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नारी विमर्श >> मंजरी

मंजरी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6387
आईएसबीएन :0000000000

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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....


लेकिन मंजरी के वहां पहुचकर दोनों दोस्तों की हिम्मत ने जवाब दे दिया। कार में बैठे-बैठे उन्होंने चंचला को उतार दिया।
उपहारों का बोझ दोनों हाथों से संभाल, शरीर का सहारा लिए चंचला विपत्रभाव से बोली, 'आप लोग नहीं उतरेंगे क्या?"
"नहीं, आ कुछ काम है।"
कार चली गई। चंचला फिर भी कुछ देर तक खड़ी रही। फिर धीरे-धीरे सीढ़िया चढ़ने लगी। उसे सहसा ही लगा, बहुत दिनों तक स्वर्ग में रहने के बाद चंचला फिर धरती के दमघोंटू अंधकार से ढके, जमीन पर उतरी है।
क्या एक ही दिन में मन का रंग बदल सकता है? कलकते का सहेली का भाई कहीं पीछे छूट गया, हाल ही में देखे स्वर्गदूत के सपनों में खो गई चंचला। और उस दु:साहसी लड़की ने एक अद्भुत काम कर डाला।
टेलीफोन डाइरेक्टरी देख-देखकर सुरेश्वर के होटल का नंबर ढूंढ़ निकाला और जब तब फोन करने लगी। मौका लगते ही ऐसा करती। शुरू हो जाता बातों का खेल। बेसिर पैर की बातें फिर भी आग्रह और उत्साह की कमी नहीं थी। इसी तरह से कट गए कुछ दिन।
"छोटी मौसी।''
मंजरी खिड़की के पास एक बेंत के मोढ़े पर बैठी कुछ सोच रही थी। चौंककर बोली, "क्या है रे?''
चंचला के कंठ स्वर में कुंठित आवेदन का स्वर।
अब चंचला पहले जैसी चंचला नहीं रह गई थी। उस पर उस दिन की घटना ने उसे स्थिर गंभीर बना दिया था। शांत रहने लगी थी।
"सुरेश्वर दा फोने से पूछ रहे हैं यहां आ सकते हैं?''
हालांकि चंचला से मंजरी ने उस दिन की घटना का सारा ब्यौरा सुना था, हाल ही मैं प्राप्त 'भाई साहब' के गुणों का वर्णन भी सुन चुकी थी, उपहार सामग्री देखकर उनकी प्रशंसा भी कर चुकी थी फिर भी यह न कह सकी थी, "तू कैसी है रे, दरवाजे तक लाकर एक भले आदमी को लौटा दिया?" या फिर "उस महाशय को फिर किसी दिन आने के लिए क्यों नहीं कहा?"
यह सब मंजरी कहती कैसे? उसके जीवन से तो एक और घटना जुड़ी थी। उस घटना का साधारण सभ्य व्यवहार से कोई संबंध नहीं था। इसीलिए आज आश्चर्यचकित होकर बोली, "फोन से पूछ रहे हैं माने?"
"पूछ रहे हैं उनके आने से तुम गुस्सा तो नहीं होवोगी?"
"गुस्सा? गुस्सा क्यों होवूंगी?"
"तब फिर जाकर कह दूं" फिर जरा झिककते हुए बोली, "सुरेश्वर दा कह रहे थे कहीं घूमने जा रहे हैं...वह मुझे भी ले जाना चाहते हैं...''
मंजरी गंभीर हो गई। बोली, "घुमाने ले जाएंगे? कहां?''
"यह नहीं मालूम।"
"अच्छा, उन्हें आने के लिए तो कह दे। बात करके समझ तो लूं!"
चंचला दौड़ती हुई चली गई।
उसे देखकर मंजरी कौतुकपूर्णा हंसी हंसी। पीड़ादायक कौतुकपूर्ण हंसी। बच्ची है। मन अभी भी परिपक्व नहीं हुआ। जिसे देखती है वही अच्छा लग जाता है। जानती नहीं है कि यह दुनिया कैसी है? लेकिन यह सुरेश्वर है कौन जो अभिमन्यु का इतना घनिष्ठ मित्र बन गया है! अभिमन्यु के जिस जीवन में मंजरी थी, उसमें तो इस नाम कर नामोनिशान नहीं था।
