लोगों की राय

नारी विमर्श >> मंजरी

मंजरी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6387
आईएसबीएन :0000000000

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

445 पाठक हैं

आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....


इस हंसी को शब्दों में पिरोया जाए तो यह वाक्य बनते हैं, "अब और क्यों? अब किस बात की आशा? सब कुछ तो खत्म हो गया?''
जबकि किस बात की आशा?
केवल फिर से एक बार देख पाने की आशा? शायद हां-उसी आशा के मध्य, अचेतन चेतना के द्वारा, जरा-जरा करके संचित हो उठी थी और भी अधिक आशा। अनजाने में बन गया था एक आश्वासन की भीत।
एकबार मुलाकात होते ही शायद अब कुछ ठीक हो जाएगा। मंजरी की यह बदसूरत छद्यवेश उतर जाएगा, हवा का झोंका उड़ा ले जाएगा। गलतफहमियों के बोझ को।
कुछ नहीं हुआ।
कुछ भी नहीं हुआ।
अभिमन्यु से भेंट हुए-स्पष्ट रूप से प्रत्यक्ष। हवा में लुप्त हो गया वह परम क्षण। धूल उड़ा ले गई स्वप्न प्रासाद की दीवार को। दुनिया जैसी चल रही थी वैसी ही चलती रही, मंजरी जहां थी वहीं खड़ी रह गई।
तब फिर खत्म होने के लिए बचा क्या?
हंसते-हंसते रोने लगी मंजरी। फूट-फूटकर रोने लगी। सिर कूट-कूटकर रोई। रोते-रोते उठ बैठी मंजरी। खाट से उतरकर दीवार की आल्मारी का पल्ला एक झटके में खोल डाला उसने।
बंबई शहर में शराब पर भले ही पाबंदी हो, जिन्हें चाहिए उनके घरों में हमेशा ही मौजूद रहती है।
जरूरत?
जरूरत नहीं तो और क्या? अपने आपको भुलाने की जरूरत तो रहती है इंसान को? कुछ दिनों पहले सोचा था, "बस, अब और नहीं।" आज सोचा, 'नहीं, अभी चाहिए।"
जाए-सब कुछ चला जाए। जब कुछ रहा ही नहीं, तो बाकी कुछ रखने की कोशिश क्यों? अगर तरल अग्नि भीतर डालने से अंदर की आग धधक उठती है, जलन शांत होती है तो हर्ज क्या है? जहर से जहर उतरे-क्या फर्क पड़ता?
अरे! यह क्या?
यह तो बिल्कुल खाली है। दोनों बोतलों को उलटकर झाड़कर देखा, कुछ नहीं था। कब खत्म हो गया? नहीं, नहीं, मंजरी ने खत्म नहीं किया है। जरूर उस नौकर का काम है ये। चोरी की है। चुराकर ऊंचे दामों में बेचा है।
दोनों बोतलों को उठा-उठाकर पटक दिया मंजरी ने। झनझनाकर कांच के टुकड़े चारों तरफ बिखर गए।
आवाज सुनकर वर्दी पहना नौकर केशवन दौड़ा आया। स्तब्ध खड़ा रह गया। ऐसा दृश्य, पहले कभी इस कमरे का देखा नहीं था।
"निकल जाओ, अभी निकल जाओ, डाकू बदमाश चोट्टे।"
फैले कांच के टुकड़ों पर ही लेट गई मंजरी, शराब पिए वगैर ही पक्के शराबियों की तरह।

