नारी विमर्श >> तुलसी तुलसीआशापूर्णा देवी
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आशापूर्णा देवी का लेखन उनका निजी संसार नहीं है। वे हमारे आस-पास फैले संसार का विस्तारमात्र हैं। इनके उपन्यास मूलतः नारी केन्द्रित होते हैं...
कहिये।' फिर तुलसी की आँखों में, सारे चेहरे पर, बिजली चमक गई। मुस्कराकर
उसने पूछा, 'क्यों भाभीजी, आप जल्दी ही अस्पताल आ रही हैं क्या?'
'मर मुँहजली, 'भाभी तुनक कर कहती है फिर मरने जाऊँगी मैं भला?'
'मरने नहीं भाभी, जीने।'
'अरे जा। बात यह है कि मेरी ननद ससुराल से आई हुई है। उसे दो-एक दिन में ही
तुम्हारे अस्पताल में भेजना पड़ेगा। उस समय हमें तुम्हारी जरूरत होगी।'
'हे राम! कौन-सी डेट है?'
बताना मुशिकल है। जरा काम्पलीकेटेड मामला है।'
'तो फिर?'
यह सब नहीं जानती। तुम्हें रहना ही पड़ेगा। मैंने अपनी ननद को बहुत भरोसा दे
रखा है, खांसकर रातों के लिये। और सब जितनी हैं, सभी काम चोर हैं, रात को सो
जाती हैं, पेशेन्ट के बुलाने पर जवाब नहीं देती, नींद खराब होने पर गुस्सा
होती हैं, फिर दबे स्वर में बोलीं, 'और कोई बंगाली आया है भी तो नहीं।'
'मेरी बदनामी नहीँ सुनी आपने?'
'तुम्हारे नाम पर बदनामी? यह क्या होता है? तुम्हारे नाम तो जिधर सुनो जय ही
जय सुनाई पड़ती है।'
तब तो मैं तर ही गई! अच्छा भाभी चलूँ। देखूंगी, आपकी ननद के दिन...'
चली जाती है तुलसी झटपट।
तारीफ सुन साधारणतया मन प्रसन्न होता है। होने की बात ही है। पर तुलसी का मन
कडुवा हो गया। इस करणपुर में उसका यही एकमात्र परिचय है। अच्छी आया!
वह प्रसूति की देखभाल ढंग से करती है, रात की ड्यूटी पर सो नहीं जाती है,
खुशमिजाज है, अपनी मीठी बातों से ही पेशेन्ट को स्वस्थ कर लेती है। नहीं,
यहाँ तुलसी का और कोई परिचय नहीं है।
अस्पताल में तो मुलाकात होनी ही थी। नाटे कद के, छोटे गर्दन वाले व्यक्ति हैं
डाक्टर घोष। गर्दन और भी छोटी कर कुड़बुड़ाते हुये वे पाँव पटकते पैसेज पार
हो जाते हैं। सिर बीचोबीच से गँजा है, गर्दन की तरफ के बाल घने हैं। गर्दन के
बाल सफेद अधिक, काले कम।
डाक्टर घोष बड़े ताव से अस्पताल के रोगियों को देखते हैं, वार्डों के चक्कर
लगाते हैं। सभी उनका खौफ खाये रहते हैं। लोगों का कहना है शेर सा डाक्टर है।'
आज उनको कुड़बुड़ाते हुए गर्दन नीची कर जाते देख तुलसी को मजा आता है सोचती
है, सेर पर सवा सेर भी है।
क्या विचित्र जीव है मनुष्य!
और, दिन के मनुष्य से रात के मनुष्य का कितना अन्तर है।
राजेन और जग्गू मुँह फुलाये बैठे हैं।
सुखेन सामने है।
तुलसी ऐसा कर रही है!
यह बात तो उनकी सुदूर आशंका में भी नहीं थी। तुलसी बातूनी है, तुलसी बेशर्म है, गप्प मारने के वक्त तुलसी औरत-मर्द का फर्क नहीं मानती, तुलसी बीड़ी-सिगरेट पीती है, सब मान लिया, पर इसके बाद भी, तुलसी पर, इन तीनों का बहुत विश्वास था। उनका प्रेम उस, विश्वास की नींव पर ही खड़ा था। पर कल रात सुखेन अपनी आँखों से जो देख आया है, उसके बाद तो कहने को कुछ रह नहीं जाता। सुखेन ने उन्हें अपनी 'आँखो से देखा' हाल सुनाया। उसने स्वीकार किया कि पिछली रात ईर्ष्या से जलते-जलते वह घर से निकला था। उसके मन में यह पक्का विश्वास था कि वह जाकर देखेगा कि राजेन और जग्गू उतनी रात को भी उसकी कोठरी में बैठे गप्पें मार रहे होंगे। वहाँ पहुँच कर मगर उसने देखा कि तुलसी के घर का चबूतरा धुप्प अन्धेरे में सोया था। अपने पापी मन की चिन्ता भी सुखेन ने अपने दोस्तों के आगे स्वीकार की है। अपने मन की जलन से जलभुन कर उसने सोचा था कि दो के दोनों ही तुलसी के कमरे में तो नहीं हैं? ठीक है, बहुत अच्छा है, दोस्तों की इस बेईमानी का बदला ले लेगा सुखेन भी!
मगर यह क्या? दो-चार कदम आगे बढ़ते ही सुखेन के जिस्म का सारा खून जम गया था।
कुड़बुड़ाता हुआ जो आदमी तुलसी का चबूतरा पार हो, फाटक का दरवाजा खोल बाहर
आया वह न राजन था न जग्गू।
सुखेन पहचानता है उस शख्स को।
सुखेन ने देखा अन्धेरे में, चबूतरे के किनारे खड़ी है तुलसी।
मतलब यह कि सामने खड़ी हो 'उनको' बिदाई दे रही है।
वे गरज उठे, 'तूने कहा नहीं कुछ? एकदम रंगे हाथ जब पकड़ लिया तूने, तब भी कुछ
नहीं कहा?'
वे ऐसे बोले जैसे सुखेन तुलसी का मालिक हो। मगर सुखेन ने कुछ नहीं कहा था।
उनकी बात सुन थम गया था सुखेन।
एक बहुत गोपनीय बात सुखेन अपने बालपन के साथियों से भी नहीं बता पाया था। वह
बता न सका था कि न जाने क्यों, तुलसी को इस तरह खड़ा देख उसकी आँखों में बरबस
पानी भर आया था। हथेली की पीठ से आँखें पोंछता हुआ वह वहाँ से हट गया था,
बिना एक शब्द बोले, बिना एक क्षण रुके।
अपनी इस गोपनीय बात को नकारने के ख्याल से उसने कहा, इच्छा नहीं हुई। उसी
वक्त उसे बुला कर कुछ कहने की इच्छा ही न जागी मेरे मन।'
और तब से तीनों पथराये हुये बैठे हैं।
उन्हें देख कर लग रहा है कि अभी-अभी समाचार मिला है उन्हें कि जिस बैंक में
उनके जीवन भर की पूँजी जमा थी, वह बैंक फेल हो गया है।
लेविल क्रासिंग के पार ईंटों का जो स्तूप अनादि काल से पड़ा है उसी पर बैठे थे
वे। ऐसे बैठे थे जैसे अब कहने-सुनने को कुछ बचा ही न हो।
कहने को जब कुछ बचा ही न था, तब एक के बाद एक बीड़ी पीते रहने के सिवा करने को
था ही क्या?
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