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नारी विमर्श >> तुलसी

तुलसी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :72
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6390
आईएसबीएन :81-8113-018-9

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आशापूर्णा देवी का लेखन उनका निजी संसार नहीं है। वे हमारे आस-पास फैले संसार का विस्तारमात्र हैं। इनके उपन्यास मूलतः नारी केन्द्रित होते हैं...


सुखेन के मन में यह ख्याल आते ही आग लगी उसके दिमाग में। जग्गू और राजेन उसे घर तक छोड़ने तो गये, कौन जाने अभी तक उसी से चिपके हों। तुलसी को लोक-निन्दा का डर तो है नहीं। बीच से वही बेवकूफ गुस्सा दिखाने चला था, तो रह भी गया। खीझ के मारे सुखेन ने अपने ही गाल पर तड़ाक से एक झापड़ मारा सुन कर बुआ ने कहा, मच्छर मारने के नाम पर अपने ही को क्यों मारने लगा सुखेन? आज इतने मच्छर तो हें भी नहीं रे। मच्छर तो थे तेरे गाँव चौपता में। इतने बड़े कि आदमी को कमरे से उठा कर बाहर ले जाये। तुझे तो खैर यह सब बताना बेकार है, तू तो वहाँ कभी गया ही नहीं, देख ही नहीं अपना घर...अपना गाँव। रेल की नौकरी क्या मिली तेरे बाप को कि फिर घर की ओर कभी रुख ही न किया। तेरी माँ...''

नहीं! नहीं! नहीं! अब सहा नहीं जाता !!
सुखेन तीर-सा कमरे से निकल सड़क पर चलने लगा।

लौटते समय राजेन और जग्गू भय को दूर करने के लिये जोर-जोर से बातें करते हुए आ रहे थे। भय भूत प्रेत का नहीं, चोरों का।
अच्छी तरह अगर सोचा जाये तो 'चोरों का डर' यह वाक्य ही हास्यास्पद है। अरे भई, चोर उनसे लेगा क्या?
चोर उनसे लेगा क्या?
जेब में फूटी कौड़ी भी तो नहीं है।
जो कमीज-पतलून पहने हैं, इसके अलावा कुछ भी तो नहीं है उनके पास।
फिर भी डर रहे हैं।

भय है ही ऐसी चीज। उसके लिये कोई कारण की जरूरत नहीं। भय के लिये ही भय आता है।
मगर तुलसी नाम की उस लड़की के मन में भय का लेश-मात्र नहीं। उसी बात पर आलोचना करते चले जा रहे थे वे।
'हिम्मत है भई उसमें! अकेली औरत का अलग कोठरी लेकर रहना, साधारण बात नहीं।'

मैंने एक बार उसे सुझाव दिया था कि अस्पताल की किसी और औरत से जान-पहचान बढ़ा कर दोनों साथ रहा को। उसे भी आराम, तुझे भी। इसके जवाब में उसने कहा था, 'उसे इससे आराम आ सकता है, मेरे लिये रत्तीभर भी आराम नहीं। साथ रहने का मतलब होगा साथ पकाना खाना। मैं जो कुछ खाती हूँ इसमें किसी को सन्तोष न होगा, इसी बात पर मनमुटाव होगा। और फिर कौन जाने किसके मन की बात। क्या पता क्या गड़बड़ करके बैठ जायेगी, कौन सम्भालेगा झमेला? यही अच्छा है। अधिक सुख की आशा से घर तक नहर काट कर घड़ियाल को निमत्रंण देना, मेरी समझ में, मूर्खता है।'

मगर तुलसी को यह लोग जितना निडर, जितना सुरक्षित समझते हैं, क्या वास्तव में तुलसी उतनी निडर, उतनी सुरक्षित है? अकेले हाथों लड़ते-लड़ते थकी नहीं जा रही है वह? रेलवे कालोनी के इस तरफ नई क्वार्टर बन रही हैं। मकानों की अपनी कोई सुन्दरता नहीं, कोई व्यक्तित्व नहीं, जूते रखने वाले रैकों की तरह, एक से, डिब्बों से मकानों की लाइनें। इतने मकान हैं फिर भी पूरा नहीं पड़ता, फिर भी कमी हो जाती है।

