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नारी विमर्श >> मंजरी

मंजरी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6387
आईएसबीएन :0000000000

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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....


''मना नहीं किया है यह आपकी महानता है लेकिन मैं तो जानता हूं कि वह अधिकार मैंने खो दिया है। फिर भी विदा लेते हुए कहता जा रहा हूं कि अपने आपसे एक बार पूछिएगा आप क्यों कष्ट उठा रही हैं? किस कीमत पर? इस पर क्या कोई विश्वास करेगा? आपके लाख सिर पीटने पर भी क्या कोई विश्वास करेगा?''
धीरे-धीरे चला गया निशीथ राय।
नीचे जाकर कार स्टार्ट करते-करते सीटी बजाने लगा।
उधर सोफे का सहारा लिए स्तब्ध खड़ी रह गयी मंजरी। कमरे में एक ही शब्द गूंज रहा था, ''कोई क्या विश्वास करेगा?''
लेकिन क्या दूसरों के विश्वास भाजन बने रहने के अलावा अपनी पवित्रता प्रमाणित करने का कोई और जरिया नहीं? सामाजिक अनुशासन के अलावा और कोई अनुशासन नहीं?

''द्वारिका जायेंगे अभिमन्यु दा?''
भड़भड़ाकर भीतर आते हुए हड़बड़ाकर पूछा सुरेश्वर ने बिना किसी भूमिका के, ''जायेंगे तो चलिये।''
अभिमन्यु अवाक् हुआ।
''अचानक तुम कहां से भाई? मानस कैलाश से कब वापस लौटे हो? मेरा घर कैसे पहचाना? अभी फिर द्वारिका जाने की बात-मतलब क्या है?
''धीरे-धीरे...एक-एक करके।...अचानक कहां से? सो अधम अपने बैरकपुर वाले निवास स्थान से आ रहा है। मानस कैलाश से कब वापस लौटा? लगभग पांच-छ: महीने पहले। कालश्रोत जलश्रोत की तरह हरदम प्रवाहमान है। अभिमन्यु दा। आपका घर कैसे पहचाना? पते के बल पर? यद्यपि आपके भृत्य महाप्रभू तो मुझे भगा ही दे रहे थे।''
''भगा रहे थे?''
''हां भई। कह रहा था, बाबूजी की तबीयत ठीक नहीं है। दुनिया भर के लोगों के साथ भेंट मुलाकात नहीं करते हैं।''
''हूं-काफी सरदारी करने लगा है।''
''खैर-चल रहे हैं न?''
''चल रहा हूं? कहां चल रहा हूं?''
''वाह! कहा न? द्वारिका पूना, नासिक बंबई...''
''तुम क्या दो दिन कहीं आराम से बैठ नहीं सकते हो? तुम्हारे भीतर है क्या? घूमता चक्र?''
''शायद! सच अभिमन्यु छ: महीने कहीं न निकलो तो लगता है बीमार हो गया हूं।''
''समुद्र लांघने का मामला निपटा चुके हो क्या? हालांकि समुद्र लांघों या आकाश नापो...''
''नहीं...वह बात ज्यादा बढ़ कहां पाई? सिर्फ जापान तक धावा कर पाया। मातृभूमि में ही चक्कर लग रहे हैं।''
''पागल नंबर वन।''
''जो चाहे सो कहिए। खैर...मौसीजी के क्या हालचाल हैं?''
''ठीक ही हैं।''
''कहां हैं? दुमंजिले में? चलिए न उन्हें एक बार द्वारिका का नाम सुना आऊं।''
''रक्षा करो सुरेश्वर...मां का उत्साह मत बढ़ाओ।''
''न बढ़ाऊंगा तो कहीं आपको खींचकर निकल सकूंगा?''

