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नारी विमर्श >> मंजरी

मंजरी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6387
आईएसबीएन :0000000000

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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....


''मां आपने बुलाया?''
दूसरे ही क्षण धूर्त सियार के मुख से आदेश वाणी निकली, ''हां, एक गिलास पानी तो लाना।''
एक जोड़ी धुंधली गंवार आंखों से चिंगारी निकलकर बुझ गयी। चुपचाप आदेश पालन करने के लिए मुड़ा ही था कि मंजरी बोली, ''पानी नहीं। सुनो, ठहरो।'' मंजरी का स्वर दृढ़ था, ''सुनो, बाबू जा रहे हैं, इन्हें मोटर तक पहुंचा दो।''
सुधीर का चेहरा देखकर लगा उसने ईश्वर की दैवीवाणी सुनी है।
''चलिए बाबू।''
मेज पर से सिगरेट का टिन उठाते हुए निशीथ राय खड़ा हो गया।
उसकी आंखों में भी हिंसक पशुओं जैसी आक्रमक दृष्टि।
लेकिन आवाज बिल्कुल शांत और होंठों पर करुण विषाद भरी छाया।
''दो मिनट के लिए तुम जरा बाहर जाओ सुधीर, तुम्हारी मां से मुझे कुछ कहना है।''
कहना न होगा, सुधीर गया नहीं। मंजरी ने गंभीर भाव से कहा, ''नहीं, मुझे आपसे कोई बात नहीं करनी है।''
''बड़ी मुश्किल है। मामूली सी बात पर आप इतनी उत्तेजित हो रही हैं मंजरीदेवी? आप तो बड़ी नर्वस हैं? कम-से-कम एक आध बातें तो मुझे कहने दीजिए।''
उस आदमी की हिम्मत पर मंजरी अवाक् हुई। उसके चेहरे की गंभीरता के धोखे में आ गयी। भूल गयी कि यह आदमी एक मंझा हुआ अभिनेता है। लगा, इसकी एक आध बातें सुनने में हर्ज क्या है? सच, ऐसा कौन सा अपराध किया है सिवाय एक गलत युक्ति के?
''क्या कहना है कहिए।''
आंखों के इशारे से सुधीर को बाहर जाने का आदेश देकर मंजरी सोफे पर बैठ गयी।
जलती हुई नजरों से देखते हुए सुधीर बाहर चला गया।
उसे तनख्वाह ने ही इस घर से बांध रखा है। वरना ऐसी जगह क्या उसके जैसे लोग रह सकते हैं? औरतों की वाचालता देखकर उसके तनबदन में आग लग जाती है।
''कहिए, आपको क्या कहना है?''
''मुझे क्या कहना है यह क्या आप नहीं समझ रही हैं मजरीदेवी? मैं आपको प्यार करने लगा हूं-बहुत ज्यादा। यही मुझे कहना है।''
मंजरी को अपने भाग्यान्वेषण के लिए दूर जाना है।
मंजरी को अपनी सारी जिम्मेदारी उठानी होगी।
मंजरी का विचलित होना ठीक नहीं।
मन-ही-मन अपना रक्षामंत्र उच्चारण करने के बाद मंजरी ने शांत संयत स्वरों में कहा, ''ये स्टूडियो नहीं है निशीथ बाबू।''
''सारी दुनिया ही स्टूडियो है मंजरीदेवी।''
''यह कोई नई बात नहीं है। आशा करती हूं कि आपका वक्तव्य समाप्त हो गया है।''
''आप बड़ी निष्ठुर हैं मंजरीदेवी,'' चेहरे पर और अधिक उदासी विपन्नता, करुण भाव लाते हुए निशीथ ने कहा, ''आप अपने प्रति भी निष्ठुरता कर रहीं हैं और दूसरे के प्रति भी...''
''क्या किया जा सकता है, सभी में बराबर की दया नहीं रहती है।''
''लेकिन यह तो आपका आत्मपीड़न है मंजरीदेवी।''
विचलित नहीं होऊंगी यह सोचना आसान है लेकिन काम में लाना बड़ा मुश्किल। मुश्किल से अपने को संयत करके मंजरी ने जवाब दिया, ''मेरे मामले में अगर आप कम चिंता करें तो सुखी होवूंगी निशीथ बाबू।''
''इसके सिवा उपाय भी तो नहीं है मंजरीदेवी। हर समय केवल आपकी चिंता करते-करते मैं जख्मी हो गया हूं। आप क्यों अपने को उपवासी रखकर वंचित कर रही हैं? समाज ने आपको दिया क्या है? अकारण ही अन्याय और अपमान के अलावा और तो कुछ नहीं न? कहिए मंजरीदेवी, किसी ने आपके लिए सहानुभूति जताई है? आपकी हिस्ट्री में जानता हूं। आप तेज हैं, झूठा अपवाद, लांछना सहन न कर सकने के कारण घर छोड़कर निकल आई हैं। लेकिन क्या आपका समाज इसके लिए अनुतप्त हुआ? आपको वापस लौटा ले गया? तब फिर? उस समाज की आप परवाह क्यों करेंगी? बताइए? जवाब दीजिए मुझे।''
क्रुद्धा सर्पिणी को जैसे औषधिलता का धुंआ देने पर वह शिथिल हो जाती है उसी तरह दृढ़ता चली जा रही थी मंजरी के भीतर से। जिस दृढ़ता से उसने कहा था, ''सुधीर, बाबू को गाड़ी तक पहुंचा दो'' वह दृढ़ता कहां गयी? चेहरा फीका पड़ता जा रहा था, दिल जोर-जोर से धड़क रहा था, सिर के भीतर जाने कुछ शब्द झनझना रहे थे। शब्द नहीं, कुछ वाक्यांश।
''समाज ने आपको क्या दिया है? अकारण अपमान और अन्याय-यही न? आपको समाज ने अनुतप्त होकर क्या आपको लौटा लिया है?
पक्के और मंझे हुए खिलाड़ी जिस तरह जानते हैं कि खेल में कहां कूद पड़ना चाहिए, कहां उदासीनता दर्शाना चाहिए, उसी तरह से परिस्थिति की गंभीरता को देखकर निशीथ राय और भी ज्यादा दुःखी उदास होकर करुण स्वरों में बोला, ''आप मुझे चौकीदार से निकलवा सकती हैं मंजरीदेवी, मैं सिर झुकाकर चला जाऊंगा। लेकिन याद रखिएगा, नितांत ही बुरे लोग भी कभी-कभी सच्चा प्यार कर बैठते हैं। उसके सारी विगत जीवन के इतिहास को सामने रखकर फैसला करना तो उसके प्रति अन्याय करना हुआ न?''

