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नारी विमर्श >> तुलसी

तुलसी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :72
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6390
आईएसबीएन :81-8113-018-9

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आशापूर्णा देवी का लेखन उनका निजी संसार नहीं है। वे हमारे आस-पास फैले संसार का विस्तारमात्र हैं। इनके उपन्यास मूलतः नारी केन्द्रित होते हैं...


उसकी तरफ देखता रहा राजेन। फिर पूछा, 'क्यों रे तुलसी, इतनी जरा सी देर में क्या हो गया रे?'

'होता क्या? उसे थोड़ा चिढ़ा दिया मैंने। चिढ़ाने से जो चिढ़ जाते हैं, उन्हें छेड़ने में मुझे बड़ा मजा आता है।'
'और उनका क्या जो अपने आप ही खार खाये बैठे हैं?'
'उन्हें देख करे? ऐसी रात-विरात?'
नहीं। उन्हें देख मजा नहीं आता तुलसी को। उन्हें देख उसके रोंगटे खड़े हो जाते हैं। खून जम जाता है।

राजेन और जग्गू तुलसी के घर के सामने का लकड़ी वाला फाटक खोल उसे घर के चौक तक छोड़ कर चले गये। कमरा एक ही है तो क्या घर तुलसी को अच्छा मिला है। अच्छा है तो क्या, इस घर में रह ही कितनी देर पाती है तुलसी? दिन आते और चले जाते हैं, रातों के बाद रातें आतीं और चली जाती है, तुलसी के किवाड़ पर ताला पड़ा रहता है। तुलसी ड्यूटी पर होती है। फिर भी यह उसका अपना है। जब यहाँ होती है तब आजादी से साँस लेती है। और भी एक बात है। घर आने पर वह अपने हाथ का बनाया खाना भी खा सकती है। दूसरी जो आया और है, वो जहाँ काम करती है, खाना भी वहीं खाना पसन्द करतीं है। खाना लेने के कारण पैसे जरा कम जरूर हो जाते हैं, पर भरपेट जा वे अपने नुकसान को पूरा कर लेतीं हैं। तुलसी लेकिन ऐसा नहीं करती। और लोगों का कहना है कि 'तुलसी की खुराक बहुत कम है, इसलिये पूरी तनख्वाह लेती है।'
आते-आते राजेन ने पूछा था, 'अभी जा तुझे खाना पकाना पड़ेगा?'
'क्यों? किस दुश्मन के लिये?' हँस कर तुलसी ने कहा था, सुबह के चावल में से निकाल कर रख दिया था, नींबू के पेड़ से पत्ती तोड़ लूँगी। बस बढ़िया खाना हो जायेगा।'
'बस? इसी से पेट भर जायेगा? और कुछ नहीं खायेगी?'
'तूने क्या यह सोचा था कि मैं अपने लिये बिरियानी और कोफते बनाऊँगी?'

बेवकूफ जग्गू ने कहा, 'अगर यह खाना है, तो इतना-इतना मेहनत कर अपनी देह क्यों झुलसाती है रे तुलसी! पेट भर खाने के लिये ही तो आदमी नौकरी करता है।'
उसकी बात पर संजीदा हो तुलसी ने कहा, 'नहीं। पैसे सिर्फ खाने के लिये ही नहीं चाहिये। ढंग से रहना ज्यादा जरूरी है। पैसे उसके लिये ज्यादा जरूरी हैं।'
उसके बाद वह घर पहुँच गई।

फाटक पर एक कुत्ता लेटा था। उसे राजेन ने शोर मचा कर भगा दिया था। पर, तुलसी के बरामदे में एक और जीव दुबका पड़ा था उसे राजेन जग्गू ने नहीं देखा था। देख नहीं पाये थे।
उनके साथ बात करती हुई जब तुलसी आ रही थी, तब वह सतर्क हो बरामदे के खम्भे की आड़ में छिप कर खड़ा हो गया था। राजेन, जग्गू के जाते ही सामने आया वह।

अन्धेरे में भी पहचानते देर न लगी, तुलसी को। चीख पड़ी वह, 'यहाँ क्यों? क्या कारण है यहाँ आने का?'
अन्धेरे में छिपी उस मूर्ति ने सावधान किया, चुप! धीरे बोलो! मैंने पता लगाया है कि आज तुम्हारी नाइट ड्यूटी नहीं है।'
'इसलिये आप यहाँ आये हैं? छि:! छि:!! आत्म सम्मान का जरा भी बोध नहीं है आप में? ठीक है, मेरे साथी अभी ज्यादा दूर नहीं गये हैं बुलाती हूँ उन्हें।'
बरामदे से उतरने को होती है तुलसी। पीछे से कोई उसकी बाँह पकड़ कर खींचता है। दबे-दबे स्वर में कोई गरज उठता है, 'क्या? तुम्हारे उन पहरेदारों को? उन नीच, बदमाश, लुच्चों को? इतने सुहाते हैं वे तुम्हें?'