क्लांत चेहरा, स्निग्ध हंसी हंसकर अभिमन्यु ने कहा, "अब तो हे बंध विदा दो।''
सुरेश्वर व्यस्त भाव से बोला, "मतलब? अभी कैसी विदाई? जब तक शुभकार्य निर्विष्य समाधान नहीं हो जाता है तब तक यहां से जाकर देखिए तो सही।"
"शुभकार्य?" अभिमन्यु हंसा, "वह तो तुम्हारे पत्रे के मुताबिक होना है और बुआजी से मालूम हुआ है कि अभी लगभग पंद्रह दिनों की देर है।" 
"यह पंद्रह दिन हमारे साथ रहना क्या कष्टकर होगा?"
"बड़े पागल हो। मैं तो यहां रहूंगा ही नहीं। मतलब इस देश में।" 
"इस देश में नहीं रहेंगे? तो कहां जा रहे हैं?"
"अरे भाई, बहुत दिनों से इच्छा थी दुनिया का दूसरा पहलू कैसा है एक बार देख आऊं। इच्छा ही थी, हिम्मत तो थी नहीं। पैसा भी नहीं था। इसीलिए यही कोशिश कर रहा था कि उन्हीं के पैसों से उनका देश घूमने जाऊं। सात घाट का पानी एक घाट में कर, हजारों जगह दरख्वास्त डाले यह सोचकर बैठा था कि कुछ होगा नहीं। अचानक देखा कि मंजरी आ गई है नियुक्ति-पत्र सहित। अतएव अगले हफ्ते ही रवाना हो रहा हूं।"
हंसते-हंसते मानो अभिमन्यु ने सुरेश्वर की फांसी की सजा सुना दी। 
"नियुक्ति-पत्र? इसके मतलब आप भारत छोड़कर नौकरी करने अमेरिका चले जा रहे हैं?"
'अरे नहीं, इतनी बड़ी कोई बात नहीं है। तीन साल के लिए है, एक मामूली लेक्चरार की पोस्ट है, लगभग स्टूडेंट स्कॉलरशिप जैसी चीज। पैसेज का खर्च देंगे और रहने खाने के लिए कुछ पैसे। वह भी हमारे पुराने कॉलेज के प्रिंसिपल की कोशिश से ही हुआ है, मुझ में वह कैपेसिटी कहां है?''
लगा सुरेश्वर इस अचानक की खबर से अंदर तक हिल गया है। अपने को संभाल पाने में असमर्थ वह बोला, "आपका वह नियुक्ति-पत्र कब आया जरा बताइए तो सही। आज चार महीने से तो मैं आपके साथ लगा हूं।"
"प्रिंसिपल साहब के घर में चार पांच दिन से आकर पड़ा हुआ था। कल तुम लोगों को उतारकर ही चला गया था न? सोदपुर उनके घर गया था। बड़े घबरा रहे थे बेचारे। खूब डांटा बेखबर घूमने के लिए। बोले, "अविलंब पासपोर्ट बनवा लो।" सुरेश्वर ने फिर भी अविश्वासपूर्वक कहा, "कहां, देखूं तो आपके वह सारे कागजात।"
"बिना दिखाए विश्वास नहीं करोगे?"
"ऊहुं।"
"अच्छा दिखा दूंगा। जानता हूं तुम और चंचला दुःखी होगे लेकिन मुझे इस बात की उम्मीद नहीं थी कि यह सब इतनी जल्दी होगा। वैसे तो होने की ही उम्मीद नहीं थी।" सुरेश्वर गंभीर होकर बोला, "हम लोग दुःखी होंगे? हुं। मैं तो उम्मीद कर रहा था कन्यादान आप ही करेंगे।"
"ये लो। देखो दोस्त हो यही अच्छा है। दामाद बन रहे हो यहां तक भी ठीक है पर मैं पूरी तरह से ससुर बनना नहीं चाहता हूं।''
"तब फिर आप उस समय निश्चित रूप से नहीं रहेंगे?"
"हां, एक तरह से तो निश्चित ही है।"
"तो जितने दिन भारत की मिट्टी पर हैं हमारे साथ ही रहिए।"
"रहना क्या जरूरी है?"
"हां। जाएंगे कैसे, पानी के रास्ते या हवाई जहाज से?''
"सुना है हवाई जहाज से जाने की व्यवस्था हुई है।''
मिनट भर चुप रहने के बाद सुरेश्वर बोला, "अभिमन्यु दा एक बात कहूं?'' 
"इतना हिचक क्यों रहे हो?'' अभिमन्यु हंसा।
"कह रहा था...'' कुंठा छोड़ सुरेश्वर बोला, "तो क्या हार मानकर भाग रहे हैं?"
भीतर से कांप उठा अभिमन्यु फिर फीकी हंसी हंसकर बोला, "दुनिया में आकर कितने लोग हैं जो जीत अर्जित करके जा पाते हैं? कोई हारकर कोई मार खाकर भागता है।''
''बात को टालिए नहीं अभिमन्यु दा। मैं बातों के आर्ट को नहीं समझता हूं। मैं साफ बात का आदमी हूं। अगर भाभीजी को न देखता तो मुझे यह प्रश्न पूछने की जरूरत न होती। लेकिन उन्हें देखने का सौभाग्य मुझे हुआ है और तभी से ये सवाल मेरे जेहन में उठ रहा है। आज आपके देश छोड़ने के संकल्प से अवाक् होकर सोच रहा हूं क्या उन्हें आपने संपूर्ण रूप से त्यागने का विचार कर लिया है?''
अभिमन्यु शांत स्वरों में बोला, "त्याग या ग्रहण करने का प्रश्न तो बहुत दिन हुए खत्म हो चुका है सुरेश्वर।"
