नारी विमर्श >> तुलसी तुलसीआशापूर्णा देवी
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आशापूर्णा देवी का लेखन उनका निजी संसार नहीं है। वे हमारे आस-पास फैले संसार का विस्तारमात्र हैं। इनके उपन्यास मूलतः नारी केन्द्रित होते हैं...
ननी उसकी सिगरेट लेता नहीं। कहता है, 'बढ़िया चीज गरीबों को सहती नहीं। जिसे
पीना है वह पिये। औरतों को धुँआ उगलते देख मुझे उबकाई आती है।'
उबकाई आने वाला दृश्य बड़े आराम से ननी के सामने पेश करते हुये तुलसी बोली,
'तुमने मुझे अभी तक औरत समझ रखा है ननी भैया? यह बात तो मैं खुद भूल गई हूँ।'
'शाबाशी पाने लायक बात नहीं है वह।' कह ननी ने आले से बीड़ी उतारी और अपने
लिये सुलगाई।
'बीड़ी की महक से मुझे चक्कर आता है?' तुलसी ने कहा।
सुखेन ने चुटकी ली, 'अब तो चक्कर खायेगा ही तेरा सिर। बहुत कीमती सिर हो गया
न! जमाना था जब अधजली बीड़ी के लिये तू छुछुआती फिरती थी। तुझे वह जमाना याद न
भी हो तो क्या रे तुलसी हम उसे नही भूले हैं।'
बात सुखेन ने सच ही कही है।
तुलसी के बाल्य-कैशोर के प्रधान साथी ही थे यही तीनों। एक और भी था। वह था
फणी। एक दिन कटखनी तुलसी ने फणी की बाँह पर दाँतों से काट कर खून बहा दिया
था। उसी दिन से उसने फणी के साथ सब सम्पर्क भी त्याग दिया था।
सुखेन, राजेन, जग्गू क्रोध से पागल हो पूछते रहे, 'बोल तू, बता हमें, साले ने
तुझसे क्या कहा था? क्या चाहता था वह, हम उसे अभी खत्म कर देंगे।'
संजीदगी से तुलसी बोली थी, 'जा जा, रहने दे। मेरे मामलों में किसी को सिर
खपाने की जरूरत नहीं। वह जो कहने आया था, वह तुममें से कोई भी, किसी भी वक्त
कह सकता है। मर्द जात पर भरोसा क्या?'
कैशोर काल की मूर्खता से वशीभूत हो, किसी एक समय ये तीनों उच्चके, इस बेलगाम
छोकरी के इर्द-गिर्द मंडराया करते। आशा कि अगर जरा भी घनिष्ठता हो। पर नतीजा
कुछ भी न निकला था। वे इस लड़की से सदा डरते रहे हैं, बराबर। इन्हीं की
मेहरबानी से तुलसी ने सिगरेट पीना सीखा। तीनों में सुखेन ही सबसे अधिक साहसी
था। वही उसे जब तब बुलाकर कहता, 'आ देख पीकर, कितना मजा आता है।' लेकिन इस
मजे के बदले सुखेन ने अगर किसी और मजे की आशा प्रकट की तो उसे एक थप्पड़ जड़
उसकी बीड़ी उसी के मुँह पर मार तुलसी चल देती वहाँ से। फिर? फिर सुखेन को ही
उसकी खुशामद करनी पड़ती, कसमें खानी पड़तीं।
तुलसी कड़क कर कहती, 'याद रखना अपनी कसमें। जब तक दोस्ती है, ठीक है। अगर
मेरे साथ दुश्मनी करेगा तो जान से मार दूँगी तुझे। इन लड़कों के साथ ननी इस
तरह कभी भी नहीं घूमता था। वजह यह थी कि उम्र में इनसे वह थोड़ा बड़ा तो था ही,
ऊपर से सदा सताये रहती थी पेट की चिन्ता। दुकान तो उसने आज नहीं खोली है।
खोली थी जब तब वह छोटा ही था।
किसी जमाने में तुलसी भी उसकी दूकान में बहुत काम कर दिया करती थी। तुलसी तो
सब दिन की 'घर की बैरन, जग की मन भावन' है। बटन टूटे, पीट खुले गन्दे फ्रॉक
में ही वह दूकान में आ धमकती। चूल्हा धौंकती, चाय के गिलास धो दिया करती। उस
जमाने में फणी भी दुकान के कामों में हाथ बँटाता था। धीरे-धीरे तुलसी ने
फ्रॉक छोड़ी धोती पहनना शुरू किया। पर किसी ने ख्याल न किया कि तुलसी बड़ी हो
गई है।
एक दिन ननी ने ही उसे मना कर दिया। कहा, 'कल से तू मत आया करना तुलसी।'
उसके मुँह पर तुलसी ने क्या देखा, वही जाने। उसने जवाब दिया, 'अच्छा।'
'दु:खी मत होना। नाराज भी मत होना।'
ननी अगर यह न कहता, तब शायद तुलसी चुपचाप ही चल देती वहाँ से, पर ननी के इन
प्यार भरे शब्दों से वह बिफर उठी। चिल्लाई तो नहीं, पर कड़ुवाहट से भर कर
बोली, 'घबराओ मत ननी दा। नौकरी से निकाली जाना मेरे लिये कोई नई बात नहीं
है।'
'नौकरी? मेरी दूकान में नौकरी करती है तू? तनख्वाह दी है मैंने तुझे कभी आज
तक?'
