| 
			 नारी विमर्श >> तुलसी तुलसीआशापूर्णा देवी
  | 
        
		  
		  
		  
          
			 
			 124 पाठक हैं  | 
     ||||||||
आशापूर्णा देवी का लेखन उनका निजी संसार नहीं है। वे हमारे आस-पास फैले संसार का विस्तारमात्र हैं। इनके उपन्यास मूलतः नारी केन्द्रित होते हैं...
      यह किसी ने कभी नहीं सोचा कि तुलसी का ब्याह नहीं हुआ या तुलसी का घर नहीं
      बसा। वह जो अपनी ही कोशिश से प्रतिष्ठा की सीढ़ियाँ चढ़ती, काफी ऊँचे पहुँच गई
      है, इसी से वह महिमा-मण्डित हो गई है। कोई इस बात का दावा नहीं कर सकेगा कि
      उसने कभी तुलसी की सहायता के लिये छोटी उँगली भी हिलाई है। हर घर का एक ही
      इतिहास है। वह वहाँ की नौकरी से निकाली गई है।
      
      रेल क्वार्टर के बाशिन्दे हमेशा एक ही जगह नहीं रहते। किसी का तबादला होता
      है, कोई रिटायर हो जाता है। नये लोग जो आते हैं, वे तुलसी का यही रूप देखते
      हैं। उसके इतिहास को खोदने की जरूरत नहीं समझते वे। उतनी-सी आयु से ही अपना
      मालिक आप बन जाने का दुःख तो है, सुख भी है। सुख बल्कि कुछ ज्यादा ही है।
      तुलसी को उस सुख का स्वाद मिला है इसलिये उसने, अपने ऊपर छाते की छाया की कमी
      का अनुभव नहीं किया है कभी। सिर पर छाता लगाने वाले का ही दूसरा नाम तो शासक
      है।
      
      छाते का मतलब ही तो है सिरताज। मालिक।
      
      जरूरत क्या है? खाने को है, सिर छिपाने को कोठरी है, अपने मेहनत की प्रतिष्ठा
      है, और चाहिये भी क्या? अगर शादी करती, घर गृहस्थी बसाती तो क्या तुलसी इस
      आजादी से चल-फिर सकती? आजादी का सुख फिर कहाँ मिलता उसे? शासन की मुट्ठी से
      जब एक बार वह छिटक कर निकल कर आ सकी है, निकल कर अपने लिये जीने का नया तरीका
      निकाल पाई है, इस नये मिले सुख का भोग करने का मौका उसे फिर कहाँ मिलता? अभी
      लोग उसे चलने-फिरने, हँसने बोलने, उसके पहनने-ओढ़ने पर फब्तियाँ जरूर कसते
      हैं, मगर और कुछ कहने का साहस है उनमें? ऐसा वे कह नहीं सकते। जितनी निन्दा
      तुलसी की होती है उसकी परवाह वह नहीं करती। उसे तो वह पाँव तले रौंद कर अपने
      रास्ते चली जाती है।
      
      तुलसी को अगर लोक-निन्दा का डर होता, तो रात को दस बजे रेल-स्टेशन के करीब की
      चाय की गुमटी में ताश की महफिल में आकर न जमती। 
      
      रूप बदलते-बदलते तुलसी ने अब बाबुओं के घरों की बहू-बेटियों का रूप धर लिया
      है। अब वह अच्छे छींट की रंगीन ब्लाउज पहनती है, सीधे पल्ले से ओढ़ती है साड़ी।
      पहनती भी है हल्के प्रिन्ट की साड़ियाँ। चूड़ी वह पहनती नहीं, सिर्फ एक-एक कड़ा
      है उसकी कलाईयों पर। किसी जमाने में वह हाथ भर-भर काँच की चूड़ियाँ पहनती थी,
      लेकिन आया का काम करते वक्त खनकती चूडियाँ आड़े आती थीं, इसलिये उन्हें उतार
      फेंका है। सिर में वह खूब सारा तेल चुपड़ कर टाइट जुड़ा करती है, फिर भी माथे
      पर हल्की लटें लटक ही आती हैं। ऐसे ही ये लटें लटकती थीं जब वह छोटी थी, जब
      उसके बालों में तेल का नाम भी न होता था, कंघी-चोटी जब वह करती न थी। उसके उन
      लटकते लटों को जो देखता, शैतान लड़की है जानते हुए भी उसके मन में ममता जाग
      उठती।
      