पृथ्वी के ऊपर आज तक, जितनी कुमारी भूमि अनाहत अक्षत पड़ी थी अब उस पर फावड़ा-कुल्हाड़ी की चोटें पड़ने लगी हैं। गहरा-गहरा खोद कर मकानों की नींव बन रही हैं। आकाश भेद कर ऊँची-ऊँची महलें खड़ी हो रही हैं। मनुष्य ऐसे मकानों में भी जा कर बस रहे है, जिनकी छतों पर खड़े हो नीचे देखने से चक्कर आने लगता है। दूसरी तरफ जूते के डिब्बे, दियासलाई के डिब्बे, ताश के महलों में भी जा कर बस रहा है मनुष्य।
करे क्या? आश्रय तो चाहिये।

और आश्रय का यह हाल है कि उसे जितना बढ़ाया जा रहा है, वह कभी पूरा ही नहीं पड़ता। मनुष्य नाम का कीड़ा क्षण-क्षण अपनी वंश वृद्धि करता जा रहा है, रक्तबीज भी हार मान रहा है उसके आगे। फलत: ईटों पर ईंट सजाने का भी कोई अन्त नहीं।

सुबह ड्यूटी पर अस्पताल जाते समय, न जाने क्यों? इधर ही से जाने का मन हुआ तुलसी का, जिधर वे नये क्वार्टर बन रहे हैं।
आज तुलसी उदास है। बनते मकानों को देखकर उसे लगा फिर ढेर सारे लोग आयेंगे यहाँ। दुकानें, बाजार, गली, सड़कों की भीड़ नये पुराने के हुजूम से और बढ़ जायेगी।
इस शहर के कितने परिवर्तन देखे तुलसी ने।

जब वह आई थी यहाँ, कितना खुला-खुला था, कितना खाली-खाली पेड़-पौधों की क्या बहार थी तब।
आज जहाँ यह नये मकान बन रहे हैं, जब वह छोटी थी, कितने सारे
बड़े-बड़े पेड़ थे यहाँ उन पेड़ों में न फल थे, न फूल। थी सिर्फ छाया।
सुखेन ने ही उसे इन पेड़ों का पता बताया था। उससे सुखेन ही कहता, 'चलेगी तुलसी पेड़ पर चढ़ने?'

यह उनका एक स्पेशल खेल था। पेड़ की ऊँची डाल पर बैठ पाँव नचाना। तुलसी को स्कूल जाने की मजबूरी न थी, पर उन लड़कों को तो जाना ही पड़ता। रेल कम्पनी की मेहरबानी वाला फ्री-स्कूल। लेकिन वे दुष्ट लड़के महीने में कितने दिन नियम से जाते उस स्कूल में ज्ञान लाभ करने?
तीनों में इतने मेल की वजह क्या है?
एक जगह बहुत मेल था, कारण शायद यही रहा हो। तीनों ही बे-माँ के बच्चे थे। और तुलसी भी शायद इसी कारण उनके दल में खिंची चली आती थी।

अपने सामने पेड़ ईंटों के पहाड़ और बाँसों के मचान देख तुलसी ने बड़ी लम्बी साँस ली। अब कहीं भी जरा सी भी खाली जगह नहीं बचेगी। नहीं रहेगा कहीं भी सूनापन।
फिर हँसी वह। रहेगा। क्यों नही रहेगा? मन का सूनापन तो रह ही जायेगा। वह रह ही नही जायेगी, दिन-पर-दिन बढ़ता चला जायेगा। बाहर जितनी आबादी बढ़ेगी, जितना सूनापन घटेगा। 'सूनापन' उस दमघोंटू परिवेश से उतना ही घबराकर मनुष्य के मन में घर करेगा।

मगर आज मैं इधर आई क्यों? इधर से तो रास्ता बहुत लम्बा हो गया, काम पर पहुँचने के लिये मुझे बहुत चलना पड़ेगा।
अर्धसमाप्त मकानों के ब्लाक को पार कर पुराने ब्लाक के बगल वाली सड़क पर पहुँचते ही किसी एक क्वार्टर की खुली खिड़की से किसी ने पुकारा, अरी तुलसी! आज इतनी देर से कहाँ चली?'
तुलसी को उस पुकार की ओर ध्यान देना ही पड़ा। अपने अनमने पन को दूर फेंकना पड़ा। हँस कर आगे बढ़ कर कहना पड़ा, हाँ भाभी जी आज जरा देर हो गई है मुझे।'
'अच्छा सुनो, तुमसे एक जरूरी बात कहनी थी मुझे।'

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