उपन्यास >> राग दरबारी (सजिल्द) राग दरबारी (सजिल्द)श्रीलाल शुक्ल
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राग दरबारी एक ऐसा उपन्यास है जो गाँव की कथा के माध्यम से आधुनिक भारतीय जीवन की मूल्यहीनता को सहजता और निर्ममता से अनावृत करता है।....
Raag Darbari
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
राग दरबारी एक ऐसा उपन्यास है जो गाँव की कथा के माध्यम से आधुनिक भारतीय जीवन की मूल्यहीनता को सहजता और निर्ममता से अनावृत करता है। शुरू से आखीर तक इतने निस्संग और सोद्देश्य व्यंग्य के साथ लिखा गया हिंदी का शायद यह पहला वृहत् उपन्यास है।
फिर भी राग दरबारी व्यंग्य-कथा नहीं है। इसका संबंध एक बड़े नगर से कुछ दूर बसे हुए गाँव की जिंदगी से है, जो वर्षों की प्रगति और विकास के नारों के बावजूद निहित स्वार्थों और अनेक अवांछनीय तत्त्वों के सामने घिसट रही है। यह उसी जिंदगी का दस्तावेज है।
1968 में राग दरबारी का प्रकाशन एक महत्त्वपूर्ण साहित्यिक घटना थी। 1970 में इसे साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया और 1986 में एक दूरदर्शन-धारावाहिक के रूप में इसे लाखों दर्शकों की सराहना प्राप्त हुई। वस्तुतः राग दरबारी हिंदी के कुछ कालजयी उपन्यासों में एक है।
फिर भी राग दरबारी व्यंग्य-कथा नहीं है। इसका संबंध एक बड़े नगर से कुछ दूर बसे हुए गाँव की जिंदगी से है, जो वर्षों की प्रगति और विकास के नारों के बावजूद निहित स्वार्थों और अनेक अवांछनीय तत्त्वों के सामने घिसट रही है। यह उसी जिंदगी का दस्तावेज है।
1968 में राग दरबारी का प्रकाशन एक महत्त्वपूर्ण साहित्यिक घटना थी। 1970 में इसे साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया और 1986 में एक दूरदर्शन-धारावाहिक के रूप में इसे लाखों दर्शकों की सराहना प्राप्त हुई। वस्तुतः राग दरबारी हिंदी के कुछ कालजयी उपन्यासों में एक है।
प्रस्तावना
‘राग दरबारी’ का लेखन 1964 के अन्त में शुरू हुआ और अपने अन्तिम रूप में 1967 में समाप्त हुआ। 1968 में इसका प्रकाशन हुआ और 1969 में इस पर मुझे साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला। तब से अब तक इसके दर्जनों संस्करण और पुनर्मुद्रण हो चुके हैं। 1969 में ही एक सुविज्ञात समीक्षक ने अपनी बहुत लम्बी समीक्षा इस वाक्य पर समाप्त की : ‘अपठित रह जाना ही इसकी नियति है।’ दूसरी ओर इसकी अधिकांश समीक्षाएँ मेरे लिए अत्यन्त उत्साहवर्धक सिद्ध हो रही थीं। कुल मिलाकर, हिन्दी समीक्षा के बारे में यह तो स्पष्ट हो ही गया कि एक ही कृति पर कितने परस्पर-विपरीत विचार एक साथ फल-फूल सकते हैं। उपन्यास को एक जनतांत्रिक विधा माना जाता है। जितनी भिन्न-भिन्न मतोंवाली समीक्षाएँ-आलोचनाएँ इस उपन्यास पर आईं, उससे यह तो प्रकट हुआ ही कि यही बात आलोचना की विधा पर भी लागू की जा सकती है।
