नारी विमर्श >> मंजरी मंजरीआशापूर्णा देवी
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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....
थियेटर के मैनेजर सिर पकड़कर दौड़े आए बोले, "अरे सर्वनाश यह क्या सुन रहा हूं?
तुम क्या मुझे मार डालना चाहती हो? तुम चली गईं तो मैं किसके बलबूते पर
थियेटर चलाऊंगा?''
हंसी वनलता।
बोली, "राजा के बिना राज्य चलता है और मेरे बिना आपका थियेटर नहीं चलेगा? एक
राजा जाएगा तो दूसरा राजा आएगा...''
"आएगा तो लेकिन मेरी खोपड़ी में जितने बाल बचे हैं वह सब गिर जाएंगे। कुछ
दिनों बाद ही तो हमारा 'नव गौरांग' का चार सौ नाइट का प्ले है। कम-से-कम ये
थोड़े दिन...''
वनलता हाथ जोड़कर बोली, "माफ कीजिएगा मैनेजर साहब संभवत: आपके ये चार सौ नाइट
की रातों से बचने के लिए ही भाग रही हूं। हम ठहरे अभिनेत्री हमारे खून में
नित्य नए का नशा है। हर रात, एक ही शो, एक ही वधू और उसका बासर गृह, अब असह्य
लग रहा है। मेरा दम घुटने लगा है।"
मैनेजर आश्वासन देते हुए बोले, "अरे भई, नई कहानियां क्या नहीं होगी? आज भी
लोग इस नाटक का टिकट नहीं पा रहे हैं, वापस लौट रहे हैं, मैं इसे कैसे बंद कर
दूं?"
"बड़ी मुश्किल है। बंद क्यों करेंगे? लेकिन जब तक आपकी नई कहानी शुरू होगी
क्या पता मर चुकी होवूंगी।"
अब मैनेजर अविश्वास के स्वर में बोले, "सिर्फ क्या इसीलिए तुम थियेटर करना
छोड़ रही हो वनलता?"
"किसने कहा छोड़ रही हूं?'' वनलता मुस्कराई। बोली, "यह भी तो थियेटर करना है।
अभी तक आपके स्टेज पर वैष्णवी का स्टेज प्ले किया करती थी, अब एक-दूसरे
मैनेजर के स्टेज पर वैरागिनी का पार्ट अदा करूंगी। अभी तक आपके गैलरी में
बैठे लोगों का ध्यान आकर्षित करती रही हूं अब अपने मन को आकर्षित करूंगी। बस
इतना ही फर्क होगा।"
फिर भी मैनेजर ने बहुत समझाया, हाथ जोड़े। बदले में वनलता ने कई-कई बार हाथ
जोड़े। अंत में वे सज्जन मन-ही-मन गालियां देते हुए चले गए।
अब वनलता कागज कलम लेकर एक चिट्ठी लिखने बैठी। लिखा मंजरी को।
लिखा, "पता नहीं क्यों, जाते वक्त तुझे एक बार देखने की बड़ी इच्छा हो रही है।
सुनकर हसेगी तो नहीं-मैं अभी गले में तुम्हारी की माला डालकर जा रही हूं
वृंदावन। अनपढ़ मूर्ख हूं ठीक से समझा न सकूंगी, फिर भी बहुत सोचने के बाद
क्या समझ सकी हूं पता है? मनुष्य की अंतरात्मा हमेशा के लिए धूलमिट्टी लेकर
भूला नहीं रह सकता है। वह लगातार, जो अच्छा है जो सत्य है, पवित्र है उसके
लिए सिर पीटता रहता है। थियेटर में काम करते-करते मैं शायद थियेटर वाली भाषा
बोल रही हूं-है न? खैर तेरे से क्या शर्म? लगता है, शायद आनंदकुमार निशीथ राय
भी इसी दौर से गुजर रहे हैं। फर्क इतना है कि समझ न सकने की वजह से गलत
रास्ता पकड़कर भाग रहे हैं। इसीलिए कहती हूं कोई किसी पर आरोप लगा कैसे सकता
है? किसने हमें उस विचारक के आसन पर बैठाया है? फैसला न सुनकर हमने विश्वास
का रास्ता पकड़ा होता तो अब तक शायद सब कुछ आसान हो जाता।"
सोचा था, आगे लिखेगी "त्याग और पवित्रता, इसके आगे हार मानना ही पड़ता है
सबको। अगर इनकी नौकरी छोड़कर मैं किसी और कंपनी में काम करने जाती तो अवश्य
ही ये मैनेजर मुझे गुंडे भेजकर मरवा डालता। इस क्षेत्र में केवल मन मारकर रह
जाना पड़ा है उसे। यही है इंसान की प्रकृति," लेकिन इतनी बातें उसने लिखी
नहीं। लिखने की आदत न होने की वजह से अंगुली में दर्द होने लगा।
बंबई से कलकत्ता।
ट्रेन से आने में भले ही वक्त लगे, हवाई जहाज से आने में कुछ घंटे मात्र न?
