नारी विमर्श >> चश्में बदल जाते हैं चश्में बदल जाते हैंआशापूर्णा देवी
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बाप बेटा को समझाना चाहता है कि युग बदल गया है-तुम्हारा चश्मा बदलना जरूरी है। वृद्ध पिता के चेहरे पर हँसी बिखर जाती है।
फिर घूम-फिरकर बात अखबार की उठ जाती है क्योंकि नरोत्तम मित्र को 'अखबार का
कीड़ा' कहते हैं। जैसे कि हँस-हँसकर कहेंगे-'क्यों रे 'दैनिक संवादपत्र और
समाज चित्र' के नाम से कोई थीसिस वगैरह तो नहीं लिख रहा है? वैसे तू लिख ही
सकता है। पेट में विद्या है, साधन भी है-मेरे जैसा लड्डूमार्का तो है नहीं।'
हँसकर सोमप्रकाश भी कहते-'तू क्या सोचता है लिखा नहीं जा सकता है? मान ले 'दो
दशकों का अन्तर' के नाम से शुरु किया जाए। अच्छा, तू ही बता, पहले कभी
अखबारों में इतना रसोई का, घर के तौर-तरीक़े का ब्यौरा पढ़ा था? अब तो
साज-श्रृंगार, फैशन को लेकर अखबारों में कम्पिटीशन हो रहा है।...किस तरह से
लड़कियाँ 'उत्तमानिरुपमा चारुपमा अनुपमा' बन सकती है उसी के सात सौ
फॉर्मूले-देखा है?'
'क्या जानूँ-याद नहीं आ रहा है। शायद नहीं देखा है। कम-से-कम इतने तो नहीं
ही।'
'वही तो-मैं देखता हूँ। और देखते-देखते अनुभव करता हूँ कि इस युग में यही
एडवर्टीजमेन्ट्स ही हैं समाज के इतिहास के धारक तथा वाहक। यहाँ तक कि तू अगर
'कर्म खाली' के विज्ञापनों को देखे...'
'सोमा रे। लगता है तेरा दिमाग बिल्कुल ही बिगड़ चुका है। 'कर्म खाली' में भी
तू आइने में छाया देखता है?'
'क्यों नहीं?' सोमप्रकाश जोर डालते हुए कहते हैं-'पहले 'गृहशिक्षक चाहिए' यह
विज्ञापन देखने को मिलता था और अब? गृहकार्य हेतु अथवा रसोई बर्तन माँजने,
पोंछाझाड़ करने, बच्चा सँभालने के लिए विज्ञापन निकाला जाता है, मोटी मोटी
तनख्वाह के साथ। देश-विदेश से उम्मीदवार आते। सभी चाहते हैं निर्झंझट कर्मठ
बंगाली लड़की। तब फिर? मोटी रक़म खर्च करके विज्ञापन निकलवाते हैं।'
नरोत्तम सरकार बोल उठे-'न दें तो क्या करें भाई? 'काम करने वालियाँ' तो अब
गूलर के फूल हो गई हैं।...इधर सुनने में आता है, देश में इतने बेकार
बेरोज़गार हैं, देश के लोग दारिद्र की सीमा से नीचे उतर चुके हैं जबकि...मेरी
लड़कियाँ तो गुस्से के मारे किसी को रखती ही नहीं हैं। खुद ही सब कर लेती हैं।
पर तुम तो भाग्यवान हो भइया। तेरे यहाँ तो वही पुराना महाराज और पुराना अवनी
आज ही डटे हुए हैं।'
सोमप्रकाश हँसे-'नज़र मत लगा भाई-हैं सिर्फ मेरी गृहणी के गुणों के कारण।
अर्थात उनके घूस देने और खातिरदारी के कारण। लड़के-बहूएँ तो बेहद खफा हैं,
कहते हैं 'प्रश्रय दे रही हो।' तनख्वाह देते हैं, हुक्म के जोर पर हम काम
करवाएँगे।'
रसिक नरोत्तम बोले-'अभी तो महाशय लोग बाप के होटल में रह रहे हैं इसीलिए क्या
जानें कि कितने धानों से कितने चावल निकलते हैं।'
'इस तरह की फालतू बातें करके यह आदमी सोमप्रकाश की पूरी शाम खराब कर जाता
है', कहकर घरवाले मृदु गुन्जन करते हैं। पर यह गुन्जन हर समय मृदु नहीं रहते
हैं। सुकुमारी उसे गर्जन का रूप दे देती हैं। तब सोमप्रकाश प्रश्न पूछते
हैं-'कौन किस तरह के उच्चमान की बातें करता है और सोमप्रकाश के 'समय' को
सार्थक करने आता है?'