जो भी हो, यहाँ मेरा अभीष्ट अपनी आलोचनाओं का उत्तर देना या उनका विश्लेषण करना नहीं है। दरअसल, मैं उन लेखकों में नहीं हूँ जो अपने लेखन को सर्वथा दोषरहित मानकर सीधे स्वयं या किसी प्रायोजित आलोचक मित्र द्वारा बताए गए दोषों का जवाब देकर विवाद को कुछ दिन जिन्दा रखना चाहते हैं। मैं उनमें हूँ जो मानते हैं कि सर्वथा दोषरहित होकर भी कोई उबाऊ और स्तरहीन हो सकती है जबकि कोई कृति दोषयुक्त होने के बावजूद धीरे-धीरे क्लासिक का दर्जा ले सकती है। दूसरे, मैं प्रत्येक समीक्षा या आलोचना को जी भरकर पढ़ता हूँ और खोजता हूँ कि उससे अपने भावी लेखन के लिए कौन-सा सुधारात्मक अनुभव प्राप्त किया जा सकता है। ‘राग दरबारी’ की प्रासंगिकता पर समीक्षाकारों में मुझसे बार-बार पूछा गया है। यह सही है कि गाँवों की राजनीति का जो स्वरूप यहाँ चित्रित हुआ है, वह आज के राष्ट्रव्यापी और मुख्यतः मध्यम और उच्च वर्गों के भ्रष्टाचार और तिकड़म को देखते हुए बहुत अदना जान पड़ता है और लगता है कि लेखक अपनी शक्ति कुछ गाँवारों के ऊपर जाया कर रहा है। पर जैसे-जैसे उच्चस्तरीय वर्ग में ग़बन, धोखाधड़ी, भ्रष्टाचार और वंशवाद अपनी जड़ें मज़बूत करता जाता है, वैसे-वैसे आज से चालीस वर्ष पहले का यह उपन्यास और ज़्यादा प्रासंगिक होता जा रहा है। कम-से-कम सामान्य पाठकों और अकादमीय संस्थानों में इसका जैसा पठन-पाठन बढ़ रहा है, उससे तो यही संकेत मिलता है।
इसके प्रकाशन के चालीसवें वर्ष में राजकमल प्रकाशन ने बिलकुल नए स्वरूप में इसका नया संस्करण निकालने का संकल्प किया है। इसके लिए मैं उक्त प्रकाशन के श्री अशोक महेश्वरी के प्रति धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ और आशा करता हूं, उनका यह प्रयास पाठकों के लिए और विशेषतः नए पाठकों के लिए आकर्षक सिद्ध होगा।
जो भी हो, यहाँ मेरा अभीष्ट अपनी आलोचनाओं का उत्तर देना या उनका विश्लेषण करना नहीं है। दरअसल, मैं उन लेखकों में नहीं हूँ जो अपने लेखन को सर्वथा दोषरहित मानकर सीधे स्वयं या किसी प्रायोजित आलोचक मित्र द्वारा बताए गए दोषों का जवाब देकर विवाद को कुछ दिन जिन्दा रखना चाहते हैं। मैं उनमें हूँ जो मानते हैं कि सर्वथा दोषरहित होकर भी कोई उबाऊ और स्तरहीन हो सकती है जबकि कोई कृति दोषयुक्त होने के बावजूद धीरे-धीरे क्लासिक का दर्जा ले सकती है। दूसरे, मैं प्रत्येक समीक्षा या आलोचना को जी भरकर पढ़ता हूँ और खोजता हूँ कि उससे अपने भावी लेखन के लिए कौन-सा सुधारात्मक अनुभव प्राप्त किया जा सकता है। ‘राग दरबारी’ की प्रासंगिकता पर समीक्षाकारों में मुझसे बार-बार पूछा गया है। यह सही है कि गाँवों की राजनीति का जो स्वरूप यहाँ चित्रित हुआ है, वह आज के राष्ट्रव्यापी और मुख्यतः मध्यम और उच्च वर्गों के भ्रष्टाचार और तिकड़म को देखते हुए बहुत अदना जान पड़ता है और लगता है कि लेखक अपनी शक्ति कुछ गाँवारों के ऊपर जाया कर रहा है। पर जैसे-जैसे उच्चस्तरीय वर्ग में ग़बन, धोखाधड़ी, भ्रष्टाचार और वंशवाद अपनी जड़ें मज़बूत करता जाता है, वैसे-वैसे आज से चालीस वर्ष पहले का यह उपन्यास और ज़्यादा प्रासंगिक होता जा रहा है। कम-से-कम सामान्य पाठकों और अकादमीय संस्थानों में इसका जैसा पठन-पाठन बढ़ रहा है, उससे तो यही संकेत मिलता है।
