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चश्में बदल जाते हैं

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6385
आईएसबीएन :0000000000

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बाप बेटा को समझाना चाहता है कि युग बदल गया है-तुम्हारा चश्मा बदलना जरूरी है। वृद्ध पिता के चेहरे पर हँसी बिखर जाती है।


हमेशा ही सुकुमारी के उत्तेजना के क्षण में कही बात को सोमप्रकाश, 'अमृतं बालभाषितं' मानते आए हैं। उसी सोच के साथ बोले-'यह सुशिक्षा वे देने बैठेंगे अपनी बेटी को? उन्हें क्या अपने प्राणों का भय नहीं है?'
'प्राणों का भय? मतलब?'
'यह तो एक तरह से यही है न। ऐसी बात कहने से लड़की में चेतना जागेगी ऐसा विश्वास है तुम्हें? लड़की अगर कह बैठे 'ओ:, हाथ घुमाकर नाक पकड़वाया जा रहा है? सीधे-सीधे कह दिया होता तुमलोगों से अब रोज़-रोज़ इस जिम्मेदारी का बोझ नहीं उठाया जा रहा है।...इसके मतलब लड़की दामाद से ज़िन्दगी भर के लिए कट-ऑफ हो जाना। लड़की अपने लड़के के लिए 'क्रेश' की व्यवस्था करेगी। इस युग की लड़कियों में आत्ममर्यादाबोध कितना अधिक है, इस बात का ज्ञान है क्या तुम्हें?'
सुकुमारी भोंदुओ जैसे भाव से बोलीं-'अपनी माँ के साथ भी ऐसा करेंगी?' 'करेंगी नहीं? 'मैं ही सच हूँ' यह ही एकमात्र बात है।...लेकिन हर समय पराए घर की लड़की का दोष ही क्यों देखती हो? अपना लड़का भी तो इस व्यवस्था का सहकारी है।'
क्षोभभरी आवाज में सुकुमारी बोलीं-'यह बात क्या मैं नहीं सोचती हूँ? यही तो हुआ है आजकल-'तस्मिन तुष्टे जगत तुष्ट'। समाज संसार, सभ्यता, संस्कृति, कर्त्तव्य, चक्षुलज्जा जैसी बातें इनके लिए फालतू बातें हो गई हैं। बीवी खुश तो सब कुछ ठीक।...बिना रीढ़ की हड्डी वाले मर्द का जो हाल है।...तुम्हारे लड़के कैसे ऐसे हुए...'
सोमप्रकाश ज़रा हँसे। बोले-'अकेले मेरे नहीं, तुम्हारे भी हैं। असल में इस
जमाने में कोई भी अब 'इस वंश का बेटा' या 'फलाँ माँ-बाप का बेटा' नहीं है। ये सब है 'इस काल के लड़के'। फिर हँसे-'पर हर समय बिना रीढ़ वाले नहीं हैं। गुरुजनों को 'समझा' देते वक्त काफी जोरदार और फुर्तीले होते हैं। खैर छोड़ो...क्या आलतू-फालतू बातों में समय नष्ट किया। ज़रा सो लिया होता? फिर तो काम का चक्का घूमने लग जाएगा...रात के दस-ग्यारह बजे तक घूमेगा।...टी.वी. के प्रोग्राम के निर्देश पर तो डिनर-खाने बैठेंगे।'
सुकुमारी भी इसी बात पर कुछ कहने जा रही थीं कि सीढ़ी के दरवाजे वाली घंटी बज उठी। हाय हाय। बहू आ गई क्या? जल्दी से उठ बैठी सुकुमारी। व्यस्तभाव से दरवाज़ा खोलने गईं। और खोलते ही हँस उठीं। हँसते हुए बोलीं-'ओं माँ! मेरे अहो भाग्य! तू! मामला क्या है? आज किसका मुँह देखकर जागी थी मैं।...अरे सुनते हो...देखो तो कौन आया है?'