हाँ। अभी भी एक जगह हैं जहाँ मनोभाव स्पष्ट रूप से व्यक्त कर सकते हैं। घर के
अन्य सदस्यों से तो नाप-तोल कर बातें करनी पड़ती हैं। उस पर मिलता ही कौन है
कितनी देर के लिए? कौन सोमप्रकाश की तरह बेकार है?
अब ये ही सुबह का समय?
अखबार तो निःसंगता का संगी है। जब तक पढ़ते हैं तब तक ही क्या एक छोटे से
इन्सान के क्षणिक आविर्भाव की प्रतीक्षा नहीं करते हैं? जो आविर्भाव खुशियों
का प्रकाश बिखेर देता है? क्षणिक ही।...वही छोटा-सा इन्सान तो भलीभाँति जानता
है कि कोने वाले कमरे में उसका घुसना प्राय: निषिद्ध है। फिर भी चोरी छिपे
भाग आता है।
आज भी वैसे ही आया।
अखबार तह करते-करते पर्दे के नीचे की तरफ नज़र चली गई। पर्दे के नीचे
छोटे-छोटे जैसे मक्खन से बने दो पैर।
सोमप्रकाश अभ्यर्थना सूचक क्षीण सी एक ध्वनि निकालते हैं और सुनते ही पर्दा
हट जाता है। वहाँ मक्खन से निर्मित इन्सान पूरा का पूरा नज़र आया।
मुँह बन्द रखने का इशारा करता है होठों पर एक अँगुली रखकर। सोमप्रकाश हालाँकि
इशारा समझने में माहिर हो चुके हैं।...उस इशारे का मतलब क्या है? 'माँमोनी'
कहा हैं?
इशारे से ही उत्तर मिला-'बाथरूम में।' नहाने गई हैं वह।
सोमप्रकाश एक अँगुली हिलाते हैं। छोटा इन्सान खामोश कदमों से कमरे में प्रवेश
कर, बिना कुछ बोले, सीधे सोमप्रकाश के बिस्तर के पास पहुँच जाता है। एड़ी ऊँची
कर हाथ बढ़ाकर सिरहाने की एक तकिया का कोना पकड़कर पास खींच लेता है और उसके
गिलाफ के भीतर हाथ डाल देता है। डालते ही चेहरा खिल उठता है जैसे हज़ारों
बल्ब जल उठे हों।
हाथ खींचकर एक मुट्ठी टॉफी निकाल लाता है। जल्दी से उसमें से एक का कवर खोलकर
मुँह में भर लेता है, कागज़ का टुकड़ा गद्दे के नीचे दबा देता है। फिर एक और
टॉफी चुनकर उसे कागज़ समेत सोमप्रकाश के हाथ में देकर तृप्तभाव से हँसता है।
घटना द्रुतगति से बँधे-बँधाये ढंग से घटित हो जाता है। इसके बाद दोनों पक्षों
में जो भी बातचीत होती है, वह होती है इशारे से।
'आज स्कूल नहीं है?'
'नहीं। आज ऑफ!'
'तो अब क्या करोगे?'
'और क्या? सुलेख करने बैठूँगा, पढ़ाई करूँगा।'
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