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नारी विमर्श >> तुलसी

तुलसी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :72
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6390
आईएसबीएन :81-8113-018-9

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आशापूर्णा देवी का लेखन उनका निजी संसार नहीं है। वे हमारे आस-पास फैले संसार का विस्तारमात्र हैं। इनके उपन्यास मूलतः नारी केन्द्रित होते हैं...


उसके शुभाकांक्षी तब कहते हैं, 'ऐसा क्यों कहते हो ननी? फिर, घर का बोझ तुम्हारे ऊपर है, अपने भी, बे-माँ के दो छोटे-छोटे बच्चे हैं। इतना सब तुम्हीं को तो संभालना है, इन सबों के लिये तो सभी कुछ जरूरी है न?'

बात काट कर ननी कहता है, 'अब किसी के लिये भी कुछ करने का मन नहीं होता मेरा। रोटी-कपड़ा देना मेरा फर्ज है, इसलिये देता जा रहा हूँ। बस।'

चाय-बिस्कुट-सप्लाई से जो धन घर आता है, उसी से सन्तुष्ट है ननी और सन्तुष्ट है अपने दोस्तों के बर्ताव से। ये जो सुखेन, राजेन और जगाई हैं, यह लोग ननी के कौन हैं? कोई भी तो नहीं। बहुत साल पहले बंगाल छोड़, न जाने किसके-किसके जूतों की ठोकरें सहता हुआ वह जब यहाँ आया था, बिहार के इस छोटे से रेल स्टेशन में, तब हिन्दी का एक शब्द भी नहीं जानता था वह, यहाँ के किसी आदमजाद को। देखा जाये तो हिन्दी नहीं जानने वाले ऐसे लोगों की कमी नहीं इस दुनिया में, किसी तरह 'हियाँ से' 'हुआँ से ' कर के वे अपना काम चला ही लेते हैं, पर ननी से यह भी नहीं होता था। उन दुःख भरे दिनों में, पता नहीं कैसे, ईश्वर की किस कृपा से, अपनी भाषा बोलने वाले इन तीनों से मुलाकात हो गई थी। ये लोग हिन्दी तो बढ़िया बोलते ही हैं, और जब इस 'परदेस' में वे बंगला बोलते हैं तो मालूम होता है कि पानी बरस रहा है। ननी ने भी उन्हें ईश्वर की कृपा की तरह ही अपना लिया था।

वह बन्धन आज भी वैसा ही अटूट है।
ननी ने उन्हें कभी अपने से अलग नहीं किया। इन्होंने भी कभी बेइमानी नहीं की। पर जो काम उसने नहीं किया, उसे पूरा किया था ननी के भाई फणी ने।

जब ननी के पाँव जमने लगे, तब उसने घर से अपने निकम्मे भाई फणी
को अपने पास बुला लिया था। साथ ही, खाना-वाना बनाने के लिये अपनी विधवा बड़ी बहन पद्मा को भी।

पद्मा को यहाँ बुलाने का एक उद्देश्य और भी था।
घर में अगर कोई औरत न हो, तो शादी की बातचीत कैसे चलेगी? शुरू कौन करेगा? अपने मन से जाकर शादी कर लेने से उसमें 'शादी वाली' महक आती है कहीं? और यह भी सच है कि उस हालत में अच्छे रिश्ते आते भी नहीं। चाय की दुकान का मालिक? सिर्फ इतना ही परिचय! लोगों के मन में सन्देह जागता है।

अब तो ऐसा कोई कह नहीं सकता? घर में बड़ी बहन है, भाई है छोटा एकदम फली-फूली गृहस्थी वाला। अब उसे जो देखेंगे, लड़की देने को उत्सुक होंगे। ननी का यह हिसाब बिल्कुल सही साबित हुआ था। शादी उसकी भले घर में ही हुई थी। और लड़की वाले उसकी बहन पद्मा के कारण ही उसे लड़की ब्याहने को बढ़े थे। उसकी पत्नी कनक उसकी बहन पद्मा की दूर के रिश्ते के देवर या जेठ की बेटी थी।

बड़े गुणों वाली थी। ननी की तकदीर में इतना सुख बदा नहीं था। दो छोटे-छोटे बच्चे छोड़ 'फटाक ' से मर गई वह। पद्मा ने बहुत-बहुत कहा था कि बहू मर गई तो क्या हुआ? इस उम्र में यह वैराग्य कैसा? तू फिर शादी कर ले।'

ननी ने अपने हाथों अपने कान पकड़ लिये।
'नहीं। अब नहीं।'
बहुत चोट लगी है उसे।

अपनी दीदी से ननी ने बड़े ज्ञान की बात भी कही है। कहा है उसने देखो दीदी, अगर तकदीर में सुख ही लिखा होता तो वही सही-सलामत रहती। मरती क्यों? मेरी तकदीर में सुख बदा ही नहीं है, कौन क्या करेगा मेरे लिये? दुबारा शादी तो मैं कर लूँ, मगर यह गारन्टी उसे कौन देगा कि वह भी इसी तरह मर नहीं जायेगी? और फिर, रिश्ते में तुम उसकी चाची हो, मानती थी तुम्हे, इज्जत करती थी तुम्हारी। जो दूसरी आयेगी वह अगर मन्थरा की अवतार हुई तो फिर तुम्हारा हाल क्या होगा? यह सोचा है कभी?'

राद्मा ने कहा था, 'अगर वह ऐसा करेगी, तो मैं समझूँगी कि तुम्हारी शह पाकर ही ऐसा कर रही है। तुम मर्द हो, अगर अपनी औरत को बेलगाम छोड़ दोगे, तो लानत है तुझ पर।'

उदास हो ननी कहता, बात तो तुम्हारी ठीक है दीदी, पर दूसरे के घर से लड़की लाकर उसकी लगाम खींच उसे सीधी करने की मुझे जरूरत ही क्या है? और फिर ऐसा करने की न मेरे मन में इच्छा है, न शक्ति।'

आखिरी कोशिश के रूप में पद्मा ने कहा था, क्या तूने यह सोच रखा है कि जीवन भर मैं ही तेरे बिना माँ के बच्चों की सेवा करती रहूँगी?'
और उदास हो ननी ने जवाब दिया था, करने का मन नहीं है तो मत करो। यतीम खाने भेज दूँगा दोनों को।'
बाप के रहते उन्हें तू यतीम कहेगा?'

'क्या हर्ज है? तुम ही लोग तो कहती हो कि, माँ के मर जाने पर बाप मौसा हो जाता है। उसी सूत्र को पकड़ मैं भी कहूँगा।'
खिसिया गई दीदी। खीझ कर बोली, 'गलती हुई मुझसे जो मैंने तुझसे शादी की बात कही।'

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