नारी विमर्श >> तुलसी तुलसीआशापूर्णा देवी
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आशापूर्णा देवी का लेखन उनका निजी संसार नहीं है। वे हमारे आस-पास फैले संसार का विस्तारमात्र हैं। इनके उपन्यास मूलतः नारी केन्द्रित होते हैं...
'उससे भी बड़ी गलती है, बीवी मर जाने पर दुबारा शादी करना।' कहा था। ननी ने।
'वेद या पुराणों में सुना है तुमने कि कहीं किसी की सौतेली माँ ने आकर
सेवा-टहल की है?'
'सुना क्यों नहीं। बहुतेरा सुना हैं, कहती पद्मा बहन के लिये।
ननी ने कहा, 'तकदीर वाली हो तुम, जो देवी के दर्शन मिले हैं तुम्हें। मेरा
परिचय तो, बस ध्रुव के पिता महाराज उत्तानपाद की दूसरी पत्नी रानी सुरुचि से
है। परिचय है महारानी कैकेयी से, और रूपकथाओं के राजाओं की प्यारी रानियों
से। उन्हें तो भाई दूर से ही नमस्कार है। मानता हूँ, तुम्हें तकलीफ होती है।
पर मैं क्या करूँ? तुम्हारे तकदीर में सुख ही होता तो फणी ऐसा हरामी न
निकलता। आज उसी की शादी कर हम तुम्हारे लिये घर सम्भालने को बहू ला देते।'
यह विशेषण फणी को अवश्य दिया जा सकता है।
बात तब की है, जब ननी की दूकान खूब चल निकली थी, इधर फणी भी जवान हो चला था,
और ननी उस दिन के ख्वाब में मशगूल था कि अब फणी उसके दूकान के कामों में हाथ
बँटायेगा, तब एक दिन फणी जी हवा हो गये।
साथ हवा हुए थे ननी की पेटी के रुपये, और ननी की बहू के जेवर।
ज्यादा तो नहीं थे। पर थे तो-कुछ न कुछ।
गले का हार था, हाथों के कड़े थे, कानों के करणफूल थे।
यह सब पद्गा ने कनक के बाप पर दवाब डालकर बनवाये थे। उनका एक रत्ती भर भी न
छोड़ा था उसने।
शेर की तरह गरजा था ननी। कहा था,'उस बेईमान को मैं जेल की चक्की पिसवाऊगा।
चला मैं थाने में रपट लिखवाने।'
तब नई नवेली दुल्हन कनक ने आकर उसका रास्ता रोका था। उसकी बाँह पकड़ अनुनय से
कहा था,'हाथ जोड़ती हूँ, घर की कलंक-कथा बाहर बता कर जग-हँसाई मत करो।' उसकी
बात सुन ननी रो पड़ा था। कहा था'तुम्हारा सब कुछ तो वह ले गया। मुझमें यह औकात
कहाँ कि दुबारा बनवा दूँ।'
'तुम्हें देना नहीं है।' कहा था बहू ने उस पर आँखें गड़ा कर, 'औरत के लिये तो
पति ही सब कुछ है, जेवर कपड़ा नहीं। अबकी जब शहर जाना, मेरे लिये नकली जेवर ले
आना।'
'सोना खोकर, नकली जेवर पहनोगी कनक?
बड़े आराम से कनक बोली, क्या फर्क पड़ता है? बल्कि अच्छा ही होगा जेवर का जेवर
होगा, चोरी जाने का डर भी नहीं। हमारे बर्द्धवान में कितने ही पैसे वालों की
बहुयें यही पहनती हैं। सोने की एकाध चीज के साथ नकली चार पाँच चीजें। उनको
कौन क्या कहता है?'
मुस्करा कर ननी ने कहा था, पैसे वालों की बहुओं को जरूर लोग कुछ नहीं कहते
हैं, मगर ननीदास की बहू को लोग इस बात पर जरूर कहेंगे।'
'कहें! मेरी बला से। छाले तो नहीं पड़ेंगे मेरे।'
बाहर का चोर अगर चोरी करता तो उसमें नुकसान भर होता, लज्जा या, अपमान नहीं,
पर घर का चोर अगर चोरी करता है तो उसमें नुकसान जो है सो है उससे कहीं ज्यादा
है लज्जा, अपमान। उसी ज्वाला के मारे ननी ने उस दिन कसम खाई थी, 'लौटने दो
उसे जो उसे मैंने फिर अपने घर में घुसने दिया तो मेरे नाम पर थूक देना।'
ननी के नाम पर थूकने का मौका मगर किसी को नहीं मिला। फणी फिर लौट कर नहीं
आया। एक कसम ननी ने और भी खाई थी, पर उसे उसने अपने मन में ही रखा था। उसने
कसम खाई थी कि वक्त आते ही बहू को सारे जेवर फिर से बनवा देगा। चाहे जितना
वक्त क्यों न लगे। मगर इस वचन को पूरा करने का मौका ही नहीं आया कभी। जितना
वक्त मिलने से वह यह वचन पूरा करता, कनक ने उतना वक्त तो उसे दिया नहीं।
परिस्थिति जब ऐसी है, तब आलू-चाप और प्याज की पकौड़ी बेच, बहुत-बहुत आमदनी
करने की प्रेरणा कहाँ से मिलेगी ननी को?
इसलिये आलू-चाप की परेशानी में न फँस, दिन भर की भाग-दौड़ के बाद, रात
गहराते-गहराते, उस टूटी चौकी पर बैठ, तुड़े-मुड़े ताशों का बण्डल ले,
टोयेन्टीनाइन खेलना कही ज्यादा अच्छा है।
स्टेशन के आजू-बाजू में बिजली की रोशनी झिलमिला रही है, पर ननी की दुकान में
अभी भी वही लालटेन ही झूलती है। गुमटी के छप्पर में ननी ने बाँस की एक खूँटी
फँसा दी है। उसी से लटकती रहती है लालटेन। अगर कोई इसके लिये टोकता है ननी
को, तो वह अकड़ कर पूछता है, 'मेरी लालटेन की रोशनी बिजली से कुछ कम है क्या?
देखो, कितना चकम रही है इसकी चिमनी।'
साफ तो वह जरूर रखता है लालटेन की चिमनी, पर झूलती लालटेन की काँपती रोशनी
में ताश खेलना इन लोगों की आदत हो गई है, इसलिये खेल लेते हैं, कोई नया
खिलाड़ी आये, तो नहीं खेल सकेगा। कुछ दिखाई ही नहीं पड़ेगा उसे।
तुलसी तो आते ही कहती है, 'इलेक्ट्रिक न ला सको, तो कम से कम एक गैस-बत्ती ही
क्यों नहीं ले लेते ननी भैया? ऐसे तो भुतही लगती है दुकान तुम्हारी।'
तुलसी ननी को ही सिर्फ नाम के साथ 'भैया' जोड़ कर पुकारती है। औरों का तो
साफ-साफ नाम लेती है।
जवाब में ननी कहता है 'भुतही यह सिर्फ तुझे ही क्यों लगती है? और कोई तो ऐसा
कभी नहीं कहता।'
'कहेंगे कैसे? वे तो आप ही भुतहे हैं।'
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