इसके प्रकाशन के चालीसवें वर्ष में राजकमल प्रकाशन ने बिलकुल नए स्वरूप में इसका नया संस्करण निकालने का संकल्प किया है। इसके लिए मैं उक्त प्रकाशन के श्री अशोक महेश्वरी के प्रति धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ और आशा करता हूं, उनका यह प्रयास पाठकों के लिए और विशेषतः नए पाठकों के लिए आकर्षक सिद्ध होगा।
श्रीलाल शुक्ल
राग दरबारी
1
शहर का किनारा। उसे छोड़ते ही भारतीय देहात का महासागर शुरू हो जाता था। वहीं एक ट्रक खड़ा था। उसे देखते ही यकीन हो जाता था, इसका जन्म केवल सड़कों के साथ बलात्कार करने के लिए हुआ है। जैसे कि सत्य के होते हैं, इस ट्रक के भी कई पहलू थे। पुलिसवाले उसे एक ओर से देखकर कह सकते थे कि वह सड़क के बीच में खड़ा है, दूसरी ओर से देखकर ड्राइवर कह सकता था कि वह सड़क के किनारे पर है। चालू फैशन के हिसाब से ड्राइवर ने ट्रक का दाहिना दरवाज़ा खोलकर डैने की तरह फैला दिया था। इससे ट्रक की खूबसूरती बढ़ गई थी, साथ ही यह खतरा मिट गया था कि उसके वहाँ होते हुए कोई दूसरी सवारी भी सड़क के ऊपर से निकल सकती है।
सड़क के एक ओर पेट्रोल-स्टेशन था; दूसरी ओर छप्परों, लकड़ी और टीन के सड़े टुकड़े और स्थानीय क्षमता के अनुसार निकलनेवाले कबाड़ की मदद से खड़ी की हुई दुकाने थीं। पहली निगाह में ही मालूम हो जाता था कि दुकानों की गिनती नहीं हो सकती। प्रायः सभी में जनता का एक मनपसन्द पेय मिलता था जिसे वहाँ गर्द, चीकट, चाय की कई बार इस्तेमाल की हुई पत्ती और खौलते पानी आदि के सहारे बनाया जाता था। उनमें मिठाइयाँ भी थीं जो दिन-रात आँधी-पानी और मक्खी-मच्छरों के हमलों का बहादुरी से मुकाबला करती थीं। वे हमारे देसी कारीगरों के हस्त कौशल और उनकी वैज्ञानिक दक्षता का सबूत देती थीं। वे बताती थीं कि हमें एक अच्छा रेजर-ब्लेड बनाने का नुस्खा भले ही न मालूम हो, पर कूड़े को स्वादिष्ट खाद्य पदार्थों में बदल देने की तरकीब सारी दुनिया में अकेले हमीं को आती है।
ट्रक के ड्राइवर और क्लीनर एक दुकान के सामने खड़े चाय पी रहे थे।
रंगनाथ ने दूर से इस ट्रक को देखा और देखते ही उसके पैर तेज़ी से चलने लगे।
आज रेलवे ने उसे धोखा दिया था। स्थानीय पैसेंजर्स ट्रेन को रोज की तरह दो घण्टा लेट समझकर वह घर से चला था, पर वह सिर्फ डेढ़ घण्टा लेट होकर चल दी थी। शिकायती किताब के कथा-साहित्य में अपना योगदान देकर और रेलवे अधिकारियों की निगाह में हास्यास्पद बनकर वह स्टेशन से बाहर निकल आया था। रास्ते में चलते हुए उसने ट्रक देखा और उसकी बाछें-वे जिस्म में जहाँ कहीं भी होतीं हों—खिल गईं।
जब वह ट्रक के पास पहुँचा, क्लीनर और ड्राइवर चाय की आखिरी चुस्कियाँ ले रहे थे। इधर-उधर ताकककर, अपनी खिली हुई बाछों को छिपाते हुए, उसने ड्राइवर से निर्विकार ढंग से पूछा, ‘‘क्यों ड्राइवर साहब, यह ट्रक क्या शिवपालगंज की ओर जाएगा ?’’
