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चश्में बदल जाते हैं

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6385
आईएसबीएन :0000000000

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बाप बेटा को समझाना चाहता है कि युग बदल गया है-तुम्हारा चश्मा बदलना जरूरी है। वृद्ध पिता के चेहरे पर हँसी बिखर जाती है।


'अरे मैं क्या ऐसा कह रहा हूँ? पर अर्रेन्सी समझाने के लिए ही जल्दी मचा रहा हूँ। हाँ मैं प्रॉमिस करता हूँ कि अगर भविष्य में तुम माँगोगे तो दस गुना लौटा दूँगा तुमको।'

इस लड़के के बेमतलब के जिद्द ने सोमप्रकाश को दिन में तारे दिखा दिए। फिर भी स्नेहांध मन। उसकी कान्तिवान सुन्दर आकृति और वाक्यपटुता के मधुर आकर्षण ने उन्हें बन्दी बना रखा है।...और क्या है कोई जो सोमप्रकाश के पास आकर इस तरह से मन को मसा बनाने वाली बातें करता है और ऐसी जिद्द करता है? सभी के साथ तो दूरी बनी हुई है...अपने बेटे तो सबसे ज्यादा दूर चले गये हैं। जीवन से 'सरसता' शब्द ही समाप्त हो गया है। जबकि सोमप्रकाश की प्रकृति में ऐसा था।
हँसकर बोले-'वापस चाहिए ऐसा कौन कह रहा है? लेकिन मैं सोच रहा हूँ कि तू अगर वहाँ से रिजेक्टेड माल होकर लौटा तो तेरा भविष्य क्या होगा?'
'आहा। ऐसे कैसे रिजेक्ट हो जाऊँगा? कहा न हेवी चान्सेज हैं? और फिर चेहरा 'मारकटारी' है यह तो मानते हो न? यही उनकी प्रमुख माँग है। एक धनी घर का रूपवान इकलौता लड़का...' सुकुमारी पूछ बैठीं-'तू तो कह रहा है हिन्दी में फिल्म बनेगी। तुझे हिन्दी आती है?'
'ये तो नहीं कहूँगा कि बहुत अच्छी आती है। यही हिन्दी फिल्में देख-देखकर जो ज्ञान अर्जित किया है।'
'तो फिर? उसी ज्ञान के भरोसे तू हीरो बनना चाहता है?'
'ओ हो हो दिद्मा। नो प्राबल्म। हीरो है गूँगा और बहरा।'
'ऐं?'
'चौंक क्यों रही हो?'
'गूँगा बहरा का पार्ट करेगा हीरो बनने के लिए? ए माँ! इससे अभिनय की कौन सी बहादुरी दिखा सकेगा?'
उदयभानु अब 'उदित भानु' बनकर बोल उठा-'दिखा सकूँगा, जरूर दिखा सकूँगा। बड़ा जबरदस्त रोल है। निर्वाक युग की यादें जगा देगा, ऐसा सुना है। केवल 'अभिव्यक्ति'। ओफ। कहा न जबरदस्त है। मामदू तब फिर बात पक्की? न? कब आऊँ? बताओ। कल? परसों? तरसों?...ओफ...मुझे इतनी खुशी हो रही है कि...'
सोमप्रकाश उस खुशी से चमचमा रहे चेहरे की तरफ देखते हुए हिसाब लगा रहे थे कि किस तरह, किस मद से यह रुपया निकालेंगे और इतना सारा रुपया देंगे। 'नहीं दे सकूँगा' यह बात कही नहीं जा सकती है। 'मैं तेरे जीवन के 'परम लक्ष्य' के प्रति श्रद्धाशील नहीं हूँ अतएव नहीं दूँगा', यह बात ही कैसे कहें? इस युग में जबकि समाज की यही पृष्ठभूमि है। देख तो रहे हैं चित्र तारकाओं का राजकीय सम्मान, उन्हीं का बोलबाला है। महान महान नेतागण आकर उनके दरवाजों पर खड़े रहते हैं। इसके मतलब चश्मा तो बदलना ही पड़ेगा।
इस घर का वह छोटा इन्सान भी ताक्डुमाडुम भाई की तरह बुलाता है-'मामदू। छोटे तो अनुकरणीय होते ही हैं। उसकी भी इच्छा होती है भाई की तरह हाथ-मुँह हिलाते हुए शरीर को मोड़ते हुए बातें करे। लेकिन उसकी ये इच्छा पूरी नहीं होती है। 'मालिक की इच्छा ही कर्म है' कि हिसाब से इस कमरे में उसकी भूमिका मुँह में चाभी बन्द खिलौने जैसी है। ज़रा सा मौक़ा मिला नहीं कि चोरों की तरह कमरे में चले आना, इशारे से बातें करना।
अचानक ही आज एक दैवी घटना घट गई।
सुबह सोमप्रकाश जब अखबार की वही घिसी-पिटी खबरों से ऊबकर अखबार जल्दी से पढ़ने के बाद तह कर रहे थे, अचानक तूफान की तरह वही छोटा इन्सान आकर उनसे चिपट गया-'मामदू मामदू! आज बहुत मजा है। बहुत मजा।'
'क्यों रें, क्या हुआ? बाबू सोना, चाँद का टुकड़ा...'
'बहुत मज़ा। जानते हो न आज इतवार है। थोड़ी देर पहले न माँमोनी अपने सुन्दर-सुन्दर बालों को छोटे-छोटे करके कटवाने के लिए ब्यूटी सैलून या न जानें कहीं गई है। कह रही थी कि लौटने में खूब देर होगी और मैं न बैठे-बैठे जितना जी चाहे तस्वीरें बनाऊँ। और बापी से कह गई कि मुझे कमरे में रोक रखे। सो तभी न...ही-ही-ही...बापी के दफ्तर के एक दोस्त न, आ धमके। बस! बापी जल्दी से नीचे ड्राइंगरूम में चले गये। अवनीदा से चाय बनाने कहा ये लाओ, वो लाओ भी कहा। और पता है मेरी तरफ तो मुड़कर भी नहीं देखा।...मुझे ड्राइंग करने में मजा नहीं आ रहा था, मैं तुम्हारे पास भाग आया हूँ। ही-ही...कैसा माँमोनी को बुद्ध बनाया है। लाओ, सारी टॉफी दो। मैं दिखा-दिखाकर खाऊँगा।' कहकर यथास्थान से टाँफियाँ निकालकर उनके कागज उतारने लगा।