डरना बल्कि अच्छा होता है। कम-से-कम चिल्लाकर नौकरों को तो बुलाया जा सकता है लेकिन विपन्नता और भी भयानक है। यहां आदमी और ज्यादा असहाय है। मंजरी असहाय विपत्र भाव से देखती रही।

संपेरे की तीखी नजर से मंत्राहत विपन्नमुख को देखा निशीथ राय ने। फिर कहना शुरू किया, ''जानता हूं आप पवित्र हैं, आप बलिष्ठचित्त हैं और मैं दुर्बल। क्योंकि मैं हाड़ मांस का इंसान हूं। इसीलिए मैं अपनी दुर्बलता का अपराध है मानने को तैयार नहीं हूं मंजरीदेवी। स्वीकार करता हूं कि मैं देवचरित्र नहीं हूं लेकिन प्रेम क्या चीज है उसे पहले कभी इस तरह से अनुभव नहीं किया था।''
मंजरी चंचला होकर उठी-फीका सा चेहरा लिए बोली, ''मैं आपका कौन सा उपकार कर सकती हूं बताइए।''
''उपकार?'' उसी विपन्न हंसी को हंसकर निशीथ राय बोला, ''नहीं मंजरी देवी, आपके सामने इस बात का उत्तर दे सकूं वह साहस मुझमें नहीं है। मैं विदा लेता हूं। आपको व्यर्थ ही में परेशान किया-हो सके तो माफ कीजिएगा। आप बहुत दूर चली जा रही हैं...फिर भी शायद, कर्मक्षेत्र में कभी मुलाकात हो...जानता हूं अतिथियों वाला सम्मान फिर कभी नहीं पाऊंगा...अच्छा नमस्कार।''
विमूढ़ भाव से मंजरी ने हाथ जोड़कर कहा, ''लेकिन मैंने तो आपको आने के लिए मना नहीं किया है।''

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