      सड़क पर न जाने कहाँ से रोशनी आई। उसी से दिखाई पड़ा कि तुलसी आ रही है। जो ताश
      में डूबे हों उनके लिये उसका आगमन जान पाना सम्भव नहीं था, पर, इत्तफाक की
      बात है उसी क्षण सुखेन ने ताश बँटने के अवसर पर आँखें उठा कर यह कहते हुए
      बाहर देखा, 'क्या जाने कितने बज गये। ज्यादा देर हो जायेगी तो घर पर फिर गदर
      मच जायेगा।' घर के नाम पर सुखेन के है, समय से पहले बूढ़ा बाप और झगड़ालू बुआ।
      फिर भी, सुखेन को ही घर की याद सबसे पहले आती है। अपनी बात कहने के साथ ही
      सुखने ने फुसफुसाकर कहा, ''नखरेवाली आ रही है।'
      
      चौंक कर सबने देखा।
      राजेन ने धीरे से पूछा, 'आज नाइट ड्यूटी नहीं है क्या?'
      'नहीं होगी।'
      जग्गू ने कहा, 'अब हमारी बाजी का सत्यानाश करेगी।'
      और ननी ने भी खीझकर कहा 'ओफ!' पर ताज्जुब यह है कि साथ ही साथ सब के मन में
      ही खुशी की एक हल्की-सी लहर भी दौड़ गयी।
      ऐसा ही विचित्र है यह मन।
      अच्छा लगना और अच्छा नहीं लगना एक साथ ही आते हैं।
      फिर भी उन्होंने उसे न देख पाने का बहाना किया।
      अपना-अपना ताश उठाने लगे।
      सामने बिछी हुई चौकियों के बगल से निकलती हुई तुलसी एकदम दुकान के अन्दर जा
      पहुँची। उसका स्पष्ट स्वर गूँज उठा 'धत तेरे की! वही टेयेन्टिनाइन का ही खेल
      हो रहा है! तुम लोग बड़े ही नहीं हुये?'
      सुखेन के साथ ही उसकी तू तू-मैं मैं सब से ज्यादा होती है, उसने कहा, 'तो फिर
      देवी, क्या हुक्म है? जुआ खेलूँ?'
      'खेल तो, वही है!'
      वह तो 'बाबू-भैया' लोगों का खेल है, 'कहाँ राजेन ने, 'हमारे पास जुआ की बाजी
      के लिये पैसे कहाँ?'
      
      'जुआ का पैसा जुआ से ही आता है।' चौकी पर बैठती हुई बोली तुलसी, 'चाय सारी पी
      डाली है? ओ जी ननी दा?'
      'मुझे क्या पता कि तू आयेगी!'
      'पता होना चाहिये था।'
      'कैसे होता? मुझे हाथ देखना तो आता नहीं।'
      'वह भी सीखना चाहिये था।'
      तुलसी बोली 'अरे ओ' लोगों, किसके जेब में सिगरेट है, दे तो इधर।' आजकल तो
      कमीज पतलून ही जातीय पोशाक है, अतएव सुखेन, राजेन और जग्गू तीनों ने ही पतलून
      की जेब में हाथ डाल एक-एक बीड़ी निकाल उसकी तरफ बढ़ाया। ननी धोती-बनियान में
      था, उसके पास जेब थी ही नहीं।  
      'बीड़ी?' नाक चढ़ा कर बोली तुलसी, 'अपने को सुधारने का मन ही नहीं होता न? जो
      थे वही रह गये।' अपने साथ लाये बटुवे को खोल तुलसी ने सिगरेट का पैकेट
      निकाला। उसमें से तीन सिगरेट निकाल उन्हें देती हुई बोली, 'ले, पी। पी कर
      देख, अच्छी चीज किसे कहते हैं।'
      उसकी दी हुई सिगरेट इन लोगों ने बड़ी खुशी से ले माचिस पर ठोंकते हुये कहा,
      'अब तू पैसे वाली हो गई है। अच्छी चीज तू नहीं दिखायेगी तो कौन दिखायेगा?'
      तुलसी ने एक अपने लिये सुलगा कर पैकेट ननी की ओर बढ़ाते हुए कहा, 'पीओगे ननी
      भैया?'
      			
						
  | 
				|||||

 
		 








			 

