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नारी विमर्श >> मंजरी

मंजरी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6387
आईएसबीएन :0000000000

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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....


लेकिन वह ज्यादा देर तक गुस्सा न रह सका।
रात को सोते वक्त फिर बहस छेड़ बैठा।
वैसे तो हंसमुख हल्के स्वभाव के इंसान है लेकिन जब बोलता है तब चिंतनशील व्यक्ति जान पड़ता है। अभिमन्यु विरोध कम ही कर रहा था। स्वर भी धीमा था। सुरेश्वर अकेले ही वाद-प्रतिवाद करता रहा, "इंसान क्या इतना ही सस्ता है अभिमन्यु दा? जो जरा गंदा हुआ, धूल पड़ी और रिजेक्ट कर दिया? आज के युग में हमारा जीवनबोध, हमारा सत्यबोध, क्या अतीत के अंधकार में रास्ता टटोलता फिरेगा? इंसान एक मूल्यवान वस्तु है, इतनी सी बात जान जाए तो दुनिया भी ढेर सारी समस्याएं कम हो जाएं।"
सुरेश्वर कहता रहा, "जो युग हमारे दरवाजे तक आ गया है उसे अस्वीकार करने का कोई उपाय तो है नहीं। जिस सभ्यता को हम निमंत्रण देते आए हैं, उसका दायित्व अब न लेना कहां तक ठीक होगा?"
अभिमन्यु बोला, "देखो सुरेश्वर, मैं मानता हूं इंसान समाज का एक अंश है लेकिन केवल इतना ही नहीं है। हर किसी व्यक्ति का एक संपूर्ण अलग जीवन है और हमारा कारोबार उसी को लेकर है।"
सुरेश्वर कुछ नाराज होकर बोला, "आप तो बहुत हिंदू शास्त्र मानते हैं, क्या इस बात को नहीं मानते हैं कि पति-पत्नी का संबंध जन्म जिंदगी का हैं।" 
"मैं यह नहीं मानता हूं कि पति-पत्नी का रिश्ता जन्म जिंदगी का है।" 
"नहीं मानते हैं?" सुरेश्वर ने बड़ी-बड़ी आंखों फाड़कर देखा।
"नहीं। इसकी वजह ये है कि हिंदू शास्त्रों में बहुविवाह की जो प्रथा है उसे भी मैं नहीं मानता हूं। पर यह जरूर मानता हूं सुरेश्वर कि अगर जन्म जन्मांतर जैसे संबंध की कोई बात मानी जा सकती है तो वह है पहला प्यार और पहला प्रेमास्पद।" मुस्कराकर आगे अभिमन्यु ने कहा, "दूसरे जीवन में जिससे भेंट हो जाए तो लगे कि 'यही है वह'। जैसे चंचला को देखकर तुम्हें लगा।"
"सुना था आप लोगों ने 'लवमैरिज' किया था। अवश्य ही तब पहली बार देखते ही लगा होगा 'यही है वह'। तब फिर? वह लव, नुकसान के खाते में कैसे चला गया? वह प्रेम का बंधन टूट कैसे गया?"
पल भर चुप रहने के बाद अभिमन्यु ने कहा, "कोई भी 'लाभ' नुकसान के खाते में नहीं चला जाता है सुरेश्वर। सचमुच का प्यार टूटता नहीं है केवल प्रतिकूल परिवेश में फंसकर उसका रूप बदल जाता है। लेकिन वह क्या खत्म हो जाता है? मैं क्या फिर कभी किसी को प्यार कर सकूंगा?"
आखिरी प्रश्न उसने इतने अनमने ढंग से किया कि लगा खुद ही से पूछ रहा हो।
फिर भी सुरेश्वर गुस्से से बोला, "नहीं कर सकेंगे यह बात आप जोर डालकर कह सकेंगे क्या अभिमन्यु दा? यह बात भी तो परिवेश पर निर्भर करती है।" 
"शायद फिर भी प्यार में नुकसान जैसी कोई चीज नहीं है। जैसे मेरा तुम्हारा प्रेम...तुमने मुझे रास्ते से उठाया और इतना प्यार करने लगे। लेकिन आज अगर तुम्हारे साथ मेरा मतांतर हो और तुम मेरा त्याग कर दो फिर भी तुम मुझसे ये दिन तो वापस नहीं ले सकोगे? ये दिन तो मेरे पास ही रहे न? ये दिन अमूल्य हैं। अगर बाकी के दिनों में तुमसे भेंट नहीं हुई तो तकलीफ होगी लेकिन यह जीवन खो नहीं जाएगा।"
अभिमन्यु मेज पीट-पीटकर तर्क नहीं करता है इसलिए शायद उसे तर्क में हराना मुश्किल है। उसके लिए 'विश्वास' ही एकमात्र सत्य है।
यद्यपि सुरेश्वर हार नहीं मानता है। लेकिन समस्या का समाधान भी नहीं होता है।
अभिमन्यु स्वीकार करता है कि उसने गलती की है। मंजरी के भले बुरे की जिम्मेदारी से मुंह फेर लेना उचित नहीं था। उस गलती का मुआवजा कुछ कम नहीं भरा है पर उस भूल को अब सुधारा नहीं जा सकता है। बाकी बची जिंदगी के लिए अभिमन्यु ने नए सिरे से कर्म तपस्या की बात सोची है।
लेकिन अगर मंजरी अपनी गलती को समझकर वापस लौट आना चाहे तो? मेरा दरवाजा खुला है, और हमेशा खुला रहेगा।
क्यों फिर अभिमन्यु क्यों नहीं उस खुले मन और खुले दरवाजे को लेकर आगे बढ़ जा रहा है? मंजरी को अपनी तपस्या का रास्ता क्यों नहीं दिखा रहा है?
"ऐसा नहीं हो सकता है।"
सुरेश्वर कहता है, "गलती सुधारने का रास्ता कभी बंद नहीं होता है।"
अभिमन्यु हंसता है।
"सुधारने की प्रवृति हर एक की अलग-अलग होती है।''
अतएव एक तर होने लगी विवाह की तैयारी दूसरी तरफ प्रवास यात्रा की तैयारी। हालांकि अभिमन्यु अपने ही घर में रह रहा था जहां केवल सेवक श्रीपद ही सहारा था।

