नारी विमर्श >> मंजरी मंजरीआशापूर्णा देवी
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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....
मंजरी यहां के एक फिल्म कंपनी से अनुबंधित होकर आई है। उसे दूसरी कंपनी काम
करने के लिए ले नहीं सकती है। इसीलिए उसके पास समय भी काफी है। कलकत्ते से
ज्यादा भले ही समय हो, यहां उसकी जिंदगी को फिसलनदार बनाने के लिए भक्तों की
कोई कमी नहीं है।
हवा में उड़ रहे दिनों के बीच अचानक एक दिन खबर आई। धक्का सा लगा। चंचला को आज
ही ले जाएंगे वे लोग। सुरेश्वर के घर से पुरानी नौकरानी और मुंशी आए हैं खबर
सुनाने सुरेश्वर ही आया। और भी दो तीन बार आ चुका था लेकिन मंजरी से भेंट
नहीं हुई थी। आज सुबह ही आ गया।
बोला, ''आपसे और अधिक परिचय करना चाहता था लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। आप एक
दुर्लभ व्यक्तित्व हैं। लेकिन यह न सोचिएगा कि यहीं इति हो गया। मेरा परिचय
धीरे-धीरे खुलेगा। लेकिन हां इस बार मैंने एक विलेन का काम किया है। कन्याहरण
करके लिए जा रहा हूं।''
मंजरी हंसी। आदरपूर्वक बैठाया। बोली, ''विलेन की भूमिका तो अधिकांश लोगों के
भाग्य में लिखी होती है।''
''वही तो जीवन की परीक्षा है।''
''हो सकता है। बैठिए, चाय लाने को कह दूं। ओहो, आप मेरे यहां खाएंगे न?"
सुरेश्वर गंभीर भाव से बोला, ''सिर्फ चाय होगी तो नहीं। उसके साथ उत्तम
फलाहार का आयोजन होगा तो खा पी लूंगा। ध्यान रहे केवल उत्तम। उत्तम मध्यम
नहीं।'' कहकर हंसने लगा तो हंसता ही रहा।
मंजरी की आंखें छलछला आईं खुशी के मारे।
कितना बढ़िया लड़का है। कैसी निर्मल हंसी है। छोटी मूर्ख चंचला भगवान करे सुखी
रहे।
व्यस्त भाव से भीतर भागी अतिथि सत्कार के इरादे से। चचंला शर्म के मारे दूसरे
कमरे में बैठी थी।
खाते-खाते सुरेश्वर ने पूछा, ''यहां की मियाद कितने दिन की है?''
''जिंदगी भर की भी हो सकती है।'' मंजरी ने उत्तर दिया।
''असंभव। बंगाली लड़की हैं, बंगाल छोड़कर यहां क्यों पड़ी रहेंगी?''
''मेरे लिए तो जैसा बंगाल वैसा ही बिहार, बंबई या फिर मध्यप्रदेश है। दुनिया
के किसी भी कोने में थोड़ी सी जगह भर चाहिए। खैर मेरी बात छोड़िए, आपकी बात
सुनूं। बैरकपुर में आपका घर है?''
''हां। वहीं वीरभ्रद में पिताजी ने मकान बनाया था...खुली जगह है यही सोचकर।
लेकिन जिस बात के लिए सुबह-सुबह आया हूं वह तो अभी तक बताया ही नहीं है।
हमारे घर से बुआजी ने मुंशीजी को और एक पुरानी नौकरानी को भेजा है भावी वधू
को ले जाने के लिए। वे मेरा हाल तो जानती हैं। अचानक विवाह का संकल्प कर बैठा
हूं इसी से बहुत खुश हैं। मैं कहीं अपना इरादा न बदल डालूं इसीलिए जल्दी मचा
रही हैं। चंचला को ले जाना होगा।''
''अभी?'' चौंक उठीं मंजरी।
सुरेश्वर कुंठित हुआ। लज्जित होकर बोला, ''लेकिन सारे दिन में आज मुझे तो
वक्त नहीं मिल पाएगा।''
''ट्रेन तो रात को है?''
''वह तो है।''
''अगर मैं स्टेशन पहुंचा दूं तो तुम्हें कोई एतराज है?''
''एतराज? कैसी बात कह रही हैं? लेकिन आप समय निकाल सकेंगी?''
''यह मेरे ऊपर छोड़ दीजिए। लेकिन मुझ पर विश्वास कर सकेंगे न?''
''विश्वास मानें?''
''मान लीजिए आखिरी वक्त पर मैं इसे छिपा लूं-आपको न ले जाने दूं?''
सुरेश्वर ने उसके चेहरे पर स्वच्छ स्थिर, निश्चित दृष्टि डालकर कहा, ''ऐसा आप
न कर सकेंगी।''
''न कर सकूंगी?''
''नहीं।''
सारे दिन मंजरी ने ढेरों खरीददारी कर डाली। अपने हृदय का आवेग प्रकट करना
चाहती थी शायद उपहार के माध्यम से। तीन बड़े-बड़े नए सूटकेस भर डाले।
लेकिन स्टेशन में अभिमन्यु भी हो सकता है, और हो सकता है क्यों, होगा ही क्या
मंजरी ने सोचा नहीं था? ऐसे चौंकी क्यों? तो फिर अभिमन्यु को देखकर-न?
