभन्ते मझत्मानः कदाचिदपि थर।।3०।।
पिताजी! आप मन-बुद्धि से मेरे प्रति समर्पित होकर इनमें से (दस महाविद्याओं) किसी एक की क्रियायोग द्वारा शरण ग्रहण कीजिए; इसी से आप निश्चित रूप से मुझको प्राप्त कर लेंगे। पर्वत श्रेष्ठ! मुझको प्राप्त कर महात्माजन अनित्य तथा दुःख त्रय से आवृत पुनर्जन्म को कभी भी नहीं प्राप्त करते।।29-3०।।
अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं मुक्तिदा राजन् भक्तियुक्तस्य योगिनः।।31।।
यस्तु संस्मृत्य मामन्ते प्राण त्यजति भक्तितः।
सोऽपि संसारदुखौधैर्बाध्यते न कदाचन।।32।।
अनन्यचेतसो ये मां भजन्ते भक्ति संयुताः।
तेषां मुक्तिप्रदा नित्यमहमस्मि महामते।।33।।
राजन्! सतत् एकनिष्ठ चित्त वाला होकर जो भक्त मेरा स्मरण करता है उस भक्तियुक्त योगी को मैं मुक्ति प्रदान करती हूँ। भक्तिपूर्वक मुझे स्मरण करते हुए जो व्यक्ति अन्तकाल में प्राण त्याग करता है वह कभी भी जगत के दुःख समूहों सै पीड़ित नहीं होता। महामते! मेरे प्रति अनन्य चित्त से जो भक्तिपूर्ण होकर सदैव मुझे भजते हैं उनको मैं मोक्ष प्रदान करती हूँ।।31-33।।
शक्त्यात्मकं हि मे रूपमनायासेन मुक्तिदम्।
समाश्रय महाराज ततो मोक्षमवाख्यसि।।३4।।
महाराज! मेरा वह शक्त्यात्मक रूप बिना किसी श्रम के ही मुक्ति देने वाला है अतः आप उस रूप की शरण लीजिये। आप निश्चय ही मोक्ष प्राप्त करेंगे।।34।।
येऽप्यन्यदेवताभक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः।
तेऽपिमामेव राजेन्द्र यजन्ते नात्र संशयः।।35।।
अहं सर्वमयी यस्मात्सर्वयज्ञक्लप्रदा।
किंतु तेष्वेव ये भक्तास्तेषांमुक्तिः सुदुर्लभा।।36।।
राजेन्द्र! जो श्रद्धा से परिपूर्ण होकर भक्तिपूर्वक दूसरे देवी की भी उपासना करते हैं, वे भी परोक्ष रूप से मेरी ही आराधना करते हैं इसमें कोई सन्देह नहीं है। सभी यज्ञों का फलप्रदायिनी मैं यद्यपि सर्वव्यापिनी हूँ, फिर भी जो लोग एक मात्र उन्हीं दूसरे देवताओं की भक्ति में संलग्न रहते हैं। उनकी मुक्ति अति दुर्लभ है।।35-36।।
ततो मामेव शरणं देहबन्धविमुक्तये।
याहि संयतचेतास्लमामेष्यसि न संशयः।।37।।
सर्वं मदर्पणं कृत्वा मोक्ष्यसे कर्मबन्धनात्।।38।।
इसलिये देहबन्धन से मुक्ति के लिये आप अपने मन को संयत करके मेरी शरण में आइये। इस प्रकार आप मुझको प्राप्त कर लेंगे, इसमें कोई संशय नहीं है। आप जो कुछ भी करते हैं, खाते हैं, हवन करते हैं, दान देते हैं, वह सब मुझको अर्पण करके आप कर्मबन्धन से मुक्त हो जायेंगे।।37-38।।
ये मां भजन्ति सद्भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्।
न च मेऽस्ति प्रियः कश्चिदप्रियोऽपि मह्ममते।।39।।
अपि चेत्सुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
सोऽपि पापबिनिर्मुक्तो जते भववन्धनात्।।40।।
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शनैस्तरति सोऽपि च।
मयि भक्तिमतां मुक्तिः सुलभा पर्वताधिप।।41।।
जो जन सच्ची भक्ति से मेरी आराधना-उपासना करते हैं वे मुझमें हैं तथा मैं उनमें स्थित हूँ। महामते! मेरे लिये कोई भी व्यक्ति प्रिय अथवा अप्रिय नहीं है। अत्यधिक दुराचारी मनुष्य भी यदि पूर्ण शरणागत भाव से मेरी उपासना करने लगता है, तब वह भी पापहीन होकर जगत बन्धन से रू जाता है। वह तत्कण धर्मात्मा बन जाता है तथा शनैः शनैः जगत जलनिधि को पार कर जाता है। पर्वतराज! मुझमे अनन्य भक्ति रखने वाले प्राणियों हेतु मुक्ति सुलभ हो जाती है।।39-41।।
ततक्त्वं परया भक्त्या मां भजस्य महामते।
अहं त्वां जन्मजलधेस्तारयामि सुनिश्चितम्।।42।।
मन्मना भव मद्याजी मां नमस्करु मत्परः।
मामेवैष्यसि संसार दुःखैनेव हि बाध्यसे।।43।।
अस्तु महामते! आप पराभक्ति से संयुक्त होकर मेरी आराधना कीजिए। मैं आपको जन्म-मरण रूपी सागर से अवश्य ही पार कर दूँगी। आप मुझमें अनुरक्त मन वाले ही, मेरी उपासना करें, मुझ को नमन करें तथा मेरे परायण हो जायँ। इस प्रकार आप मुझको ही प्राप्त होंगे तथा भौतिक कष्ट आपको कभी भी पीड़ित नहीं कर सकेंगे।।42-43।।
ॐ श्रीभगवती गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्री पार्वतीहिमालय संवादे मोक्षयोगोपदेश वर्णन नाम चतुर्थोऽध्यायः।
|
- अपनी बात
- कामना
- गीता साहित्य
- भगवती चरित्र कथा
- शिवजी द्वारा काली के सहस्रनाम
- शिव-पार्वती विवाह
- राम की सहायता कर दुष्टों की संहारिका
- देवी की सर्वव्यापकता, देवी लोक और स्वरूप
- शारदीय पूजाविधान, माहात्म्य तथा फल
- भगवती का भूभार हरण हेतु कृष्णावतार
- कालीदर्शन से इन्द्र का ब्रह्महत्या से छूटना-
- माहात्म्य देवी पुराण
- कामाख्या कवच का माहात्म्य
- कामाख्या कवच
- प्रथमोऽध्यायः : भगवती गीता
- द्वितीयोऽध्याय : शरीर की नश्वरता एवं अनासक्तयोग का वर्णन
- तृतीयोऽध्यायः - देवी भक्ति की महिमा
- चतुर्थोऽध्यायः - अनन्य शरणागति की महिमा
- पञ्चमोऽध्यायः - श्री भगवती गीता (पार्वती गीता) माहात्म्य
- श्री भगवती स्तोत्रम्
- लघु दुर्गा सप्तशती
- रुद्रचण्डी
- देवी-पुष्पाञ्जलि-स्तोत्रम्
- संक्षेप में पूजन विधि