तीन महीने की तनख्वाह और अतिरिक्त सौ रुपये मालती के हाथ में देकर वनलता बोली, "तू अगर घर जाना चाहती है तो कुछ दिनों के लिए हो आ मालती। वरना जितने दिनों तक दूसरा कोई काम नहीं मिलता है, इसी से काम चलाना।''
मालती ने कातर भाव से भीगी आंखों को पोंछा।
"तुम जो मुझे भी जीवन भर के लिए विदा कर दोगी, अपने साथ नहीं ले जाओगी, यह मैंने सोचा नहीं था दीदी। मैंने कौन सा अपराध किया है?"

"तेरा क्या अपराध होगा?'' वनलता बोली, "तुझे जब तक विदा नहीं करूंगी तब तक 'वनलता राक्षसी' विदा न हो सकेगी। तू उसे भूलने न देगी-जिला रखेगी। इसीलिए मथुरा, वृंदावन, द्वारिका रामेश्वरम जहां भी जाऊंगी 'वनलता' मेरे साथ-साथ धावा करती फिरेगा, मुझे मुंह चिढ़ाएगी।"
मालती ने आंखें रगड़ते लाल कर डालीं। बोली, "पता नहीं दीदी, किस बात से क्या हो गया अचानक। न जाने किसी ने जादू टोना तो नहीं कर दिया। आजकल में तुम्हारी बातों का मतलब नहीं समझ पाती हूं। न कहना न सुनना, अचानक न जाने क्यों यौवन में जोगन का वेश पहन बैठीं। यह सब क्या अभी करता है आदमी? तीर्थ धरम करने के लिए तो सारी उम्र पड़ी है। वह नई दीदी, अरे वही मंजरी दीदी तुम्हारे आश्रय में आकर तुम्हारा राजपाट देखकर ईर्ष्या-ईर्ष्या में दो दिन के भीतर कितना नाम कर लिया। और तुम हो कि जान-बूझकर, वही राजपाट छोड़ सिर्फ थान धोती पहन तीर्थवासिनी होने जा रही हो? देखकर मेरे तो प्राण रो रहे हैं दीदी।"
वनलता जल्दी से बोली, "दुहाई है, तू और चाहे जो करे पिनपिन करके रो मत। चुप हो जा। और ले ये हार ले ले, अपनी लड़की को देना।"

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