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नारी विमर्श >> तुलसी

तुलसी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :72
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6390
आईएसबीएन :81-8113-018-9

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आशापूर्णा देवी का लेखन उनका निजी संसार नहीं है। वे हमारे आस-पास फैले संसार का विस्तारमात्र हैं। इनके उपन्यास मूलतः नारी केन्द्रित होते हैं...


कब?'
'जब सनीचर का उदय हुआ।'
'सनीचर का उदय तो ननी भैया तुम लोगों कीं कुण्डली में आज नहीं हुआ है, वह तो हमेशा से ही तुम्हारे साथ हैं।'
'मगर हमारे खेल का सत्यानाश तो तू जिन दिनों आती है उन्हीं दिनों होता है।'
'उसमें मेरा क्या दोष-हैं ननी भैया? जिस दिन मुझे जरा फुर्सत मिलती है, पुराने दोस्तों से मिलने को मन करता है, इसीलिये चली आती हूँ। इधर तुम लोगों का यह हाल है, कि तुम यही बात मन में गांठे बैठे हो कि तुलसी औरत है।'

'जो सच है, उसमें गाँठने का क्या है रे तुलसी! तू क्या भगवान के नियमों का भी उलट फेर करना चाहती है?'
'भगवान के नियम?' उदास हो तुलसी बोली, 'होगी। पता नहीं। भगवान कैसे हैं, क्या हैं उनके नियम-कानून, वह सब तो मुझे कुछ पता नहीं। भगवान तो कभी मिले नहीं। जिन्दगी भर तो सिर्फ भूत-प्रेत, दैत्य-दानवों से ही पाला पड़ता रहा है मेरा।' कह कर तुलसी उठ खड़ी हुई। ऐन उसी वक्त पद्मा की आवाज सुनाई दे गई, 'क्यों रे ननी आज खाना-वाना नहीं खाना है क्या?'
तुलसी की आँखों में शैतानी चमकी। उसने पुकारकर जोर से कहा, 'कब का यह खेल खत्म हो गया होता पद्मा दीदी, पर मैं आ गई थी न, इसलिये इन्हें देर हो गई। जा रही हूँ अब मैं।'

मन में तो पद्मा ने जरूर कहा होगा, 'जा, मर जाकर चुड़ैल। चैन आवे मुझे।' पर आमने-सामने ऐसी बात कहने की हिम्मत कहाँ? पहले तुलसी को जैसे दुरदुराया जा सकता था, अब तो वैसा किया नहीं जा सकता न। अब तुलसी की अपनी प्रतिष्ठा है, पोजीशन है। इसीलिये सौजन्य जताती कहती है पद्मा, 'हाय राम। तू आई है? तो अभी आकर ही चली क्यों जायेगी री? आई है पुराने दोस्तों के पास, बैठ, बातचीत कर, ताश-वाश खेल।'
'सिर्फ उन्हीं के पास तो नहीं, आई थी पद्मा दीदी, सोचा था, लगे हाथों तुम्हारे चरण भी छूती चलूँगी, कहती तुलसी आगे बढ़ी।
पद्मा की आचारशीलता सर्वजन विदित है। इसलिये तुलसी के चेहरे पर कौतुक की द्युति चमक रही थी।

'रहने दे, रहने दे। अब तुझे मेरे चरण रज नहीं लेना है, कहती पद्मा ने फटाक से दरवाजा बन्द कर दिया। वह वही किवाड़ है, जिसकी आड़ से वह कम से कम चौदह बार झाँक गई है। दरवाजा बन्द होते ही तुलसी ने हँसना शुरू किया। तुलसी जब हँसती है तब लगता ही नहीं कि उसकी आयु अट्ठाइस साल की है। जब तुलसी आठ साल की थी तब अपनी चाची की माँ को छू लेने की धमकी दे इसी तरह हँसा करती थी।