हालाँकि 'सुनते हो' देखने के लिए उठकर नहीं आए। अभ्यागत ही हड़बड़ाकर उनके कमरे में चला आया। और सोमप्रकाश भी बोल उठे-'आई सी! फक्कड़ बहादुर! इसीलिए सोच रहा था ऐसा किसका आविर्भाव हुआ कि सुकुमारी देवी इतनी उल्लास प्रकट कर रही हैं। तो...क्या खबर है? घर के सब लोग ठीक-ठाक तो हैं?'
'घर में? सब! सब! तुम्हारे लड़की दामाद, उनकी कन्याएँ एवं इत्यादि प्रभृति...केवल यही अभागा ठीक नहीं है।'
'क्यों? तुझे अलग से क्या हुआ? अभी तो परीक्षा का रिजल्ट भी नहीं निकला है।'
'गोली मारो परीक्षा के रिजल्ट को। कहीं कोई पेपर के खो जाने से रिजल्ट निकलना अभी गहरे पानी में है। वह बात छोड़ो-मेरी प्राब्लम अलग है।'
सुकुमारी हँसते हुए बोलीं-'क्यों, अभी से तेरी अलग कैसी प्राब्लम है? किसी के साथ दोस्ती-वोस्ती तो नहीं कर बैठा है?'
'छोड़ो यह सब सड़ी बातें। तुम तो बस यही जानती हो। 'मामदू' के साथ मुझे एक 'बिजनेस टॉक' करनी है।'
'मामदू' है 'मामा के यहाँ के नाना' का सक्षिप्तसार।
सोमप्रकाश की लड़की का यह बेटा, जब से बोलने लगा है तभी से अपने दादाजी को 'दादू' बुलाता आ रहा है और सोमप्रकाश को कहता था 'मामा के यहाँ के दादू' जिसका अपभ्रंश 'मामदू'।
और उसी बाल्यकाल से 'मामदू' के साथ 'बिजनेस टॉक'। बाप है जबरदस्त कंजूस। उनकी मानसिकता है पैसा इकट्ठा करना। और आजकल एक और शौक़ चर्राया है-अपने बाप-दादाओं की तरह 'सम्पत्ति' बनाना। सोनारपुर में उन लोगों का बाग-तालाब समेत विराट मकान के रहते, उसने फिर जमीन, मछली पालन हेतु तालाब और न जाने क्या-क्या खरीदना शुरु किया है। सोमप्रकाश की बेटी भी उसी रंग में रंग गई है वरना इस ज़माने में पहला बेटा होने के बाद भी तीन-तीन बेटियाँ।
खैर जाने दो इसे, नाती उदयभानु अपने शौक़ और समस्त इच्छाएँ पूरी होने का भरोसा रखता था-यहाँ से। जैसे उस बार दोस्तों के साथ पुरी घूम आया, उससे भी पहले दीघा गया था। आते ही बोला था-'मामदू तुम्हारे साथ कुछ बिजनेस टॉक है।'
सोमप्रकाश ज़रा अस्वस्ति का अनुभव करने लगे। बात लड़कों के कानों तक पहुँचेगी तो वे मन्तव्य करेंगे। करते भी हैं। कहते हैं-'इसी को कहते हैं ननिहाल का लाड़। उधर बाप के पैसों में कीड़े लग रहे हैं। फफूंदी पड़ रही है।' पर इस समय उनकी बातों का कोई साक्षी नहीं रहेगा। इसीलिए बोले- 'क्या? फिर दोस्तों के साथ कहीं घूमने जाना है क्या?'
उदयभानु अँगड़ाई लेते हुए बोला-'नः। इस बार किसी के साथ नहीं-अकेले। और घूमने भी नहीं-माथा ठोंकने।'
सुकुमारी पूछ बैठीं-'माथा ठोंकने के क्या मतलब हुए?'
'वह तुम नहीं समझोगी। मामदू ठीक समझ जाएँगे। इसका मतलब है भाग्य आजमाने। एक हेवी-चान्स मिल रहा है, समझे मामदू। एक बार बम्बई पहुँच भर जाऊँ...मात्र हजार दस रुपया हो तो...'
चौंक उठे सोमप्रकाश-'हजार दस?'