सोमप्रकाश उस अलौकिक प्रकाश से दमकते चेहरे को निहारने लगे। उन्होंने एक साँस छोड़ते हुए सोचा-'माँ होकर जानबूझकर इस प्रकाश को बुझाए रहती है।'
काफी देर तक उसे अपनी इच्छा का काम करने दिया फिर पूछा-'और तुम्हारी अम्मा कहाँ है?'
'अम्मा?' फूल जैसे दोनों हाथ हिलाकर बोला-'और कहीं उसी सड़ी रसोई में। आज इतवार है न, जितना हो सकेगा खाना बनाएगी। जाने दो...तुम्हारे साथ गप..'
'कौन सी गप करोगे?'
'कोई भी-जो मर्जी। जानते हो मामदू...' फिर अचानक हमेशा की आदत के अनुसार होठों पर अँगुली रखकर फुसफुसाकर बोला-'हमलोग इस घर से चले जायेंगे।...'
सोमप्रकाश सिहर उठे-'क्या कहा? ऐं?'
'यही तो कहा। हमलोग इस घर से चले जायेंगे। मैं, बापी और माँमोनी।' असतर्क होते ही गले ही आवाज स्पष्ट हो गई-'और किसी को साथ नहीं ले जायेंगे।'

बड़ी मुश्किल से सोमप्रकाश ने जानना चाहा-'कहाँ जाओगे?'
'वाह! हमारा एक बहुत सुन्दर फ्लैट खरीदा नहीं गया है क्या?...वह न इतना सुन्दर है...तुम सोच ही नहीं सकते हो। चारों तरफ खुली हवा और न जाने क्या क्या। ऐसा सड़ा मोहल्ला नहीं है।'
सोमप्रकाश की समझ में आया कि उसकी आज की 'गप' यही है। यही खबर सुनाने के लिए वह छटपटा रहा था। आज ऐसा जबरदस्त मौक़ा पाते ही...उसके ढेर सारे नामों में से दुलार का एक नाम है 'किंग'। स्कूली नाम का अर्द्धांश। माँ-बाप सदैव इसी नाम से पुकारते हैं।
इस समय कोई नहीं तीक्ष्ण तीव्र स्वरों में नहीं बुला रहा है-'किंग। काम करते-करते तुम बातें करने चले गये हो? चले आओ-जल्दी।'
कमरे का पर्दा लटक नहीं था, हटा हुआ था। किंग ने उस निश्चिन्तता की ओर देखा फिर खाट पर चढ़ बैठा और घुटने मोड़कर आसन बनाकर बैठते हुए बोला-'अच्छा मामदू खुली हवा खूब अच्छी चीज होती है-है न?'
'हूँ।' 
'इसीलिए तो हर दिन रात को माँमोनी बापी के साथ झगड़ा करती थी। कहती थी, मुझसे अब यह घुटन बरदाश्त नहीं हो रहा है। मुझे खुली हवा चाहिए। हीं-ही...सोचती थी मैं सो रहा हूँ। मैं सोता ही नहीं था लेकिन ऐसे लेटा रहता था जैसे सो रहा हूँ। अँगुली तक नहीं हिलाता था।...और बापी कहते थे-'कैसे करूँ तुम्हीं बताओ न?' और तब न माँमोनी अँग्रेजी में ऐसी गाली देती थी...बाप रे। मैं अंग्रेजी तो समझता नहीं हूँ...फिर भी न, यह समझ जाता था कि डाँट रही है। खू...ब डाँटती थी।'
सोमप्रकाश आहिस्ता से बोले-'तुमलोग चले जाओगे तो हमलोग कैसे रह सकेंगे?'