लोग ही लोग-लोगों से पटा पड़ा था स्टेशन विक्टोरिया टर्मिनल की भीड़ रथयात्रा
की भीड़ लग रही थी।
फोर वर्थ का एक कमरा रिजर्व किया था, किसी तरह से भीड़ ठेलते हुए बाहर लगे
चार्ट में नाम ढूंढकर चढ़ा गया।
चंचला रो रही थी। मंजरी को छोड़ ही नहीं रही थी। मंजरी उसे अपने बांहों के
घेरे में लेकर चुपचाप बैठी थी। बातों से सांत्वना देना उसे आता नहीं है। फिर
जानती थी यह सब सामयिक है ट्रेन छूटते ही चेहरा खिल उठेगा। चंचला जैसी
लड़कियां, सहज ही में रो लेती हैं और हंसती भी जल्दी हैं। ऐसी लड़कियां सुखी
होती हैं।
अभिमन्यु से क्षण भर के लिए आंखें मिली थीं। टैक्सी से उतरते ही। चौंक उठी थी
मंजरी। लेकिन चौंकने का क्या सचमुच कोई कारण था?
यह दुर्घटना क्या आकस्मिक थी? अप्रत्याशित थी?
सुबह से क्या इसी मधुर आशा को लिए फिर नहीं रही थी मंजरी? चंचला को स्टेशन
पहुंचाने के प्रस्ताव के पीछे भी यही चिंता नहीं थी क्या? इसीलिए तो सारे दिन
विहल थी वह।
यहां से भागने का प्रश्न नहीं उठता है।
अभिमन्यु और सुरेश्वर प्लेटफार्म पर चहलकदमी कर रहे थे। जब तक ट्रेन खड़ी है
चंचला अच्छी तरह से मौसी से विदा ले ले। अभिमन्यु क्या सोच रहा है यह समझ
पाना आसान नहीं। मर्द होते ही हैं ऐसे-दिल की बात दिल में रख लेते हैं। उनके
चेहरे पर हृदय के भाव जल्दी उभरते नहीं हैं।
मंजरी सोच रही थी, ट्रेन के चलते ही ये लोग प्लेटफार्म पर टहलना बंद करके
ट्रेन पर चढ़ेंगे। अगर मंजरी ट्रेन से उतरना भूल गई? क्या ये लोग उस भूल को
सुधारने का प्रयास करेंगे? ये लोग क्या कहेंगे, ''जाओ, अब तुम उतर जाओ
तुम्हें यहां रहने का अधिकार नहीं है। तुम्हारे पास टिकट नहीं है। स्वाभाविक
जीवन पथ पर चलने का हक तुमने खो दिया है।''
वार्निंग बेल बजी।
प्लेटफार्म में खलबली मची।
मंजरी चंचला के हाथ से अपना हाथ छुड़ाते हुए सस्नेह बोली, "ऐसा सुंदर दूल्हा
मिल रहा है, पैसे वाली सास पाने जा रही है, तब फिर क्यों रो रही है?''
"तुम भी चलो छोटी मौसी।''
"मैं? मैं कहां जाऊंगी रे? तेरी नौकरानी बनकर?" हंसने लगी मंजरी। उसे लगा, वह
पहले वाली मंजरी ही है। साधारण गृहवधू की भांति एक निकट आत्मीय को ट्रेन पर
बैठाने स्टेशन आई है, विच्छेद व्याकुल स्नेहातुर हृदय लिए। घर लौटकर आल्मारी
से शराब की बोतल निकालकर नहीं बैठेगी, नशे से चूर फर्श पर पड़ी-पड़ी रोएगी
नहीं, या फिर कल ही आंखों में काजल लगाकर, शालीनताहीन पोशाक पहनकर स्टूडियो
में हाजिरी नहीं लगाएगी। मानो वह चित्रतारिका नहीं, केवल मंजरी है।
लेकिन यह सुख-सपने कितनी देर के लिए? चंचला ने झुककर पैर छूए। उतरने का
संकेत। जल्दी से उतरना पड़ा मंजरी को। और उसके बाद-ट्रेन हिली तो आराम से
दोनों चढ़े। अभिमन्यु और सुरेश्वर।
मंजरी से अभिमन्यु की आंखें मिली नहीं? क्षण भर के लिए? मिली थीं। लेकिन
अभिमन्यु की उन आंखों में, क्या कोई भाषा थी? या केवल पथराई सी आंखें थीं?
पथराई आंखों से हृदय की वाणी फूटती है।
लेकिन क्या पथराई आंखें इतनी उदास इतनी कोमल होती हैं?
बृहत अजगर का शरीर केंचुल छोड़कर मानो सरसराता हुआ आगे बढ़ गया। गति उसकी
द्रुत से द्रुततर होने लगी हर पल। सिर झुकाए जनता के बीच मंजरी आगे चलने लगी
शिथिल कदमों से। ज्यादा कुछ नहीं सोच रही थी-बस यही सोच रही थी कि ट्रेन के
चक्कों के नीचे जाने के लिए कितने साहस की जरूरत है? कितने लोग तो ऐसा करते
हैं।
मंजरी में साहस की बड़ी कमी है।
साहस नहीं हुआ बिना दिकट ट्रेन में बैठे रहने का, ट्रेन के पहिए के नीचे आ
जाए वह साहस भी न बटोर सकी। केवल साहस कर एक टैक्सी पर चढ़ बैठी जिसके ड्राइवर
को देखकर डर लगना चाहिए था।
क्या डर गई थी वह?
वरना घर पहुंचते ही उस तरह से दौड़ती सीढ़ियां क्यों चढ़ने लगी? अगर डर गई थी तो
कमरे में आकर बिस्तर पर लोटपोट कर इस तरह से हंसने क्यों लगी? आंखों से झरती
हंसी।
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