नारी विमर्श >> मंजरी मंजरीआशापूर्णा देवी
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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....
"मैं छिपकर भाग आई हूं छोटी मौसी।" चंचला ने ही इस बार मंजरी की झिझक तोड़ी और
जाकर उससे चिपक गयी।
"तू? तूने कैसे मेरा घर ढूंढ़ निकाला रे चंचल? शैतान लड़की, सोना लड़की।"
अब चंचला स्थिर हुई। बोली, "मैंने नहीं ढूंढ निकाला है, मेरे स्कूल की एक
लड़की के बड़े भाई...'' थूक गटककर चंचला बोली, "उसका बड़ा भाई तुम्हारे पास आएगा
ऑटोग्राफ लेने, इसीलिए मैं..."
"क्यों आई? दीदी को पता चला तो तुझ पर बहुत नाराज होगी।" उदास होकर मंजरी
बोली।
कुंठित भाव से चंचला बोली, "गुस्सा वह क्या करेंगी? मां अब यह सब नहीं होती
हैं-जाने कैसी हो गयी हैं।"
"कैसी हो गयी हैं?" मंजरी आर्तनाद कर उठी।
"जाने कैसी अजीब सी। पहले जैसी नहीं रह गयी है। मुझे अब घर में अच्छा नहीं
लगता है छोटी मौसी।"
अपनी पुरानी आदत के मुताबिक मजाक करके कहने जा रही थी, "इस घर में अच्छा नहीं
लग रहा है तो ससुराल चली जा।" लेकिन कुछ सोचकर बात बदलकर बोली, "लेकिन वह लोग
कहां हैं? तेरी सहेली और उसका भाई?"
"नीचे वाले कमरे में।"
"अरे वाह, बुला ले आ उन्हें।"
"बुलाती हूं। पहले अपनी बात कह लूं...''
"तुझे क्या कहना है रे? कह न? चुप क्यों है?"
सहसा मुंह उठाकर चंचला बोली, "छोटी मौसी, तुम मुझे अपने पास रहने दोगी?''
"सर्वनाश!" सिहर उठी मंजरी। बोली, "ऐसी बात मुंह से न निकाल। मेरे पास भला
इंसान रहता है?"
"क्यों नहीं रहेगा? तुमने कौन सी गलती की है? मुझे उनकी बातों पर विश्वास
नहीं होता है।"
"किनकी बातों पर?"
"सभी की। सभी कहते हैं तुम बदल गयी हो छोटी मौसी। लेकिन मुझे तो ऐसा कुछ नहीं
लग रहा है। ठीक वैसी ही हो तुम।" अपनी बात खत्म करके चंचला ने कमरे को गर्दन
घुमाकर देखा।
इतनी सारी चीजें, यह घर-सब छोटी मौसी का है। सब कुछ अपनी कमाई से है? मानो
विश्वास नहीं हो रहा था। लेकिन मंजरी बदली कहां है?
मंजरी गंभीर होकर बोली, "किसने कहा वैसी ही हूं? बदल गयी हूं-बिल्कुल बदल गयी
हूं।"
"बिल्कुल नहीं।" चंचला अपनी बात पर जोर डालकर बोली, "ठीक वैसी ही हो तुम।
मुझे अपने पास रहने दो न छोटी मौसी।" हाय अबोध लड़की।
हृदय मरोड़ उठा। मंजरी फिर भी हंसकर बोली, "मैं तो फिल्में करती फिरती
हूं-मेरे पास रहकर क्या करेगी?"
"मैं भी फिल्मों में काम करूंगी।"
"सर्वनाश! ऐसी बात मुंह से मत निकाल चंचल...सपने में भी न सोचना। दुर्गा,
दुर्गा।"
"वाह! खुद तो मजे में हो-तुम्हारा कितना नाम है, कितनी ख्याति है, कितना
रुपया है।"
मंजरी ने चेहरे पर हंसी का मुखौटा चढ़ाकर क्लिष्ट स्वर में कहा, 'कितना दुःख,
कितने कष्ट हैं...''
"कैसा दुःख? दुःख किस बात का? सिर्फ अपने लोग तुम्हारी निंदा करते हैं, यही
न?"
"तो वह क्या कम दुःख की बात है रे?''
"खाक! अपने लोग तो हर बात की निंदा करते हैं। वह कहता है...," कहकर रुक गयी
चंचला।
"कौन क्या कहता है?" मंजरी के स्वर में विस्मत था।
"माने, वह जो लड़का मेरे साथ आया है। मेरी सहेली का दादा है। वह कहता है
'पृथ्वी में ऐसा कोई काम नहीं है जिसकी रिश्तेदार निंदा नहीं करते हैं। देश
की सेवा करो तो भी करेंगे, परोपकार करने पर भी करेंगे, दाता बन जाओ तो भी और
संन्यासी बनकर चले जाओ तब भी निंदा करेंगे। डस तरह की निंदा की परवाह करने से
काम नहीं चलता है।' वह कहता है, वह किसी की निंदा की परवाह न करके सिनेमा
एक्ट्रेस के साथ शादी करेगा।"
उसकी वर्णना पर चमकृत होकर मंजरी बोली, "लड़का बड़ा महान है न रे?"
चंचला महोत्साह से बोली, "खू...ब! दूसरे लोग जिसे घृणा करते हैं वह उन्हें
भक्ति करता है।"
चंचला के इस उत्साह के र्पाछे उसके फिल्मों में काम करने के उत्साह का कारण
आविष्कृत कर जरा अनमनी हो गयी मंजरी। निःसंदेह एक वाचाल लड़के के फेर में पड़ी
है चंचला। लेकिन मंजरी क्या करे? उसे रोकने का कोई उपाय उसके हाथ में है
क्या?
फिर भी बोली, "अच्छा? अद्मुत लड़का है तो? बुला तो उसे, जरा देखूं।" चंचला
उठकर खड़ी हो गयी, "बुलाती हूं।"
"रुक जरा, एक बात कह रही थी...''
"कौन सी बात?" ठिठककर रुक गयी चंचला।
कौन सी बात? सचमुच कौन सी बात! जो बात पूर्णिमा में समुद्र में उठते उफान की
तरह सीने में उफन रही है उसे कहने की क्षमता है क्या? शरीर की समस्त शक्ति को
मुंह तक लाने पर भी सहज ढंग से पूछा नहीं जा सकता है, "क्यों रे तेरे छोटे
मौसा का हाल कैसा है? आते हैं तेरे घर? तू जाती है उनके वहां?"
किसी तरह से न पूछ सकी। आश्चर्य देखो-चंचला ने भी तो उस प्रसंग को छेड़ा नहीं।
थोड़ी प्रतीक्षा करने के बाद चंचला ने पूछा, "क्यों, तुमने कहा नहीं?"
"हां-यही। मैं कह रही थी, मैं तो कुछ दिनों में बंबई चली जा रही हूं चंचल, तू
मेरे पास कैसे रहेगी?"
चलो, कुछ तो कह सकी।
लेकिन जवाब में चंचला उत्साह की रोशनी से जगमगाकर बोली, "वह तो मैं जानती
हूं। चित्रजगत पत्रिका में तुम लोग कब कहां जा रही हो से लेकर कस चीज के साथ
खाना खाती हो यह तक छपता है। इसीलिए तो कह रही हूं तुम्हारे साथ मैं भी
चलूंगी। कोई झट से पकड़कर ला भी न सकेगा।"
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