वह बुढ़िया भी 'आचार संहिता' की जानकार ही नहीं, निष्ठा से मानने वाली भी थी।
बुढ़िया रहती थी दामाद के घर में ही, और रात दिन दामाद के पुरखों को गालियाँ देना ही उसका काम था। इसकी वजह यह थी कि केवल तुलसी ही नहीं, उसका चचेरा भाई बिन्दा भी उसे तंग किया करता था। उसका सर्वप्रिय खेल था-जानबूझ कर कूड़ा छू कर बुढ़िया को यह चिढ़ाना कि अब छू दिया तुम्हें, तब छू दिया।
तुलसी की चाची का कहना था कि बिन्दा का कोई दोष नहीं है। यह बदजात तुलसी ही उसे यह बुरी बातें सिखाती रहती है। 'अगर यह हरामजादी, माँ-बाप को खाकर मेरी गृहस्थी में न आती, तब

बिन्दा कभी भी ऐसा न होता' तुलसी की चाची का यही रोना था।
मगर तुलसी भी बड़ी हिम्मतवाली थी। दूसरे के टुकड़ों-पर पलने वाली यह अनाथ लड़की अपनी चाची के मुँह पर अनायास कहती, 'इनकी गृहस्थी! क्यों क्या हम कोई नहीं? यह घर तो चाचा का है, बिन्दा का है, मेरा है और पुँटु का है। पराई तो तुम हो, दूसरे घर की लड़की।'
कहाँ से आया था, कौन देता था, तुलसी को इतना साहस!

उसकी चाची उसे धक्के देकर निकालने आती तो तुलसी हँस-हँस कर कहती, 'देख लो नानी, तुम्हारी लड़की मुझे छूने आ रही है। उसके बाद ही वह तुम्हारे चौके में जायेगी। याद रखना मैं अभी कूड़ेदान को छूकर आ रही हूँ।
श्राप?
गालियाँ?

इन सबों से तुलसी का कुछ नहीं होता था। अब तक वे तुलसी को बर्दाश्त कर सके, करते रहे, जब कर न सके तो अपने गाँव के 'घोषाल' की बेटी-दामाद के साथ उसे रवाना कर दिया। घोषाल का दामाद करणपुर का 'रेल बाबू' था। उसके बाद का इतिहास तो सारी दुनिया जानती है।
अपने घर पर रवाना करने के पहले तुलसी के चाचा ने एक दिन घरवाली की आँख बचा कर तुलसी से, प्यार से पीठ पर हाथ फेरकर कहा था 'इसमें तेरा भला ही होगा बेटी। यहाँ तो तुझे कितने-कितने कष्टों के बीच रहना पड़ रहा है। खाने का कष्ट, पहनने का कष्ट....'

प्रचण्ड क्षोभ सें मूक हो गई थी तुलसी। वैसे घोषाल की बेटी ने उसे लुभाने के लिये उसे बड़े-बड़े सब्ज बाग दिखाये थे। यहाँ तक कि, उसी वक्त बाजार जाकर उसके लिये सस्ते छींट का एक फ्रॉक भी ले आई थी और तुलसी को वो वह फ्रॉक थमाती हुई बोली थी, 'इसे पहन, परसों रेलगाड़ी में बैठना। ऐसी और बहुत सी फ्रॉक ला दूँगी तुझे। यह वही फ्रॉक है जो 'बटन हीन' होकर भी तुलसी के गले से लटकता रहा।

क्षोम से तुलसी जैसे एक ओर मूक हो गई थी वैसे ही थी और कभी न देखी हुई दुनिया को देखने। जानने की इच्छा भी जागी थी उसके मन में। रेलगाड़ी....बहुत-बहुत दूर के देश-रेलक्वार्टर के मकान जिनकी छतों से रेलगाड़ी का आना-जाना दिखाई पड़ता है, इंजन की सीटी सुनाई पड़ती है। कैसी है वह दुनिया?

