नारी विमर्श >> मंजरी मंजरीआशापूर्णा देवी
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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....
बिजली की रोशनी में सांवला चेहरा सफेद दिखाई पड़ रहा था। बिस्तर छोड़कर
अभिमन्यु उठकर खड़ा हो गया। फिर उसके मुंह से अस्फुट स्वर निकला,
''मंजरी।''
तस्वीर धीरे-धीरे चलकर पास आई, झुककर प्रणाम किया।
अब जाकर सचतेन हुआ अभिमन्यु। स्निग्ध कोमल स्वर में बोला, ''बैठो।'' एक
कुर्सी खींचकर जरा सा खिसका दी।
ज्यादा देर तक खड़े रहने की क्षमता नहीं थी, मंजरी इसीलिए बैठ गयी। मुंह से एक
शब्द नहीं निकला। उसकी बड़ी-बड़ी आंखों को देखकर लग रहा था अभी झझराकर बरसने
लगेंगे। होंठ कांप रहे थे, सीना जोरों से उठ बैठ रहा था, हाथ की अंगुलियां तक
थरथर कांप रही थीं।
लेकिन नहीं, ऐसा कुछ नहीं हुआ। न कुछ फट पड़ा, न कुछ उफन पड़ा। अभिमन्यु को
उसने परेशान नहीं किया। केवल आंखें झुकाकर गर्दन घुमाए दूसरी तरफ मुंह फेरे
बैठी रही।
अभिमन्यु ने उसी ममता भरी आवाज में धीरे-धीरे कहा, ''अचानक यहां आने की
तुम्हारी इच्छा क्यों हुई। मैं यह प्रश्न तुमसे नहीं पूछूंगा मंजरी। केवल ऐसा
लग रहा कि भगवान कभी-कभी हमारी बात भी सुन लेता है। जाने से पहले तुम्हें एक
बार देखने की बड़ी इच्छा थी।''
क्यों ये करुणा? क्यों ऐसा ममता भरा कंठ स्वर?
मंजरी तो प्रस्तुत होकर आई थी कि सारा मान अभिमान विसर्जित कर कहेगी, ''मुझे
अपने साथ ले चलो।'' आंखों में पानी नहीं आने देगी, आवाज को लड़खड़ाने न देगी
केवल कहेगी, ''मुझे अपने साथ ले चलो।''
केवल यही चार पांच शब्द।
सहस्र बार इसी मंत्र को जाप किया था। सहस्रों बार मन-ही-मन उच्चारण किया था।
सोचा था कहने के लिए कोशिश करने की जरूरत नहीं होगी, भीतर उच्चारित हो रही
ध्वनि बाहर स्वयं ही निकल आएगी। पर नहीं हुआ।
उसके बदले क्षीण रुद्धकुंठ से यह प्रश्न निकला, ''उतनी दूर जाना क्यों पड़ रहा
है?''
''दूर और पास क्या? जहां कहीं भी रहने से मतलब है।''
वह तो है।
लेकिन किससे दूर जा रहे हो?
अभिमन्यु ने फिर पूछा, ''कब आईं?''
वह मन-ही-मन सोच रहा था सुरेश्वर ने असाध्य काम किया है, इसे शादी में बुलाया
है।
''कल।''
''वे लोग अच्छे तो हैं?''
''कौन?''
अवाक् होकर मंजरी ने पूछा।
''चंचला लोग।''
''उनकी बात तो मुझे मालूम नहीं।''
''ओ! तो फिर जाने वाली बात किसने बताई?''
''श्रीपद ने।''
''श्रीपद?'' तुरंत सुबह टैक्सी खड़ी करके बात करने वाली घटना याद आ गयी। सारी
बात साफ हो गयी। सुबह ही आई थी मंजरी। उसके दरवाजे पर आकर खड़ी हुई थी। श्रीपद
ने भगा दिया था। जरूर यही हुआ होगा। मन ममता से भर गया। फिर भी मंजरी दोबारा
आई है। क्यों? क्षमा मांगने? विदा करने? सोचा बहुत कुछ लेकिन पूछा कुछ
नहीं।''
मंजरी शायद प्रतीक्षा कर रही थी, कर रही थी आशा। शायद सोच रही थी अभिमन्यु
पूछेगा, ''तुम क्यों आई हो मंजरी-बताओ।''
नहीं-अभिमन्यु चुप रहा। कुछ पूछा नहीं।
जबर्दस्ती सारी झिझक को एक तरफ ठेलकर हटाते हुए मंजरी पास आई। खूब पास। बोली,
''मुझे अपने साथ लेना क्या एकदम ही असंभव है?''
क्षण भर के लिए चौंक उठा अभिमन्यु।
चौंककर उसने मंजरी के मुंह की तरफ देखा। देखा, सामने की दीवार की रोशनी आकर
उसके बालों पर, माथे पर, बांहों पर पड़ रही थी। ठीक जैसे बहुत दिनों पहले पड़ा
करती थी-रात को सोने से पहले जब कभी-कभी थोड़ी देर के लिए वहां रखी बेंत की
कुर्सी पर बैठती थी और बैठते न बैठते उठ खड़ी होती थी। वैसे ही छोटे-छोटे बाल
माथे पर उड़ रहे थे, वैसे ही पतले लंबे सुंदर गले में एक पतला सा सोने का चेन
पड़ा था। वैसी ही सुकुमार भंगिमा।
गर्दन घुमकर कमरे को देखा। ठीक वैसा का वैसा है।
कहीं कोई परिवर्तन नहीं। किसी ने नए सिरे से इस कमरे को सजाया नहीं था। दीवार
के पास रखी किताबों की रैक और कमरे के बीच में रखी मेज आज तक अपनी जगह से
हिली नहीं है। हवा से खिड़की के पर्दे उड़ रहे थे। कहीं कोई फर्क नहीं-कोई हटा
नहीं सिवाय मंजरी के।
अभिमन्यु मन-ही-मन सोच रहा था और कह रहा था, ''मंजर इतनी देर
से आईं तुम? जब सारी संभावनायें ही समाप्त हो गईं?''
मुंह से बोला-धीरे से, ''ऐसा कैसे हो सकता है?''
''किसी तरह से भी नहीं हो सकता है?''
थोड़ी देर चुप रहकर उत्तर दिया, ''अब समय कहां है? इतने देर से आईं तुम।''
मंजरी प्रतिज्ञा करके आई थी किसी कीमत पर विचलित नहीं होगी और इसीलिए स्वच्छ
दो ठंडी आंखों से देखकर बोली, ''तुमने भी तो कभी बुलाया नहीं।''
हां-ठीक कह रही है। अभिमन्यु ने भी नहीं बुलाया था कभी। पीछे छूट गए अतीत की
ओर एक बार मुड़कर देखा अभिमन्यु ने। वहां क्या संचित था? घृणा? वितृष्णा?
नहीं-वहां था केवल सर्वग्रासी शर्म की यातना। उसी यातना के हाथ से बचने के
लिए सिर्फ कोशिश की थी यहां से भागने की-घर छोड़ कर, रिश्तेदारों को समाज को
छोड़कर, देश छोड़कर। दुनिया के दूसरे छोर पर चले जाने की ही कोशिश की थी।
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