थोड़ी देर बाद खुशी से चमकता चेहरा, लिए चंचला लौटी, "कहा है, अभी
आ रहे हैं।''
मंजरी चाहकर भी न पूछ सकी, ''क्या अकेले आ रहे हैं?'' प्रश्न होंठों के पीछे उलझा रहा पर बाहर नहीं आया। इस प्रश्न के पीछे लज्जा, अपमान, अभिमान, वेदना का अंधेरा ही अंधेरा फैला है...वहां हाथ बढ़ाने की हिम्मत नहीं होती है। उसे ऐसे ही फैले रहने दो, हाथ बढ़ाने पर कहीं काट न ले।
मंजरी ने मुस्कराकर कहा, ''एक वक्त की मुलाकात में ही सुरेश्वर से तेरी इतनी दोस्ती हो गई है?''
चंचला का चेहरा लाल पड़ गया। कह न सकी कि किस मुसीबत से उसे बचाया था उन्होंने? मंजरी भी भूल गई कि चंचला की खुशी की अधिकता के कारण ही मंजरी का बेहूदा व्यवहार और उसकी कटुता, उसका दायित्व ज्ञानहीन व्यवहार, उसकी गंभीरता को हल्का बन पाया था।
चंचला चली गई। मंजरी तीक्ष्ण धार बुद्धि लिए सोचने लगी कि यह सिर्फ सुरेश्वर का चंचला के प्रति आकर्षण मात्र है या किसी और की छलझपट की बुद्धि इसके पीछे काम कर रही है?
कौन जाने सब कुछ प्लॉन बनाकर तो नहीं किया जा रहा है। वरना इतने शहर हैं देश में, अभिमन्यु को यहां आने की क्या जरूरत थी? फिर संध्या भ्रमण के लिए इन लोगों ने वही जगह क्यों चुनी? यह क्या केवल दैवी घटना मात्र थी?
लेकिन अगर सब कुछ योजनाबद्ध था तो क्यों? क्यों, क्या जरूरत थी? कहीं सुनीति का जासूस बनकर तो नहीं आया है अभिमन्यु चंचला का उद्धार करने? और जब उद्धार कर लिया तब लौटाया क्यों?
तो फिर?
मंजरी की नसों में तेजी से खून दौड़ने लगा, चेहरा कठिन हो उठा। तो क्या वह भी वनलता जैसी हुई जा रही है? जिस कारण मंजरी ने कलकत्ता छोड़ा था, अपने आपको बर्बादी के रास्ते पर लिए जा रही है क्या वह सब सच साबित होने जा रहा है?
धन ही सब कुछ है धन ही मेरा आवरण बना जा रहा है?
धन का आवरण क्या सारे कलंकों को छिपा लेता है? और वनलता का अर्जित वह सत्य? ''जीवन के किसी क्षेत्र में कहीं भी जरा सी प्रतिष्ठा अर्जित कर लो, बस सारे कलंकों के बावजूद लोग तुम्हारी इज्जत करना शुरू कर देंगे।''...यह बात क्या प्रमाणित हो जाएगी इस बार?
असहाय मंजरी को अभिमन्यु ने अपमानित किया था, उसकी अवहेलना की थी लेकिन आज शायद ऐसा नहीं कर पा रहा है। आज यश है अर्थ है। प्रतिष्ठा के सिंहासन पर बैठी मंजरी को शायद वह नए सिरे से नए रिश्ते से बांधना चाहता है। इसीलिए ये छल-दूत भेजा जा रहा है। हो सकता है दूत के पीछे खुद भी हो।
संदेश नि:संदेश के सिद्धांत में बदल गया।
याद आई वनलता की एक तीखी टिप्पणी, ''ढेरों रुपये लेकर करेगी क्या? त्याग किए पति को क्या फिर से रुपया देकर खरीदेंगी?''
कोशिश करके खरीदना नहीं पड़ रहा है, वह पतंगा तो खुद ही बिकने के लिए आ गया है। लेकिन मंजरी तो नहीं चाहती है बिकना, उपाय भी नहीं है अब। अतएव मंजरी को अपना मन कठोर बनाना पड़ेगा।

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