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नारी विमर्श >> तुलसी

तुलसी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :72
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6390
आईएसबीएन :81-8113-018-9

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आशापूर्णा देवी का लेखन उनका निजी संसार नहीं है। वे हमारे आस-पास फैले संसार का विस्तारमात्र हैं। इनके उपन्यास मूलतः नारी केन्द्रित होते हैं...


आज लेकर चार दिन हुये।
ईंटा हाथ से गिरा बरामदे पर ही धम्म से बैठ जाती है तुलसी।

तुलसी की बातों से जलभुन कर उसे घर छोड़ने का काम राजेन व जग्गू पर छोड़ तेज-तेज कदमों से घर पहुँच सुखेन ज्वालामुखी-सा लावा उगल रहा है।
मगर यह गुस्सा किस पर? यह मामूली नहीं।
क्या तुलसी पर?
ऐसी जलाने लायक बातें कहती है तुलसी भी! मगर क्या वह गलत कहती है? अकेले तुलसी के हाथ इस अन्धेरी रात में इतनी राह चलते-चलते क्या उसका एक बार भी तुलसी को छूने का मन न करता? जरूर करता, एक बार तो वह इच्छा व्यक्त भी हो पड़ी थी। इतने दिनों बाद आज तुलसी ने उसी का ताना दे दिया।
अच्छा, किस बात का इतना गरूर है उसको?
सुखेन के दिमाग में आग लगी हुई है।
पश्चाताप की आग।

इसलिये सुखेर उल्टी गंगा बहाने की कोशिश करता है। सोचता है, तुलसी खुद ही कौन बहुत पवित्र है? हुँह, काम तो करती है अस्पताल में! दुनिया भर के लोगों का आना-जाना है वहाँ। उन बूढ़े-बदमाशों के बीच रहने के बावजूद भी तू कहना चाहती है कि तू अभी तुलसी की पत्ती है! तू कहेगी और मैं मान लूँगा? आज तूने राजेन और जग्गू के सामने मुझे नीचा दिखाया। ठीक है देख लूँगा मैं भी।
आज उसका बाप भी नहीं जग रहा है, बुआ से भी इतनी रात जगा न गया था। सुखेन ने देखा कि कमरे के कोने में लोहे की जाली से ढँकी उसकी थाली लगी रखी है। ढक्कन उठा कर देखा, तामचीनी की तस्तरी में न जाने किस चीज की सब्जी और रोटियाँ रखी हैं। और कुछ नहीं। अचार का एक कण भी नहीं।

खाने की शकल देख उसकी तबीयत घिना गई। फिर ढक्कन लगा कर रख दिया।
छोटा-सा शब्द।
मगर बुआ के कान बहुत सतर्क हैं, नींद बड़ी पतली। बोली, 'आ गया सुखेन? इतनी रात तक कहाँ रहता है रें?'
बुआ की बात सुनते ही सुखेन के तन-बदन में आग भड़क उठी।
उसने जवाब दिया, जहन्नुम में।'

इस बात को सुखेन एक बार भी नहीं सोचता कि पोपले मुँह वाली यह काली, बज्रमूर्ख' झगड़ालू बुढ़िया अगर न होती तो उसका क्या हाल होता। घर आते ही उसका कर्कश स्वर सुनाई दे जाने के कारण वह सिर्फ क्रोधित होता है।
रेल के कुलियों के घरों में भी एक-एक घरवाली है। नहीं है तो सुखेन के घर में। और सुखेन का ख्याल है कि यह उसके खूँसट बाप और कर्कशा बुआ के षडयंत्र का फल है। तर्क देता है सुखेन-उसकी जैसे नौकरियाँ जो लोग करते हैं, क्या उनकी शादियाँ नही होतीं।
'ठीक है। मत करो मेरी शादी। अब मैं भी कुछ न कुछ गड़बड़ कर ही डालूँगा!' सुखेन ने प्रतिज्ञा की, मानों कोई बहुत बड़ी बहादुरी करने चला है।

हँसने के लायक बात यह है कि इस अपने और ओछे काम को करने के लिये भी सुखेन को ताल ठोंक कर अखाड़े में उतरना पड़ रहा है। यह भी हँसने लायक बात है कि आज तक सुखेन ऐसा कर न सका था। कुली, मजदूर, बाबू भद्रपुरुष स्कूल-मास्टर, बेरोजगार निठल्ले, इस रेल स्टेशन के आसपास रहने वाले तमाम लोग जिस को बड़ी आसानी से करते चले आ रहे हैं।

सुखेन यह काम कर नही सका था, क्योंकि न जाने कहाँ उसके मन में एक डर था, एक अदृश्य बन्धन। उसे ऐसा लगता कि अगर वह सच ही कुछ गड़बड़ कर बैठा तो किसी के सामने उसकी पेशी होगी, जवाब तलब किया जायेगा उससे। अगर वह कोई गलत काम कर बैठेगा तो उसके सामने फिर कभी मुँह उठा कर खड़ा न हो सकेगा।