ड्राइवर के पीने को चाय थी और देखने की दुकानदारिन थी। उसने लापरवाही से जवाब दिया, ‘‘जायगा।’’
‘‘हमें भी ले चलिएगा अपने साथ ? पन्द्रहवें मील पर उतर पड़ेंगे। शिवपालगंज तक जाना है।’’
ड्राइवर ने दुकानदारिन की सारी संभावनाएँ एक साथ देख डालीं और अपनी निगाह रंगनाथ की ओर घुमायी। अहा ! क्या हुलिया था !
नवकंजलोचन कंजमुख करकंज पदकंजारुणम् ! पैर खद्दर के पैजामे में, सिर खद्दर की टोपी में, बदन खद्दर के कुर्ते में। कन्धें से लटकता हुआ भूदानी झोला। हाथ में चमड़े की अटैची। ड्राइवर ने उसे देखा और देखता ही रह गया। फिर कुछ सोचकर बोला, ‘‘बैठ जाइए शिरिमानजी, अभी चलते हैं।’’
घरघराकर ट्रक चला। शहर की टेढ़ी-मेढ़ी लपेट से फुरसत पाकर कुछ दूर आगे साफ़ और वीरान सड़क आ गई। यहाँ ड्राइवर ने पहली बार टॉप गियर का प्रयोग किया पर वह फिसल-फिसल कर न्यूटल में गिरने लगा। हर सौ गज़ के बाद गियर फिसल जाता और एक्सिलेटर दबे होने से ट्रक की घरघराहट बढ़ जाती, रफ्तार धीमी हो जाती रंगनाथ ने कहा, ‘‘ड्राइवर साहब, तुम्हारा गियर तो बिलकुल अपने देश की हुकूमत जैसा है।’’
ड्राइवर ने मुस्करा कर वह प्रशंसा-पत्र ग्रहण किया। रंगनाथ ने अपनी बात साफ़ करने की कोशिश की। कहा, ‘‘उसे चाहे जितनी बार टॉप गियर में डालो, दो गज़ चलते ही फिसल जाती है और लौटकर अपने खाँचे में आ जाती है।’’
ड्राइवर हँसा। बोला, ‘‘ऊँची बात कह दी शिरिमानजी ने।’’
इस बार उसने गियर को टॉप में डालकर अपनी टाँग लगभग नब्बे अंश के कोण पर उठायी और गियर को जाँघ के नीचे दबा लिया। रंगनाथ ने कहना चाहा कि हुकूमत को चलाने का भी यही नुस्खा है, पर यह सोचकर कि बात ज़रा और ऊँची हो जाएगी, वह चुप बैठा रहा।
उधर ड्राइवर ने अपनी जाँघ गियर से हटाकर यथास्थान वापस पहुँचा दी थी। गियर पर उसने एक लम्बी लकड़ी लगा दी और उसका एक सिरा पेनल के नीचे ठोंक दिया। ट्रक ते़ज़ी से चलता रहा। उसे देखते ही साइकिल-सावर, पैदल, इक्के-सभी सवारियाँ कई फर्लांग पहले ही से खौफ के मारे सड़क से उतरकर नीचे चली जातीं। जिस तेज़ी से वे भाग रही थीं, उससे लगता था कि उनकी निगाह में वह ट्रक नहीं है; वह आग की लहर है, बंगाल की खाड़ी से उठा हुआ तूफान है, जनता पर छोड़ा हुआ कोई बदकलाम अहलकार है, पिंडारियों का गिरोह है। रंगनाथ ने सोचा, उसे पहले ही ऐलान करा देना था कि अपने-अपने जानवर और बच्चे घरों में बन्द कर लो, शहर से अभी-अभी एक ट्रक छूटा है।
तब तक ड्राइव ने पूछा, ‘‘कहिए शिरिमानजी ! क्या हालचाल हैं ? बहुत दिन बाद देहात की ओर जा रहे हैं !’’
