नारी विमर्श >> तुलसी तुलसीआशापूर्णा देवी
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आशापूर्णा देवी का लेखन उनका निजी संसार नहीं है। वे हमारे आस-पास फैले संसार का विस्तारमात्र हैं। इनके उपन्यास मूलतः नारी केन्द्रित होते हैं...
किस अधिकार के बल पर तुलसी इस तरह की बातें कहती रहती है, यह कोई नहीं बता
सकता, पर उल्टी-सीधी बातें कह कर भी वह बड़ी आसानी से पार पा जाती है यह सभी
जानते हैं। तुलसी की बदनामी की कोई सीमा नहीं। तुलसी की पीठ फिरते ही उसके
विषय में रंग-बिरंगी बातें शुरू हो जाती हैं। उसे आते देखते ही लोग फुसफुसाने
लगते हैं, लो, दाँत निपोरती आ गई बेशर्म!' और जो कुछ कहना चाहते हैं लोग, वह
अनकहा ही रह जाता है, पर समझते देर नहीं लगती किसी को।
है तो वह इतनी बदनाम', इतनी निन्दा योग्य', मगर मजेदार बात तो यह है कि रेलवे
कॉलोनी के जितने बंगाली परिवार हैं, उन सबों के घरों में तुलसी का आना-जाना
लगा ही रहता है। आती-जाती ही नहीं है तुलसी सब के घर, इन घरों में उसकी खूब
खातिर भी होती है। जहाँ भी पहुँचती है वह, घर की महिलायें उसे 'आ तुलसी बैठ'
कहकर बैठाती हैं, चाय पिलाती हैं, पान-सुरती खिलाती हैं, और अडोस-पड़ोस का हाल
पूछती हैं।
समाचार का भण्डार जो मौजूद रहता है तुलसी के पास।
तुलसी किसकी बेटी है, किस परिवार की लड़की है, यह सब किसी को मालूम नहीं। कुछ
साल पहले जब उसे यहाँ करणपुर में देखा गया, वह तब करीब दस साल की छोटी-सी
लड़की थी। सस्ते छीट का, एक बटन टूटा, बदरंग, छोटा-सा फ्रॉक पहने थी वह। कौवे
के घोंसले जैसे अस्त-व्यस्त बाल। धूल-गर्द से सने हाथ-पाँव।
पर सेहत? एकदम उम्दा!
कच्चे डाब की तरह चिकना चेहरा, केले के गुच्छे जैसे गोलाई वाले हाथ-पाँव, रंग
न गोरा न काला। अगर देख भाल, अच्छी तरह से हुई होती तो पल्ला गोरे की तरफ ही
झुकता। सेहत बहुत अच्छी है, फिर भी। पूछने पर वह अपना या अपने घर का हाल
बताना नहीं चाहती, पर जिन लोगों की खोद-खोद कर बाल निकालने की आदत है, उनके
खोदने से इतना पता लगा था कि कोई सज्जन उसे अपने घर का छोटा-मोटा काम करवाने
के लिये गाँव से ले आये थे। पैसे खर्च कर उसे यहाँ लाने के कारण अपने पैसों
की वसूली की तरफ उनका पूरा ध्यान था। ऊपरी तौर पर डाँट डपट तो थी ही। बेचारी
निरूपाय लड़की मेहनत करती रही, डाँट-डपट सुनती रही। गाँव की याद कर-करके रोती
रही और जिन चाचा-चाची ने उसे इनके हाथों सौंपा था उन्हें गालियाँ देती,
श्रापती रही। जब उससे रहा नहीं गया तब, इनके हाथों से छुटकारा पाने की एक
तरकीब निकाली, जहाँ तक होता उन्हें तंग करने लगी।
जल्दी ही पता चल गया कि यह छोटी-सी गँवई लड़की मुसीबतों की मारी तो जरूर है,
पर एकदम से बेसहारा नहीं है। उसकी बुद्धि ही उसका सहारा है। उसने एक दिन किया
क्या कि मालकिन के बड़े शौक से खरीदे टीसैट को जानबूझ कर पटक कर तोड़ डाला। जब
मालकिन बिगड़ने लगी तो वह चुप रहने के बदले तन कर बोली डाँटती क्यों हैं? कोई
जानबूझ कर तो तोड़ा नहीं। हाथों से तो किसी के भी सामान छूट सकता है। क्या
आपके हाथ मे नहीं छूट सकता था?' इतना कह देने से ही उसकी मनोकामना पूरी हुई।'
'निकल, अभी निकल मेरे घर से' कहकर मालकिन ने उसे उसी वक्त निकाल बाहर किया
था। कहा था, तू लड़की नहीं, एकदम बिच्छू है। जानबूझ कर तोड़ा है तूने।'
निकालने को उन्होंने निकाल तो दिया था, पर यह सोचा नहीं था कि वह लडकी उस
अंधेरे शाम को सचमुच ही चली जायेगी।
उन्होंने सोचा था, परदेस है, जायेगी कहाँ?'