'अरे! आश्चर्य है। यह इतना क्या ज्यादा है? क्या तुम जानते हो बम्बई जाना कितनी खर्चीला है? जाकर कम-से-कम पाँच-सात दिन हो अपने खर्चे पर रहना होगा। इसके बाद लग गया तो फिर कोई खर्च नहीं। तो इन पाँच-सात दिनों के लिए, दस हजार तो कुछ भी नहीं है मामदू। सच कहूँ तो भिखारियों की तरह रहना पड़ेगा।'
धीरे से सोमप्रकाश बोले-'अभी भी हायर सेकेन्डरी तो पास नहीं किया है...कौन-सी नौकरी की उम्मीद से जाना चाह रहा है? सिनेमा में काम करना चाहता है क्या?'
'ठीक समझा है। अक्ल है न इसीलिए। पर मुझे 'काम करना' शब्द से आपत्ति है। कहो फिल्मों में 'उदय' होना चाहते हो। नए आकाश पर नए तारे के रूप में उदय होने जा रहा हूँ। पाने की पूरी आशा है। 'उदयभानु' नाम बदलकर 'कुमारभानु' रखूँगा।'
'पढ़ना-लिखना त्याग कर तू सिनेमा में काम करने जायेगा ताक्डुमाडुम?' सुकुमार बिगड़कर बोलीं। अपने इस नाती को बचपन से वह इसी ताक्डुमाडुम के नाम से पुकारती हैं अभिनव भले ही हो, चालू हो गया है।
ताक्डुमाडुम अपने स्टाइल से कंधे नचाते हुए बोला-'देखो दिद्मा, अपने आपको स्टडी करके मैंने समझ लिया है कि पढ़ना-लिखना मेरे वश का नहीं है। तब फिर बेकार में इसके लिए व्यर्थ ही जीवन के कुछ अमूल्य वर्षों को नष्ट करने से फायदा?...जिसे जीवन का लक्ष्य मान लिया है उसी रास्ते पर बढ़ना ठीक है न?' 
'हाय रें मेरा भाग्य! सिनेमा करना ही तेरे जीवन का लक्ष्य है? वह भी हिन्दी सिनेमा?'
'गंवारों जैसी बातें मत करो दिली! पर मैं पूछता हूँ इसमें अवाक होने जैसी कौन सी बात है? लक्ष्य सिनेमा करना नहीं, सिनेमा में हीरो बनना है। स्टार बनना है। यह क्या ऐसी वैसी बात है? बंगाली लड़के तो हर मामले में पिछड़े हुए हैं। एक आध लोग ही ज़रा बहुत बढ़ सके है। ये जो बंगालियों का लड़का 'मिठुन' है? आज उसे लोग जानते हैं, पहचानते हैं, उसे सम्मान श्रद्धा और पैसा मिला है कभी इस बात को सोचकर देखा है क्या? करोड़-करोड़पति है। मन्त्री तक उसके दरवाजे पर डटे रहते हैं। खबर रखती हो कुछ? बम्बई न गया होता तो देख पाता यह दिन?'
फिर ज़रा ठहर कर बोला-'और सिनेमा देखने के लिए तो सब पागल हैं बाबा। और जो लोग इस आर्ट को बढ़ावा दे रहे हैं उन्हीं आर्टिस्टों को न जाने क्यों तुम लोग अछूत समझती हो...मेरे फादर ने तो सुनते ही इस इकलौते बेटे को त्याग देने की घोषणा कर दी है। दीजिए, दीजिए, इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। मैं पूछता हूँ दिद्माँ, तुम्हारे इस विशुद्ध वंश में, सिर्फ कलम घिसकर कितने लड़के कलकत्ता शहर का शेरिफ बन सके हैं? समझोगी नहीं...वह सब तुम न समझोगी। इस बूढ़े भले आदमी को समझाया जा सकता है इसीलिए इनके पास अर्जी पेश की है। ओ मामदू, झटपट रुपया छोड़ो...ज्यादा वक्त नहीं है।'
'क्यों रे ताक्डुमाडुम, दस हजार रुपए इस कुरते की जेब में भरकर लेटा हूँ-यह सोच रहा है तू?'

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