रंगनाथ ने शिष्टाचार की इस कोशिश को मुस्कराकर बढ़ावा दिया। ड्राइवर ने कहा, ‘‘शिरिमानजी, आजकल क्या कर रहे हैं ?’’
‘‘घास खोद रहा हूँ।’’
ड्राइवर हँसा। दुर्घटनावश एक दस साल का नंग-धड़ंग लड़का ट्रक से बिलकुल ही बच गया। बचकर वह एक पुलिया के सहारे छिपकली-सा गिर पड़ा। ड्राइवर इससे प्रभावित नहीं हुआ। एक्सिलेटर दबाकर हँसते-हँसते बोला, ‘‘क्या बात कही है ! ज़रा खुलासा समझाइए।’’
‘‘कहा तो, घास खोद रहा हूँ। इसी को अंग्रेजी में रिसर्च कहते हैं। परसाल एम.ए. किया था। इस साल से रिसर्च शुरू की है।’’ ड्राइवर जैसे अलिफ-लैला की कहानियाँ सुन रहा हो, मुस्कराता हुआ बोला, ‘‘और शिरिमानजी, शिवपालगंज क्या करने जा रहा हैं ?’’
‘‘वहाँ मेरे मामा रहते हैं। बीमार पड़ गया था। कुछ दिन देहात में जाकर तन्दुरस्ती बनाऊँगा।’’
इस बार ड्राइवर काफ़ी देर तक हँसता रहा। बोला, ‘‘क्या बात बनायी है शिरिमानजी ने !’’
रंगनाथ ने उसकी ओर सन्देह से देखते हुए पूछा, ‘‘जी ! इसमें बात बनाने की क्या बात ?’’
वह इस मासूमियत पर लोट-पोट हो गया। पहले ही की तरह हँसते हुए बोला, ‘‘क्या कहने हैं ! अच्छा जी, छोड़िए बात को।
बताइए, मित्तल साहब के क्या हाल हैं ? क्या हुआ उस हवालाती के खूनवाले मामले का ?’’
रंगनाथ का खून सूख गया। भर्राए गले से बोला, ‘‘अजी, मैं क्या जानूँ वह मित्तल कौन है।’’
ड्राइवर की हँसी में ब्रेक लग गया। ट्रक की रफ्तार भी कुछ कम पड़ गई। उसने रंगनाथ को एक बार गौर से देखकर पूछा, ‘‘आप मित्तल साहब को नहीं जानते ?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘जैन साहब को ?’’
‘‘नहीं।’’
ड्राइवर ने खिड़की के बाहर थूक दिया और साफ़ आवाज़ में सवाल किया, ‘‘आप सी.आई.डी. में काम नहीं करते ?’’
रंगनाथ ने झुँझलाकर कहा, ‘‘सी.आई.डी. ? यह किस चिड़िया का नाम है ?’
