नारी विमर्श >> मंजरी मंजरीआशापूर्णा देवी
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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....
''छोटी भाभीजी हैं न?''
चौंककर सिर खिड़की से भीतर कर लेने के बाद मंजरी ने साहस बटोरकर फिर सिर बाहर
निकाला, ''कौन, श्रीपद?''
श्रीपद अचानक मंजरी को देखकर उच्छवसित हो उठा था और इसीलिए 'छोटी भाभी' पुकार
बैठा था। अब संभलकर बोला, ''आप यहां आईं हैं क्या?''
कंठ स्वर में व्याकुलता और आग्रह झलकता है तो झलके जवाब तो उसे देना ही है,
''आई थी इधर। अरे सुनो सुनो, यह बताओ तुम लोगों का हाल-चाल अच्छा तो है?''
श्रीपद ने कठिनाई से हंसकर कहा, ''जी, वैसे तो एक तरह से सभी ठीक हैं। मां तो
उस दिन से मझले भइयाजी के घर में ही हैं और छोटे भइयाजी अब तक भारत का कोना
कोना छान लेने के बाद जा रहे हैं, अमेरिका। अब तो इतने बड़े मकान का राजा हूं
मैं-श्रीपद।''
खड़े रहकर दो चार बातें करने की दुर्दमनीय इच्छा को दमन कर श्रीपद आगे बढ़ने
लगा। नौकर है तो क्या हुआ, अपने लालचीपन का प्रदर्शन तो नहीं कर सकता है न?
मंजरी ने फिर एक बार व्यग्र भाव से पूछा, ''तुम्हारे गांव में सब कोई ठीकठाक
हैं न?''
जैसे इसी चिंता से घुली जा रही है मंजरी।
श्रीपद ने उदासीन भाव से कहा, ''हूं।''
''ये पकड़ो, अपने बेटे को मिठाई खाने के लिए देना।''
दो दस रुपये के नीट बढ़ा दिए मंजरी ने।
श्रीपद ने चौंककर दांतों के बीच जीभ दबाई। वह यह सब नहीं ले सकता है-यह सब
क्या कर रही हैं? अभी वह गांव जा कहां रहा है?
लेकिन आपत्ति ज्वार के बीच न जाने कैसे वह दोनों नोट श्रीपद की जेब में घुस
भी गए।
''अमेरिका क्यों श्रीपद?''
''सुना है नौकरी करने। इतने बड़े भारत भूमि में उन्हें नौकरी नहीं मिली-ऐसा
कैसे हो सकता है? असल में यह है देशत्याग।''
''कब जा रहे हैं?''
''कल।''
दूर से दिखाई दे रहा था। तेज कदमों से आते-आते दृश्य बदल गया। तब तक टैक्सी
काफी आगे बढ़ गई थी।
श्रीपद उसी तरह खड़ा था।
विस्मित अभिमन्यु ने पूछा, ''किसकी मोटर रोककर बातें कर रहा था रे श्रीपद?''
सीने के पास नए वोट खड़खड़ा रहे थे।
सीने पर हथौड़े की चोट पड़ रही थी।
फिर भी निश्चित भाव से श्रीपद बोला, ''मैं क्यों रोकूंगा एक जना पूछ रहे थे
मुक्ताराम बाबू की लेन किधर है?''
''ओ।''
और क्या हो सकता है? सच, प्रत्याशा इंसान को कितना मूर्ख बना देती है?
पहचाना चौकीदार था। ढेर सारा इनाम पाने की लालच में आकर उसने वनलता का फ्लैट
खोल दिया। कमरे में कदम रखते ही मंजरी को जैसे किसी ने धक्का मारा। कैसी
भयावह शून्यता। कहीं कुछ नहीं। घर का सारा सामान बांटकर बेचकर घर खाली करके
चली गई थी वनलता। मंजरी के मन के उपयुक्त ही था घर।
न, एक चीज थी। शायद वनलता की नहीं थी। घर के मालिक की एक खाट। यही बहुत है।
कमरे का दरवाजा भीतर से बंद करके रो सकेगी। शराबी का रोना नहीं। वेदना से भरा
अश्रुजलहीन गहरी रुलाई।
बड़ी देर बाद उठकर बैठी मंजरी। ध्यान लगाकर जाप करने लगी, ''हे ईश्वर, साहस
दो। मुझे आगे बढ़ने का साहस दो, अपमान सहन करने का साहस, मृत्यु की गुफा से
सिर उठाकर पुनः जीवन पा लेने का साहस।''
अपने आपसे प्रश्न पूछ-पूछकर क्षत-विक्षत करके देख चुकी है मंजरी, जांच चुकी
है खुद को। पहुंची है अंतिम सिद्धांत पर। अभिमन्यु को अस्वीकार कर जीना
अर्थहीन है। अभिमन्यु को जीवन से निकाल दिया तो मंजरी की दुनिया में कुछ नहीं
है। वह दुनिया गूंगी है, वेस्वाद और मृत है।
अभिमन्यु के अहंकार और ईर्ष्या को केंद्रित कर अभी तक मंजरी विभोर थी।
उच्छृंखलता का आनंद, ध्वंस का आनंद-उसी में डूबी थी। अभिमन्यु को 'दिखा देने'
के लिए ही ख्याति और अर्थ के घिनौने और कुत्सित बोझ को बटोर लेने का यह
निर्लज्ज प्रयास था।
और आज अभिमन्यु के पास जाकर अपने को समर्पित कर देने की यह इच्छा, यह
अंतरात्मा का सिर पीटना-
तब फिर लज्जा अभिमान के लिए समय कहां है मंजरी के पास?
''कौन?''
चौंककर मुंह घुमाया अभिमन्यु ने। दोबारा अस्फुट स्वरों में पूछा, ''कौन?''
सामने के पर्दे पर एक तस्वीर उभर आई।
निर्वाक, निश्चल।
शायद जीवंत होने के लिए शक्ति संग्रह कर रही थी।
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