उड़कर वनलता को क्या पकड़ न सकेगी? कह न सकेगी कि यह दीक्षा तुम मंजरी को भी दो
न?
चिट्ठी हाथ में लेकर मंजरी नंप्रकाशजी के पास गई। चिट्ठी लिफाफे से निकाले
बिना ही बोली, ''एक विशेष सहेली बहुत बीमार है, जाना ही पड़ेगा। आज हो जाए तो
आज ही।''
''प्लेन में।''
''अवश्य ही।''
खीजकर नंदप्रकाशजी ने व्यंग किया, ''पैसेज जुगाड़ करना इतना आसान नहीं है।''
मंजरी ने विनीत भाव से कहा, ''अगर नितांत ही दिक्कत हो तो कल के लिए देख
लीजिए। आप स्वयं कोशिश करेंगे तो कोई दिक्कत नहीं होगी।''
आसानी से काम होने के पीछे रुपया है।
सारी इच्छापूर्ण का यही मंत्र है।
हर जगह इस मंत्र को पढ़ा जा सकता है और रास्ता आसान किया जा सकता है।
दूसरे दिन भोर के प्लेन से आकाश में उड़ान भरी मंजरी ने।
वह भी वनलता से एक बार मिलना चाहती थी।
लेकिन नहीं। सारी इच्छाएं रुपये से पूरी नहीं होती हैं। आकर देखा वनलता के
फ्लैट में ताला लटक रहा है। कल ही उसने फ्लैट छोड़ दिया था और न जाने कहां चली
गई थी। पुराना चौकीदार मिल गया, सलाम करते हुए बोला, ''नहीं, अपना कोई पता
नहीं छोड़ गई हैं वनलता।''
स्तब्ध खड़ी बंद ताले की ओर देखती रही मंजरी। दरवाजा बंद था। यही तो उसके
भाग्य का प्रतीक भी था। उसकी दुनिया का रूप कुछ ऐसा ही है।
कितने दिनों के लिए कलकत्ता छोड़कर चली गई थी मंजरी? थोड़े दिन ही तो हुए हैं।
फिर भी सड़क पर चलते हुए चारों तरफ नजर दौड़ाने पर मंजरी को लगा कितने युग
युगांतर के बाद फिर से स्वर्ग में आ गई है। कैसा अपूर्व दृश्य था चारों ओर।
कॉलेज स्ट्रीट, कालीतला, मेडिकल, कॉलेज, बगल की वह किताबों की
दुकान-विवेकानंद रोड के मोड़ का बसस्टॉप, शर्बत की दुकान, स्टेशनरी की दुकान,
सब जहां की तहां हैं। आश्चर्य की बात तो ये है कि सभी मानो परिचित आत्मीय की
तरफ हंसकर स्वागत कर रहे हैं, ''अरे आओ आओ, कहां थी अब तक?''
सच, कहां थी इतने दिनों तक मंजरी?
वह क्या एक शहर था? या कि पूरा का पूरा स्टूडियो था? मंजरी के लिए तो सारा
देश ही ममताहीन, प्राणहीन है। सारा का सारा अखंड स्ट्रडियो का रूप धारण कर
चुका है। इससे ज्यादा कुछ नहीं।
और यहां सर्वत्र जीवन है, जीवन का स्पर्श है। यहां मंजरी की सारी सत्ता अणु
परमाणु के रूप में घुल मिल गई है। यहां आशा जागती है-शायद फिर से जीया जा
सकता है। शायद अभी भी यहां मंजरी के लिए स्थान है।
बड़ी देर से टैक्सी ड्राइवर टैक्सी चला रहा था। पीछे से न प्रतिवाद आया था, न
किसी ने सड़क का निर्देश दिया था। अब उसने खुद ही प्रश्न पूछा कि जाना कहां
है?
और उसी असर्तक मुहुर्त में मंजरी ने जो पता बता दिया, एक मिनट पहले तक क्या
उसने सोचा था कि वहां जाएगी?
मकान से निकला तीर और मुंह से निकली बात-वापस नहीं लौटती है।
लेकिन उस विशेष मोड़ से पास पहुंचते ही सांस रुंधने लगी, वापस लौट चलने के लिए
कहना चाहा तो चिल्ला उठी, ''मोड़ो मोड़ो इधर नहीं।''
''तब किधर?''
टैक्सी की गति धीमी करके खोजते हुए पूछा, ''आप ठीक से सोचकर बता दें कि कहां
जाना है।''
इस धीमी गति का फायदा उठाया मंजरी। खिड़की से सिर बाहर निकालकर चोरी से देख
सकती है उस पुराने तिमंजिले मकान के दुमंजिले के कमरे खुले है या नहीं,
खिड़कियों से रोशनी दिखाई पड़ रही है या नहीं। घर के मालिक तो वापस लौट आए हैं।
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