सड़क के एक ओर पेट्रोल-स्टेशन था; दूसरी ओर छप्परों, लकड़ी और टीन के सड़े टुकड़े और स्थानीय क्षमता के अनुसार निकलनेवाले कबाड़ की मदद से खड़ी की हुई दुकाने थीं। पहली निगाह में ही मालूम हो जाता था कि दुकानों की गिनती नहीं हो सकती। प्रायः सभी में जनता का एक मनपसन्द पेय मिलता था जिसे वहाँ गर्द, चीकट, चाय की कई बार इस्तेमाल की हुई पत्ती और खौलते पानी आदि के सहारे बनाया जाता था। उनमें मिठाइयाँ भी थीं जो दिन-रात आँधी-पानी और मक्खी-मच्छरों के हमलों का बहादुरी से मुकाबला करती थीं। वे हमारे देसी कारीगरों के हस्त कौशल और उनकी वैज्ञानिक दक्षता का सबूत देती थीं। वे बताती थीं कि हमें एक अच्छा रेजर-ब्लेड बनाने का नुस्खा भले ही न मालूम हो, पर कूड़े को स्वादिष्ट खाद्य पदार्थों में बदल देने की तरकीब सारी दुनिया में अकेले हमीं को आती है।
ट्रक के ड्राइवर और क्लीनर एक दुकान के सामने खड़े चाय पी रहे थे।
रंगनाथ ने दूर से इस ट्रक को देखा और देखते ही उसके पैर तेज़ी से चलने लगे।
आज रेलवे ने उसे धोखा दिया था। स्थानीय पैसेंजर्स ट्रेन को रोज की तरह दो घण्टा लेट समझकर वह घर से चला था, पर वह सिर्फ डेढ़ घण्टा लेट होकर चल दी थी। शिकायती किताब के कथा-साहित्य में अपना योगदान देकर और रेलवे अधिकारियों की निगाह में हास्यास्पद बनकर वह स्टेशन से बाहर निकल आया था। रास्ते में चलते हुए उसने ट्रक देखा और उसकी बाछें-वे जिस्म में जहाँ कहीं भी होतीं हों—खिल गईं।
जब वह ट्रक के पास पहुँचा, क्लीनर और ड्राइवर चाय की आखिरी चुस्कियाँ ले रहे थे। इधर-उधर ताकककर, अपनी खिली हुई बाछों को छिपाते हुए, उसने ड्राइवर से निर्विकार ढंग से पूछा, ‘‘क्यों ड्राइवर साहब, यह ट्रक क्या शिवपालगंज की ओर जाएगा ?’’
ड्राइवर के पीने को चाय थी और देखने की दुकानदारिन थी। उसने लापरवाही से जवाब दिया, ‘‘जायगा।’’
‘‘हमें भी ले चलिएगा अपने साथ ? पन्द्रहवें मील पर उतर पड़ेंगे। शिवपालगंज तक जाना है।’’
ड्राइवर ने दुकानदारिन की सारी संभावनाएँ एक साथ देख डालीं और अपनी निगाह रंगनाथ की ओर घुमायी। अहा ! क्या हुलिया था !
नवकंजलोचन कंजमुख करकंज पदकंजारुणम् ! पैर खद्दर के पैजामे में, सिर खद्दर की टोपी में, बदन खद्दर के कुर्ते में। कन्धें से लटकता हुआ भूदानी झोला। हाथ में चमड़े की अटैची। ड्राइवर ने उसे देखा और देखता ही रह गया। फिर कुछ सोचकर बोला, ‘‘बैठ जाइए शिरिमानजी, अभी चलते हैं।’’
घरघराकर ट्रक चला। शहर की टेढ़ी-मेढ़ी लपेट से फुरसत पाकर कुछ दूर आगे साफ़ और वीरान सड़क आ गई। यहाँ ड्राइवर ने पहली बार टॉप गियर का प्रयोग किया पर वह फिसल-फिसल कर न्यूटल में गिरने लगा। हर सौ गज़ के बाद गियर फिसल जाता और एक्सिलेटर दबे होने से ट्रक की घरघराहट बढ़ जाती, रफ्तार धीमी हो जाती रंगनाथ ने कहा, ‘‘ड्राइवर साहब, तुम्हारा गियर तो बिलकुल अपने देश की हुकूमत जैसा है।’’
ड्राइवर ने मुस्करा कर वह प्रशंसा-पत्र ग्रहण किया। रंगनाथ ने अपनी बात साफ़ करने की कोशिश की। कहा, ‘‘उसे चाहे जितनी बार टॉप गियर में डालो, दो गज़ चलते ही फिसल जाती है और लौटकर अपने खाँचे में आ जाती है।’’