लेकिन जब किसी की इच्छा ही हो खो जाने की, तो क्या जाकर खो जाने की जगह की
कमी है? रेल लाइन के इस पार और उस पार दोनों तरफ ही रेलवे कॉलोनी है-ईस्ट और
वेस्ट। इंजन से निकलते धुँए से धुँधलाये ईटों के जूते के डिब्बों जैसे अनगिनत
मकानों के किसी एक के अन्दर जाकर, आकर कोई छिपकर बैठ जाये, तो उसे कौन ढूँढ़
निकालेगा?
खोज खबर करने, ढूँढ़ निकालने की दिक्कत भी है।
उस लड़की की शैतानी, बेईमानी, बदतमीजी की बात कितनी भी बढा-चढ़ा कर क्यों न कही
जाये, जहाँ लोग यह सुन लेते कि उसकी उम्र कितनी है, फौरन ही उनकी सहानुभूति
उसकी तरफ हो जाती। अकसर तो लोग मुँह पर ही कह देते 'बच्चा ही तो है। अपने
घर-गाँव के लिये उसका मन उचाट हुआ होगा। इसीलिये चली गई है।'
इतना तो वे कहते, मगर जो बातें वे जबान पर न लाते, पर उनके चेहरे की रेखाओं
से स्पष्ट होतीं, वह है कि भागे न तो क्या करे बेचारी? न जाने कितने अत्याचार
किये गये होंगे, नहीं तो उतनी-सी लड़की भागने की हिम्मत कर सकती थी? जब उससे
रहा न गया, तभी भागी वह। हमें तो नहीं लगता कि ज्यादा पैसों का लालच दिखा उसे
कोई तुड़ा कर ले गया है। तुड़ाने का मौका ही किसे था? अपनी आँखों से तुम उसे
कभी ओझल ही नहीं होने दिया करती थी।
तुलसी की जबान से यह बातें एक दिन में खुली नहीं थी। धीरे-धीरे, एक-एक कर
खुली थीं। जब लोगों को सारी बातें पता चल गईं, तब किसी-किसी ने कहा था, 'भाग
निकलने के लिये तूने उन लोगों को तंग करना शुरू किया? बड़ी दुष्ट लड़की है रे
तू तो!' हँस कर तुलसी बोली थी, हाँ, घर पर चाची कहती थी कि यह लड़की तो एकदम
मिर्च है।'
सो, मिर्चनुमा वह तुलसी, दस साल की उम्र से ही बिल्कुल आजाद है। लोगों के
घरों में नौकरी की है, क्या करना है क्या नहीं, कितना तनख्वाह देनी है कितनी
नहीं, यह सब वह खुद ही तय करती। जितने काम का करार है उसके अधिक एक काम में
हाथ नहीं लगाती वैसे मन हुआ तो किसी दूसरे के घर जाकर मुफ्त में दो घंटे काम
कर देगी, पर अपनी नौकरी की जगह पर करार से आगे कुछ भी नहीं, चाहे कुछ हो
जाये। फायदा यह हुआ कि यह लड़की कहीं भी ज्यादा दिन टिक न पाती। तुलसी को मगर
इस बात का कोइ दुख, कोई खेद न था। वह खूब हँस-हँसकर कहती यही तो अच्छा है,
रोज-रोज नये-नये मालिक मालकिन देखने को मिलते रहते हैं।'
ये बातें आज की नहीं, मुद्दत की हैं। दस साल की वह नन्हीं सी लड़की आज करीब
अट्ठाइस-तीस की होने को आई। सेहत उसकी पहले से भी अच्छी, चेहरा अभी भी कच्चे
डाब सा चिकना। फर्क इतना है कि अब उसके बाल तेल-चुपड़े और हाथ-पाँव मक्खन से
मले होते।
अब तुलसी लोगों के घरों में काम नहीं करती। अब वह रेलवे के अस्पताल में आया
का काम करती है। यहाँ का काम उसने अपनी कोशिश से सीखा है, अपनी ही कोशिश से
यह नौकरी जुटाई है। काम वह इतना अच्छा जानती है, इतना अच्छा करती है कि कभी
एक-आध दिन भी वह घर नहीं बैठती। आया रखने की सी माली हालत नहीं है जिनकी वे
भी, लालच में आकर पाँच-छ: दिन उसके हाथों की सेवा का सुख भोग लेते हैं।
अब तो करणपुर में तुलसी की बड़ी प्रतिष्ठा है।
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