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नारी विमर्श >> मंजरी

मंजरी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6387
आईएसबीएन :0000000000

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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....


जवाब देना भूलकर अभिमन्यु खिड़की से बाहर देखता खड़ा रहा। गहन चिंता में डूबा। लग रहा था उड़ते पर्दे की भाग दौड़ देख रहा है गौर से।
दीवार घड़ी टिक-टिक करती पल-पल आगे बढ़ रही थी।
''जाती हूं।''
थोड़ा सा हट गई मंजरी।
चली जाएगी? चली जाएगी अभी? खो जाएगी वही तस्वीर इतनी जल्दी? अभी सब सूना हो जाएगा, खाली हो जाएगा। फिर किसी दिन इस कमरे में उसकी छाया नहीं पड़ेगी?
इन्हीं आंसू भरी आंखों को और भी नीचे झुका कर, सिर नवाए कमरे से बाहर चली जाएगी। उतर जाएगी सिढ़ियां और सीढ़ियों से रास्ते पर। रह जाएगी क्षीण भीरु पदध्वनि...रास्ते के अरण्य में खो जाएगी यह हल्की काया।
कितना अद्भुत होगा वह खो जाना।
जबकि चाहे तो अभी सब कुछ सहज स्वाभाविक हो सकता है।
लेकिन नहीं-वह नहीं हो सकता है।
चाहे कितना भी हृदय रोए ऐसा नहीं हो सकता है।
सहज हो पाना ही शायद सबसे कठिन होता है। कंधे पर पड़ा साड़ी का आंचल खींचकर गले से लपेटते हुए झुककर फिर एक बार प्रणाम किया मंजरी ने। थोड़ा झिझकी, पल पर खड़ी रही फिर धीरे से पर्दे को हटाकर बाहर निकल गयी।
''मंजरी।''
सीढ़ी के नीचे बाहरी दरवाजे के पास पहुंचते ही चौंकी मंजरी।
पीछे मुड़कर ऊपर की ओर देखा मंजरी ने। देखा व्याकुल दो आंखों की कोमल दृष्टि।
''चलो, तुम्हें पहुंचा दूं।''
जरा सा मुस्कराई मंजरी।
''अकेली ही तो आई थी।''

लेकिन यह क्या? क्या यह भूकंप है? सारे शरीर में मंजरी के यह कैसी हलचल है?
नहीं-भूकंप नहीं, कंधे पर हल्का सा एक हाथ का स्पर्श मात्र है।
हाथ का अधिकारी भी कांप रहा था।
''अकेली ही तो आई थी''-ठीक कहा है। अकेली ही आई है वह। फिर अकेली चली जाएगी इस रात के आगोश में फैली ठंडी-ठंडी सड़क पर चलकर। धीरे स्थिर पुरुषहृदय में भी हलचल मची।
''मंजरी चलो,'' आग्रह भरे व्याकुल स्वरों में बोला अभिमन्यु, ''मेरे साथ ही चलो। नए परिवेश में, नए परिचय से, चलो हम फिर से जीवन शुरू करें। नए ढंग से जीएं।''
क्षण भर के लिए मंजरी स्तब्ध खड़ी रह गयी। फिर धीरे-धीरे बोली, ''नहीं। भागकर नया जीवन जीने की बात तो हार मान लेना है। मैं हार मानना नहीं चाहती हूं। पुरानी परिचय के साथ, उसके बीच रहकर ही नए सिरे से जीना चाहूंगी मैं। पहले समझ नहीं सकी थी इसीलिए आकर तुम्हें तंगकर गयी।''
''मंजरी।''
सीढ़ी की रेलिंग पर रखा था मंजरी का दाहिना हाथ। उस पर अभिमन्यु ने अपना एक हाथ रखा। हृदय का जोश, उस आवेगपूर्ण स्पर्श के मध्य सीमित था।
''मंजरी! मैं नहीं जाऊंगा।''
मंजरी ने उस लाल पड़ गए उच्छवसित चेहरे की तरफ देखा, स्मरण किया अपनी अविचलित रहने की प्रतिज्ञा को।
अभिमानरहित शांत स्वर में बोली, ''ऐसा नहीं हो सकता है। ताव में आकर इतनी बड़ी कीमत देने की बात मत करो। इससे कष्ट होगा। करुणा नहीं, दया नहीं, केवल अपने प्रयोजनवश अगर कभी बिना झिझक पुकार सको...तो...मैं उस दिन का इंतजार करूंगी।''
''विश्वास मानो मंजरी, मुझे कहीं किसी तरह की द्विविधा नहीं है। केवल तुम ऐसे वेवक्त आईं...''
मंजरी ने धीरे से अभिमन्यु के हाथ को अपने हाथ में लेते हुए कहा, ''विश्वास कर रही हूं। मैं अब ठीक वक्त के लिए तैयार रहूंगी।''
''तो अब तुम क्या करोगी?''
''अब? जो मंजरी तुम्हारे लिए लज्जा नहीं गौरव बनेगी उसके निर्माण कार्य की साधना में लगूंगी। वही मेरे कर्म की तपस्या होगी।''

विशाल पक्षीदेह लिए पूरे मैदान का एक बड़ा हिस्सा ढाके, पंख फैलाए आकाशचारी वह रथ खड़ा था। समय का संकेत मिलते ही उसमें हलचल हुए, कंपन जागा। कांपते हुए चक्राकार घूमने लगे उसके आगे के पंखे। हवा को चीरते हुए आकाश में उड़ा ले जाएंगे वे इस विशाल पक्षीदेह को।
थोड़ा-थोड़ा करके धरती छोड़ ऊपर उड़ेगा, और ऊपर जाएगा। बादलों को चीरता और ऊपर चला जाएगा।

उसी आकाशचारी रथ पर चढ़ बैठा है अभिमन्यु। दूर खड़ी देख रही थी मंजरी। केवल देखेगी वह। बहुत दूर खड़ी चेहरा उठाए देख रही थी। अनेक इसान और अनेक सामानों का बोझ उठाए कैसी आसानी से यह यंत्र आकाश में उड़ गया? इसके बाद तीव्र गति से लांघता चला जाएगा समुद्र, पहाड़ अरण्य और जन जीवन को पहुंच जाएगा दुनिया के उस प्रांत में-दूसरी तरफ।

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