'तनख्वाह नहीं देते हो, उस पर भी तो निकल, भाग, कर रहे हो। देते होते तो न
जाने क्या करते।'
'तेरी भलाई के लिये ही कह रहा हूँ।
'पता है।' कहकर तुलसी चली गई।
उसके बाद, अपनी शादी के वक्त ननी उसके पास जा, मनुहार कर, उसे बुला लाया था।
कहा था ननी ने तू मेरी छोटी बहन के बराबर है। दीदी को और तुझे मिल कर सारा
काम करना है।' उसकी बात रख ली थी तुलसी ने। उसमें काम करने की ताकत भी तो
बहुत है।
फणी वाली घटना उन्हीं दिनों की है। और उसके कुछ ही दिनों बाद फणी गायब भी हो
गया था।
फिर तो कितना पानी बह गया गंगा का।
लोगों के घरों में बच्चे सम्भालने का काम छोड़ तुलसी अस्पताल के आया की
ट्रेनिंग लेने गई। उसमें सफल हो, अस्पताल में नौकरी पकड़ी अपने लिये अलग कोठरी
ली। देखते-देखते तुलसी कहाँ से कहाँ पहुँच गई।
इधर ननी का भाई भाग गया, बीवी मर गई, और दूकान में खास मेहनत किये बिना ही
आमदनी बढ़ गई।
उसे तो बढ़ना ही था। बढ़ती ही।
जो जहाँ जैसा भी व्यवसाय करने बैठे, उसकी आमदनी में बढोत्तरी होगी ही।
एकमात्र कारण है, जनसंरव्या में वृद्धि। हर जगह, हर चीज की माँग में बढ़ोत्तरी
हुई है, और जिस कदर जनसंख्या बढ़ रही है उससे, चिटके गिलास की चाय और 'देसी'
बिस्कुट की माँग बढ़ेगी, इसमें ताज्जुब क्या है?
आमदनी के बढ़ने का सवाल नहीं उठता, सिर्फ नौकरी करने वालों की। उनकी तो साल,
महीने का हिसाब लगा कर आमदनी बढ़ती है। सुखेन, राजेन, जगाई तीनों ने इसी रेल
स्टेशन के आसपास छोटी-मोटी नौकरियाँ जुटा ली है। दिन भर के हड्डीतोड़ मेहनत
के बदले में नाममात्र मजदूरी पाते।
जिस मजदूरी का सभ्य नाम है तनख्वाह।
उन लोगों के लिये शादी के सपने संजोना भी पागलपन है। इसके बावजूद भी, किसी
जमाने में इन लोगों ने उस स्वप्न को संजोया है, सबसे मजेदार बात और साथ ही
बड़े शर्म की बात तो यह है कि इन तीनों की कल्पना एक ही मूर्ति को घेर कर पली
और बढ़ी।
मूर्ति है एक रहस्यमयी की।
जिसकी दृष्टि में प्रश्रय, बाहों में प्रतिरोध, भंगिमा में निमंत्रण, जिह्वा
पर विषवाण। उसके आकर्षण का मूल शायद उसकी रहस्यमयता में ही है। और पता नहीं
क्यों, तीनों के मन में ही यह विश्वास पनपता रहा कि उसके लिये वह दुर्लभ नहीं
है। इसी कारण उसे केन्द्र बना स्वप्नों का जाल बुनना, कल्पना का गजरा गूँथना
सदा चलता रहा।
यह किसी जमाने की बात है।
अब उस स्वप्न का मोह समाप्त हो गया है।
अब वे जान गये हैं कि वह रहस्यमयी इनके पकड़ की सीमा के बाहर है।
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