''मेरी बात बाद में सोची जायेगी।''
''मैं सोच विचार करने के पक्ष में नहीं, एकदम पक्की बात चाहता हूं। सच अभिमन्यु दा, पिछली बार से मैंने तय किया है कि अगले अभियान में मैं आपको पकड़ूंगा।'
सकौतुक अभिमन्यु बोला, ''ऐसा क्यों भला?''
''अरे वही तो बात है। कहावत है न जिससे जिसका दिल लग जाए-इसीलिए-और क्या? तो फिर बात पक्की?''
अभिमन्यु हंसकर बोला, ''कब जाना है, कहां जाना है, कुछ भी पता नहीं, पक्की बात ले लेना चाहते हो?''
''वह सब पता चल जायेगा। जाने के पहले दिन तक हर रोज एक बार आकर चढ़ाई करूंगा। कहां...एक बार मौसीजी से तो मिल लूं।''
''चलो, लेकिन यह सब जाने वाली बात का जिक्र मत करना अगर कहीं जाऊंगा तो अकेला ही जाऊंगा।''

''और मौसीजी? वह कहां रहेंगी?''
''उनके रहने का कोई अभाव नहीं है। यह अधम जीव उनका सबसे ज्यादा? नालायक बेटा है। और दो कर्मठ योग्य बेटे हैं उनके। उनकी सुरम्य अट्टालिका, सुदृश्य मोटरें बहुत कुछ हैं। कन्यायें ही है कुल मिलाकर चार...''
''अच्छा!'' सुरेश्वर सकौतुक बोला, ''आपने पहले कभी तो बताया नहीं था? मैं तो सोच रहा था आप ही अकेले...''
सहसा चुप हो गया अभिमन्यु। उसे तो पता है कि पूर्णिमादेवी ने क्यों परिचय जैसी चीज को अंधकार में रखा है। सुरेश्वर उसके चुप हो जाने के प्रति कटाक्षपात करते हुए बोला-
''आप बहुत ज्यादा रिजर्व किस्म के आदमी हैं अभिमन्यु दा। अपने बारे में आप एक शब्द उच्चारण करने को तैयार नहीं।'' अभिमन्यु फीकी हंसी हंसकर बोला, ''बुद्धिमानों के यही लक्षण हैं।''
''इसी बहाने अपनी तारीफ कर ही ली-है न?'' कहकर हा-हा करके हंसने लगा सुरेश्वर।''
आश्चर्यजनक है ये लड़का।
आश्चर्यजनक है इसकी क्षमता।
अभिमन्यु की सारी आपत्ति, बहाने को अनसुनी कर सचमुच ही उसे लेकर एक दिन द्वारिका की ओर चल दिया।
पूर्णिमादेवी ने अभिमान प्रकट न कर, बक्सा ठीक किया और मझले बेटे के पास चली गईं। इस पर भी अभिमन्यु को कोई दुःख नहीं हुआ। सुरेश्वर पर बुरी तरह से नाराज होते हुए भी पहली बार पूर्णिमादेवी को अहसास हुआ कि लड़के और उनके बीच बधूरूपी व्यवधान की दीवार दूर हट जाने से उनके बीच का व्यवधान और भी ज्यादा बढ़ गया है। यह व्यवधान अब कभी भी दूर नहीं होगा।
पहली बार संदेह करके सिहर उठीं कि शायद अभिमन्यु अपने हृदय के एकाकीपन के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराता है।
अवश्य ही ठहराता है।
अगर पूर्णिमादेवी ने बहू को ऐसे कठोर विचारक की दृष्टि से न देखा होता तो शायद वह इस तरह से चली न गयी होती। अभिमन्यु भी आज पतवार विहीन नाव की तरह भटकता न फिरता। और खुद पूर्णिमादेवी भी बिल्ली के बच्चे को इधर-उधर करने की तरह आज यहां कल वहां, ठौर ठिकाना बदलती न फिरतीं।
पुराने जमाने का जो नियम था-वृद्धावस्था में तीर्थवास, अच्छा नियम था। इससे जीवन के अंतिम दिनों में अपने आपको 'फालतू' न समझतीं।

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