ड्राइवर हँसा। बोला, ‘‘ऊँची बात कह दी शिरिमानजी ने।’’
इस बार उसने गियर को टॉप में डालकर अपनी टाँग लगभग नब्बे अंश के कोण पर उठायी और गियर को जाँघ के नीचे दबा लिया। रंगनाथ ने कहना चाहा कि हुकूमत को चलाने का भी यही नुस्खा है, पर यह सोचकर कि बात ज़रा और ऊँची हो जाएगी, वह चुप बैठा रहा।
उधर ड्राइवर ने अपनी जाँघ गियर से हटाकर यथास्थान वापस पहुँचा दी थी। गियर पर उसने एक लम्बी लकड़ी लगा दी और उसका एक सिरा पेनल के नीचे ठोंक दिया। ट्रक ते़ज़ी से चलता रहा। उसे देखते ही साइकिल-सावर, पैदल, इक्के-सभी सवारियाँ कई फर्लांग पहले ही से खौफ के मारे सड़क से उतरकर नीचे चली जातीं। जिस तेज़ी से वे भाग रही थीं, उससे लगता था कि उनकी निगाह में वह ट्रक नहीं है; वह आग की लहर है, बंगाल की खाड़ी से उठा हुआ तूफान है, जनता पर छोड़ा हुआ कोई बदकलाम अहलकार है, पिंडारियों का गिरोह है। रंगनाथ ने सोचा, उसे पहले ही ऐलान करा देना था कि अपने-अपने जानवर और बच्चे घरों में बन्द कर लो, शहर से अभी-अभी एक ट्रक छूटा है।
तब तक ड्राइव ने पूछा, ‘‘कहिए शिरिमानजी ! क्या हालचाल हैं ? बहुत दिन बाद देहात की ओर जा रहे हैं !’’
रंगनाथ ने शिष्टाचार की इस कोशिश को मुस्कराकर बढ़ावा दिया। ड्राइवर ने कहा, ‘‘शिरिमानजी, आजकल क्या कर रहे हैं ?’’
‘‘घास खोद रहा हूँ।’’
ड्राइवर हँसा। दुर्घटनावश एक दस साल का नंग-धड़ंग लड़का ट्रक से बिलकुल ही बच गया। बचकर वह एक पुलिया के सहारे छिपकली-सा गिर पड़ा। ड्राइवर इससे प्रभावित नहीं हुआ। एक्सिलेटर दबाकर हँसते-हँसते बोला, ‘‘क्या बात कही है ! ज़रा खुलासा समझाइए।’’
‘‘कहा तो, घास खोद रहा हूँ। इसी को अंग्रेजी में रिसर्च कहते हैं। परसाल एम.ए. किया था। इस साल से रिसर्च शुरू की है।’’ ड्राइवर जैसे अलिफ-लैला की कहानियाँ सुन रहा हो, मुस्कराता हुआ बोला, ‘‘और शिरिमानजी, शिवपालगंज क्या करने जा रहा हैं ?’’
‘‘वहाँ मेरे मामा रहते हैं। बीमार पड़ गया था। कुछ दिन देहात में जाकर तन्दुरस्ती बनाऊँगा।’’
इस बार ड्राइवर काफ़ी देर तक हँसता रहा। बोला, ‘‘क्या बात बनायी है शिरिमानजी ने !’’
रंगनाथ ने उसकी ओर सन्देह से देखते हुए पूछा, ‘‘जी ! इसमें बात बनाने की क्या बात ?’’
वह इस मासूमियत पर लोट-पोट हो गया। पहले ही की तरह हँसते हुए बोला, ‘‘क्या कहने हैं ! अच्छा जी, छोड़िए बात को।
बताइए, मित्तल साहब के क्या हाल हैं ? क्या हुआ उस हवालाती के खूनवाले मामले का ?’’
रंगनाथ का खून सूख गया। भर्राए गले से बोला, ‘‘अजी, मैं क्या जानूँ वह मित्तल कौन है।’’
ड्राइवर की हँसी में ब्रेक लग गया। ट्रक की रफ्तार भी कुछ कम पड़ गई। उसने रंगनाथ को एक बार गौर से देखकर पूछा, ‘‘आप मित्तल साहब को नहीं जानते ?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘जैन साहब को ?’’
‘‘नहीं।’’
ड्राइवर ने खिड़की के बाहर थूक दिया और साफ़ आवाज़ में सवाल किया, ‘‘आप सी.आई.डी. में काम नहीं करते ?’’
रंगनाथ ने झुँझलाकर कहा, ‘‘सी.आई.डी. ? यह किस चिड़िया का नाम है ?’
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