तुलसी की बाँह किसी की पकड़ में। खींचतान नही करती वह। बड़ी शान्ति से कहती है, 'आपका अनुमान बिल्कुल सच है डाक्टर साहब। खुद मैं भी तो उन्हीं की जैसी हूँ न? नीच, बदमाश। इसी वजह से जब उनके साथ रहती हूँ, तो बड़ी शान्ति से रहती हूँ। अच्छे-भले लोगों को देखते ही उबकाई आती है मुझे।'
'ऐसी बात है? बातें बनाना तो खूब सीख गई है! पता है तुझे कि मैं तेरी नौकरी का खात्मा करा सकता हूँ?'

क्यों नहीं पता है डाक्टर साहब! मेरी इस्मत का खात्मा कर सकते हैं आप, भला नौकरी का खात्मा करना ऐसा कौन-सा मुश्किल काम है आपके लिये! पर यह बताइये कि मुझे नौकरी से हटवा देने में आपका कौन-सा गौरव बढ़ेगा?'
अंधेरे में छिपी उस मूर्ति का स्वर सहसा कोमल हुआ। कहा, क्योंरे, अपने कमरे में जरा बैठने को तो कहेगी? इतनी दूर से, इतनी तकलीफ उठा कर आया हूँ।'
तकलीफ तो आपने अपनी खुशी से उठाई है। इसके लिये मैं क्या कर सकती हूँ?'
वह स्वर और कोमल' होता है, 'अच्छा तुलसी, क्या बात है? क्यों तू हर वक्त इतना अकड़ी रहती है? चल कमरा खोल बैठने दे।'
'नहीं।'

'नहीं? साफ मनाही?' उस स्वर का आक्रोश और लोलुपता निर्मल बैसाखी वायु को गन्दा करता हुआ फूटता है, तुझसे तो मैं कह चुका हूँ बाबा, कि तुझको ही हेड आया बना दूँगा। वह जो सब बूढ़ी-अधबूढ़ी आयाएँ हैं, वे सारी, तेरे ही अण्डर रहेगी। याद नहीं है तुझे?'
याद तो है। बदले में मुझे भी तो आपके अण्डर में रहना पड़ेगा, यही न?'
अब तक दबा था जो आक्रोश वह फट पडा, 'अगर ऐसा होगा तो तेरे लिये वह स्वर्ग के समान होगा, समझीं?' 

'समझ तो गई डाक्टर साहब। मगर दिक्कत यह है कि स्वर्ग का सुख सबको सहता नहीं।'
सो क्यों सहेगा? सहेगा तुझे उन नर्क के कीड़ों के साथ हँसना-बोलना। क्या कमाल की पसन्द है रे तेरी तुलसी! खैर, तू अपना कमरा खोल। बहुत देर से खड़ा हूँ अब बिना बैठे रहा नहीं जा रहा। चल रे चल, कमरा खोल, बत्ती जला। जरा देखूँ तो सही कि इन्सान से बात कर रहा हूँ या चुड़ैल से।'

तुलसी हँसती है। धीरे नहीं, खूब जोर से हँसती है वह। कहती है  'आपने ठीक ही अनुमान लगाया है डाक्टर साहब। चुड़ैल ही हूँ मैं। बस अभी फौरन चले जाइये, नहीं तो...'
'इतने जोर-जोर से हँसती क्यों है?' उस स्वर से खुशामद झरती है, 'चाहती क्या है तू? क्या तू मुझे दुनिया के सामने नीचा दिखाना चाहती है? क्या तुझमें जरा भी दया या ममता नहीं है? अपनी इज्जत आबरू ताक पर रख तुझ से दो घड़ी बोलने-बतियाने आया हूँ और तू...अरे वहाँ क्या टटोल रही है, कुंजी गिरा दी क्या?'
'नहीं, नहीं। कुंजी-ताला ठीक-ठाक है। मैं अपने किवाड़ के पास ईंटा-पत्थर रखा करती हूँ, कुत्ते-उत्ते मारने के काम आते हैं। देखा नहीं था आपने उस दिन? जरूर देखा होगा। सो, वही एक ईंटा उठा रही हूँ, अगर कोई कुत्ता भूँकने लगे तब जड़ दूँगी उसके।'

यह क्या रे? क्या तू सच ही में मुझे ईंटा उठा कर मारेगी?' डरे हुये प्रौढ़ का शिथिल स्वर काँप उठता है। 'उतार, नीचे फेंक उस ईंट को।'
तुलसी का स्वर स्थिर है। कहती है, 'घबरा क्यों रहे हैं डाक्टर साहब? कह तो दिया कि कुत्ता भूँकेगा तो उसे मारूँगी। आपको क्यों मारने लगी मैं?' 
'इतना गरूर।' उस अन्धकार में साँप सा फुँफकारा कोई, ठीक है। देख लूँगा मैं भी इस करणपुरा में केसे तू खाती-कमाती है। नीच नहीं तो!' एक छायमूर्ति बरामदे से नीचे उतरने लगती है।
साँप की फुँफकार-सा वह स्वर जाते-जाते कहता जाता है, 'चली है गरूर दिखाने! बदजात औरत! अभी तक जिसके जिस्म में बीड़ी की गन्ध निकल रही है वह अस्मत की बात करती है। इसलिये लोग कहते हैं...'
लोग क्या कहते हैं, यह सुना न गया। 

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