किंग समझदारों की तरह सिर हिलाकर बोला-'यही तो। मुझे भी तो इसी बात की चिन्ता है। पर माँमोनी बापी की बात सुने तब न? कहती है, क्यों जेठू हैं, जेठूमाँ हैं...'अच्छा मामदू 'फाँसी का फन्दा' माने क्या है?'
'पता नहीं बेटा।'
'ए माँ। तुम नहीं जानते हो? माँमोनी तो हरदम ही कहती है हम क्यों फाँसी का फन्दा पहनें? ये तो बंगला में है फिर भी तुम इसका माने नहीं जानते हो?'
किंग हताशभाव से बोला-'जाने दो, बड़ा हो जाऊँगा तो जान जाऊँगा सुनो मामदू, तुम न किसी से कह न बैठना कि मैंने तुमको यह सब बताया है। माँमोनी को पता चल गया तो माँमोनी मुझे 'खतम' कर डालेगी। और बापी भी, आँखें गोल-गोल करके ठाँय-ठाँय जमा देंगे।'
सोमप्रकाश ने आहिस्ता से पूछा-'तुमने वह मकान देखा है?'
'मैं? मैं कैसे देखूँगा? मुझे क्या कभी ले गये हैं? एक दिन बापी ने कहा था, किंग भी चले न। तो माँमोनी ने जानते हो क्या कहा?
'न:। इसे ले गये तो सारा राजू खुल जायेगा।' अच्छा मामदू राज़ खुल जाने के माने क्या हैं?'
'क्या मालूम बेटा। '
'धत्! तुम इतने बड़े एक बुड्ढे हो...तुम भी मेरी तरह कुछ नहीं जानते हो।...माँमोनी तो कितनी बातें जानती है।'
सोमप्रकाश क्या उसकी बातें सुन रहे थे? या कि एक प्रकाशबिन्दु से छिटक रहे रंगमशाल को निहार रहे थे? बच्चा अगर अपने रौं में बोल पाता है तो उसकी आँखें उसका चेहरा बोलता है। एक एक लकीरों से रौशनी छिटकती है।
उसी रौशनी को निहारते-निहारते लगा कि यहाँ, इस परिवेश में शायद अब कभी यह प्रकाश नहीं जलेगा। पड़ा रह जाएगा रंगमशाल की जली लकड़ी हू...स्मृति...स्मृति के सहारे गुजार देंगे इस घर के लोग, यहाँ के दरवाजे, खिड़कियाँ, दीवारें। इस घर के लोग भी खिड़की दरवाजों की तरह मूक दर्शकमात्र रह जायेंगे। न जाने कब तक शिथिल हुए बैठे थे सोमप्रकाश? देखते हुए? लड़का सहसा बोल उठा-'मामदू तुम्हारी आँखों में क्या बालू गिर गया है?'
'कहाँ? नहीं तो।'
'तब फिर तुम्हारे चश्मे के नीचे से आँसू क्यों बह रहे हैं?'
सोमप्रकाश मुस्कुराकर बोले-'चश्मा खराब हो गया है।'
उसने ज़रा ध्यान से देखने के बाद कहा-'तब तुम दूसरा चश्मा क्यों नहीं खरीदते हो? माँमोनी का चश्मा खराब हो गया था, डाक्टर के यहाँ से कितना सुन्दर चश्मा ले आई है। ओ, तुम तो डाक्टर के यहाँ नहीं जा सकोगे न? चल नहीं सकते हो। आहा बेचारे। तो मामदू डाक्टर बाबू को ही आने.. अरे बाप रे, बापी ऊपर आ गये हैं। जाता हूँ...' कहकर भागकर चला गया।

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