इंजन की सीटी उसे दूर से ही पुकार रही थी-इसीलिये चली आई थी तुलसी। अगर अपनी मर्जी से वह न आती, तो क्या मजाल था कि चाचा घोषाल की बेटी के हाथों तुलसी नाम की लड़की को सौंप देती? उस वक्त उसकी उम्र सिर्फ आठ साल थी तो क्या, वह बड़ी आसानी से बड़े सैलाब को तैर कर इस पार-उस पार हो सकती थी, ऊँचे पेड़ पर चढ़ सकती थी, चाहती तो दो-चार मील पैदल चल कर दूसरे गाँव पहुँच जाती। अगर तुलसी अपनी खुशी से पकड़ में न आती, तो औरों में यह क्षमता थी ही नहीं कि उसे पकड़ कर पिंजड़े में बन्द करें। क्षोभ से हो या नई दुनिया देखने की इच्छा से हो, तुलसी अपनी खुशी से आकर पिंजड़े में कैद हुई थी। करणपुर आने के बाद घोषाल की बेटी के पास जब भी मायके से पत्र आता तो वह तुलसी को पुकार कर कहती, 'ओ तुलसी सुन, मेरी भावज का खत आया है। लिखा है कि तेरे चाचा-चाची सकुशल हैं, पुँटु बिन्दावन राजी खुशी है। तुझे यह समाचार सुनाने को कहा है उन्होंने।' तुलसी को मगर उनके कुशल क्षेम सुनने की इच्छा भी नहीं होती। घोषाल की कन्या की बात पूरी होने के पहले ही वह कमरे से बाहर हो जाती।

जाते-जाते कहती जाती, 'उनका हाल सुन कर मुझे कौन-सा स्वर्गसुख मिलेगा?
'वाह री लड़की।' कहते घोषाल के दामाद, 'जान-सुन कर भी तुम मायके से ऐसी बिच्छू ले आईं। धन्य तुम्हारी बुद्धि को!'
आड़ से उनकी बातें तुलसी मुँह बिचकाती।

विधाता ने तुलसी का जिगर किस धातु से गढ़ा था, कौन जाने। क्या वह लोहे का था? या पत्थर का? या वह इस्पात से बना था?
तुलसी की हँसी बाहर के अन्धकार को चीर कर रख देती है। ननी ने कहा, 'दीदी को चिढ़ा कर तुझे क्या मिलता है तुलसी?'
रुकती नहीं तुलसी। और हँसती है। कहती है, 'क्या पता सिर्फ दीदी को ही नहीं, हरेक को। चिढ़ाने में ही खुशी होती है मुझे।'
खेल खत्म हो गया था। चलने को तैयार हो सब उठ आये थे दुकान से।

सड़क पर आते ही सुखेन ने कहा, 'इतनी जल्दी क्या है तुलसी? जरा धीरे चल। मैं तेरे साथ चल रहा हूँ, छोड़ दूँगा तुझे तेरे घर पर।'
सुखेन का घर तुलसी की कोठरी के रास्ते में ही पड़ता है। थोड़ी दूर चल कर वह उसे उसके घर तक छोड़ सकता है। राजेन, जग्गू का घर उल्टी तरफ है।
'घर तक छोड़ देगा?' चलते-चलते रुक गई तुलसी। 'अगर मुझे घर ही छोड़ना है, तो चलो। तीनों चलो।

'तीनों? उनका घर किधर और तेरा किधर है?'
'तब जाने दे। मैं अकेले ही चली जाऊँगी, किसी को नहीं जाना है मेरे साथ।'
'क्यों? नाराज क्यों हो रही है तू?'
'नाराज? नहीं बिल्कुल नहीं।' धीरे से तुलसी ने कहा, 'नाराजगी नहीं अविश्वास।'
'अविश्वास?' सुखेन चकराया।
'नहीं तो क्या? तेरी जात ही विश्वासघातक है। घर छोड़ने के नाम के साथ चलते-चलते, हाथ पकड़े तो कोई ताज्जुब है?'
'ऐसा कब हुआ है रे तुलसी?'
मौका देती तो जरूर होता। मैंने कभी मौका ही नहीं दिया। ऐ राजेन,
जग्गू इधर आ जल्दी।'
'क्यों? उधर क्यों?'
'मुझे घर तक छोड़ दे।'
'सुखेन तो जा रहा है।'
'सिर्फ उसके साथ डर कम नहीं होता। कई और एक साथ हों तो हिम्मत पड़ती है।'
रात काफी हो चुकी थी इतना चलने का मन भी नहीं हो रहा था, पर यह निमंत्रण प्रत्याख्यान करने लायक भी तो नहीं! दोनों उल्टे रास्ते चले।
'ठीक है, तुम ही दोनों जाओ उसके साथ, कह कर सुखेन तेज कदमों से अपने रास्ते चल पड़ा।

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