क्यों, मालूम नहीं, पर बचपन से ही सुखेन का ख्याल था, उसे पूरी तरह इस बात का यकीन था कि तुलसी उसकी है। भले ही तुलसी ननी की दुकान में रोज ही मुफ्त में काम करती रहे, भले ही वह रेल क्वार्टर में रहने वालों के यहाँ नौकरी करती हो, भले ही वह राजेन और जग्गू के साथ दाँत निपोरती, बीड़ी पीती फिरे, लेकिन उस पर अधिकार एकमात्र सुखेन का ही है। जब वक्त आयेगा, साधिकार हाथ बढ़ा सुखेन अपना लेगा उसे। इन्तजार है सुखेन के बड़े होने का, इन्तजार है सिर्फ सुखेन की नौकरी लगने का।

यह तो खैर सुखेन की बदकिस्मती का करिश्मा है कि सुखेन के बड़े होते न होते, नौकरी लगते न लगते तुलसी भी बड़ी हो गई। बड़ी ही नहीं हुई, सुखेन से बहुत-बहुत आगे निकल गई। पता ही नहीं चला कि यह ट्रेनिंग लेने का ख्याल तुलसी के दिमाग में कैसे आया और किस तरह ट्रेनिंग लेकर चटपट नौकरी हासिल कर ली उसने। सुखेन ने एक दिन अवाक् होकर देखा-तुलसी उसे पछाड़ कर बहुत आगे बढ़ गई है।

क्या ऐसी बातें केवल सुखेन ही सोचता है?
राजेन और जग्गू नहीं?
उनके मन में ऐसी बातें नहीं आतीं?

यह दोनों भी तो सुखेन के हर वक्त के साथी थे। और सब के मन की मीत थी यह तुलसी। जहाँ भी नौकरी करती हो, तुलसी काम से फुर्सत निकाल जरूर आती इनसे मिलने। इनके साथ खेलने। उनका सब से प्रिय खेल रेलवे यार्ड की साइडिंग में खड़े रेल के डिब्बे में चढ़ जाना। फिर उसके गद्दीदार सीटों पर बैठ पाँव नचाना। उसके अपरवर्थ पर चढ़ना और मुँह से सीटी बजा, अचल ट्रेन को सचल ट्रेन की भूमिका देना। एक खेल और था, खाली गाड़ी के एक दरवाजे से चढ़ दूसरे से कूद जाना।

जिस समय वे यह सब खेल खेला करते, उस समय उनमें से कोई भी बहुत छोटा न था, पर इन खेलों को खेलते समय वे लड़के बुरे न लगते, बुरी लगती तुलसी। वैसे तुलसी उम्र में इन से बड़ी तो नहीं ही है, छोटी ही हैं, पर लड़कों के बड़े होने और लड़की के बड़ी होने में बड़ा अन्तर होता है। तभी तो गाँव-घर में लड़की के बढ़ने की केले के पेड़ के बढ़ने के साथ तुलना की जाती है।
सुन्दर सेहत के साथ तुलसी के अंगों में लहलहाते केले के पेड़ का लावण्य। सस्ते छींट के कॉक से ढँके उसके शरीर की ओर मुग्ध दृष्टि से देखते रहते सब लोग। सब लोग यानी वे लोग जो इसी तरह देखा करते हैं।

जिन लोगों के घरों में काम करती वह, वे देखते। देखते और ईर्ष्या की आग में झुलसते रहते। क्या खाकर ऐसी सेहत, ऐसे लावण्य की अधिकारिणी हुई है यह छोकरी! हम तो अपने बच्चों की इतनी देखभाल, इतनी सेवा, टहल करते हैं, इतना कुछ खिलाते पिलाते हैं, पर उनके शरीर तो दुबले-पतले, मरियल से ही रह जाते हैं।
खेलते समय तुलसी अकसर दल बदलती। कभी सुखेन से, कभी राजेन से और कभी जग्गू से कहती, 'आ रे आज हम दोनों अलग खेलें। आज उनसे कुट्टी है हमारी।' तो फिर सुख-स्वप्न देखने में बाधा क्या? तीनों ही अपनी-अपनी कल्पना में डूबे बड़े होते रहे।

जब तुलसी अस्पताल की नौकरी पाकर चली गई, अलग हो गई इनसे, तब तीनों को बड़ी चोट लगी थी, पर तुलसी इन्हें भूली नहीं थी। यही उनके लिये बहुत बड़ी इनायत थी। मौके दर मौके तुलसी उनकी ताश की मजलिस में आ जाती है, इसी से पता चलता है कि उन्हें भूली नहीं है तुलसी।
और अभी तक भी तो वह बिना शादी किये ही घूम-फिर रही है।

जब कभी तुलसी सामने आती है, इन्हीं कारणों से, उस मुरझा गये आशा तरु में फिर-फिर बौर आते रहते हैं, तुलसी को देखते ही मन मयूर पंख फैला देता है। अगर इन लोगों की शादियाँ हुई होती, घर-गृहस्थी बस गई होती, तो हो सकता है यह मोह भी खत्म हो चुका होता। तब, आते-जाते राह चलते अगर तुलसी कभी दिखाई पड़ जाती तो सौजन्य से सिर्फ इतना पूछा जाता, क्योंरे तुलसी, क्या हाल है?'

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