"न:, नहीं हुआ है।" जोर डालते हुए सुरेश्वर ने कहा, "क्या इंसान इतना सस्ता है अभिमन्यु दा जिसे आप इतना आसानी से छोड़ दें? मैंने तो देखा, उन्हें छोड़ देने से नुकसान नहीं होगा, ऐसी महिला वह नहीं हैं। उनके बारे में किसी तरह की चिंता न करके, बिना झिझक इस तरह से जाना आपको परेशान नहीं करेगा?"
हताशभाव से अभिमन्यु ने कहा, "अब मेरे लिए करने को बचा क्या है सुरेश्वर? वह चल रही है अपने रास्ते, भंयकर तीव्र है उसकी गति। उस रास्ते से उसे खींच निकालने की क्षमता मुझमें नहीं है। इसीलिए मैंने अपने जीने का रास्ता चुन लिया है।"
"उसे भी बचाइए। उसे ध्वंस के रास्ते से जबर्दस्ती खींचकर निकाल लाइए।'' 
"अब ऐसा क्या हो सकता है रे पगले?"
सुरेश्वर ने पूछा, "स्नेह, प्रेम, ममता, क्षमा जैसे शब्द तो क्या अर्थहीन हैं अभिमन्यु दा? या कि समाज-व्यवस्था के थर्मामीटर का पारा है? व्यवस्था के ताप के अनुसार घटता बढ़ता है। हमारे समाज में तो पुरुषों को हजारों गलियां माफ हो जाती हैं और लड़कियों से जरा सी गलती हुई तो उन्हें त्याग दिया जाता है, निकाल दिया जाता है। हमेशा यही व्यवस्था चालू रहेगी क्या? क्या हम कभी सोचेंगे तक नहीं कि पुरुष जाति के लिए यह एक लज्जाजनक बात है? लड़कियों को अपराध की कड़ी सजा और पुरुषों को क्षमा का निर्देश देने वाले कौन हैं शास्त्रकार? मुझे तो लगता है वह औरतें ही होंगी। वरना इस तरह से पुरुषों के चेहरे पर कालिख न पोत सकती। तो क्या हम वही कालिख पोते बैठे रहें?''
अभिमन्यु ने सोचकर धीरे से कहा, "शायद अब न रहे सुरेश्वर। शायद व्यवस्था में परिवर्तन आए। एक-एक युग के प्रयोजन के मुताबिक एक-एक तरह की कानून की सृष्टि होती है और अगले युग में जब तक वह कानून अचल नहीं हो जाता है तब तक चलता ही रहता है। विकृत विकलांग आकृति में भी चलता रहता है। इसीलिए आज इस समाज व्यवस्था को कोई अस्वीकार कर रहा है, कोई इसका मजाक बना रहा है। और कोई पुर्खों की विधि व्यवस्था मानकर हृदय से लगाए बैठा है। लेकिन अब वह दिन दूर नहीं। युग के प्रयोजन को देखते हुए नए कानून की सृष्टि होने लगी है।"
"तब फिर आप इस नए युग के पास कदम मिलाकर नहीं चलना चाहते हैं अभिमन्यु दा?''
अभिमन्यु ने खिड़की से बाहर देखा। बाहर दोपहर ढल रही है, संध्या के आगोश में स्थान पाने के लिए। हल्की चल रही हवा, सामने खड़े एक बड़े पेड़ के पत्तों को हौले-हौले हिला रही थी। उधर देखते हुए अभिमन्यु ने कहा, "वहीं तो मैंने हार मानी है सुरेश्वर। अपने मन को परखकर देखा, वहां उसे मान लेना मुश्किल नहीं था लेकिन मेरी मां? मेरा सारा परिवार? उन्हें मैं कैसे दुःख पहुंचाऊं? हम तो ममता के जाल में बुरी तरह से उलझे हुए हैं सुरेश्वर।''
सुरेश्वर बोला, "कोई अगर गलत बात के लिए दुःख झेले तो उसे कौन बचा सकता है? आज भी जो लोग जीवन को पुराने नजरिए से देखना चाहेंगे, दुःख तो उन्हें होगा ही। कभी हमारे समाज में लड़कियों का गाना गाना भी निंदनीय था। आज यह चीजें हास्यकर है। नृत्यु है, अभिनय है, यह भी इसी तरह से जगह बना रही है-देख लीजिएगा।"
धीरे से अभिमन्यु बोला, "जानता हूं। धीरे-धीरे समाज इन्हें रास्ता छोड़ देगा लेकिन इसके लिए कुछ संघर्ष होगा, जानें जाएगीं, सुख का बलिदान होगा।" 
"इसे कहते हैं। निश्चेष्टवाद।"
''शायद।"
"टालिए नहीं। आप तो रिश्तेदारों, समाज को छोड़कर दुनिया, के दूसरे छोर पर चले जा रहे हैं तब फिर क्यों...'' अभिमन्यु हंसने लगा। बोला, "तुम सिर्फ मेरा पहलू ही को क्यों देख रहे हो? एक और पहलू भी तो है? उधर भी तो इच्छा अनिच्छा का प्रश्न है।"
"इसी जगह पर तो मेरा आपसे विचार मेल नहीं खा रहा है। मैं अगर आग में कूदना चाहूं, रोकेंगे नहीं आप? चंचला अगर जहर खाना चाहे, खाने देंगे? फिर...जो आपका सबसे ज्यादा प्यारा है, जिसके प्रति आपका कर्त्तव्य का दायित्व सबसे ज्यादा है, उसे ही पतन के रास्ते पर धकेल देंगे?''
"यहां भी तो बालिग नाबालिग का प्रश्न उठता है भाई।"
"यह सब आपकी लोगों को मूर्ख बनाने वाली बातें हैं।" कहकर नाराज होकर सुरेश्वर उठ खड़ा हुआ।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book