लोगों की राय

नारी विमर्श >> तुलसी

तुलसी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :72
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6390
आईएसबीएन :81-8113-018-9

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

124 पाठक हैं

आशापूर्णा देवी का लेखन उनका निजी संसार नहीं है। वे हमारे आस-पास फैले संसार का विस्तारमात्र हैं। इनके उपन्यास मूलतः नारी केन्द्रित होते हैं...


'तो फिर, तुम तीनों में अभी कोई शादी-वादी नहीं कर रहा है।' नई बाजी के पत्ते उठाती हुई तुलसी ने पूछा।
'किस से पूछ रही है?'
'सब से।'
सुखेन ही हर वक्त प्रधान वक्ता होता है। इस वक्त भी उसी ने जवाब दिया। कहा,'क्या कहने हैं तेरे! अपने खाने का ठिकाना नहीं, घर-घर दावत देने चले हैं! हुँ ह! शादी! क्या बात है तुलसी, हमारी फिक्र में क्यों घुलने लगी तू? मामला क्या है?'
'अरे मामला क्या होगा? पुरानी दोस्ती है, इसलिये पूछा। ले, चल किसकी बारी है? पहले किसे ताश देना है?'
'शादी' शब्द ही मधुर है।

हरेक के मन में थोड़ी बहुत खलबली मच गई। इसलिये ताश के पत्ते फेंकते-फेंकते, राजेन'कुछ अपने से कुछ जग से' कहने के ढंग से कहता है,'क्यों रें तुलसी आयागीरी के साथ-साथ आजकल तो तू लोगों की शादियाँ तय कराने का काम भी करने लगी है क्या?'
'कौन कहता है बुरा है? तो तेरे जान-पहचान में है कोई ब्याहने लायक लड़की?' 
'है।'
कहाँ? कहाँ?'

बताने से फायदा क्या? तुम तीनों में से जब शादी करने को कोई तैयार ही नहीं, क्यों फिजूल बात बढ़ाऊँ?'
'तुलसी रें! शादी करने का मन किसे नहीं हैं?' मूर्ख जग्गू बोल पड़ा है, 'घरवाली के बिना, घर ही नहीं, जगत् सूना है! पर हमारे जैसे अभागों को लड़की अपनी देगा कौन?'
ऐसी क्या बात है? इस दुनिया में राजा के लिये जैसे रानी है, वैसे ही काने के लिये कानी भी तो हैं। लड़की जो है सो, तेरे बराबर की ही होती। हाय! बातों-बातों में मैंने गलत ताश दे दिया। अरे ननी भैया, गये नहीं तुम खाना खाने?'

ननी ने गम्भीर होकर कहा, मेरे रहने से तुझे क्या तकलीफ है।
'मुझे? मुझे भला क्या तकलीफ होगी? इतनी ही देर में पद्मा। दीदी तीन बार झाँक गई है, इसलिये कह रही थी।'
उनके झाँकने की वजह कुछ और है।'
'यह बात है? तब तो मानना ही पड़ेगा कि पद्मा दीदी में अभी बहुत एनर्जी है।' तुलसी ने जोर-जोर से कहा।
बाहरी दुनिया में तुलसी ने बातचीत के बहुत तरीके सीखे हैं। अपने मामलों में भी उनका प्रयोग करते नहीं चूकती वह। आजकल दिन भर की मेहनत के बाद यह नहीं कहती कि बड़ी थकान है, कहती है, बहुत टायर्ड लग रहा है।' इसमें मेरी रुचि नहीं के बदते कहती है, 'इसमें इन्टरेस्ट नहीं।' सारी रात न कह तुलसी क्हती है 'होल नाइट'। सारा दिन को कहती है 'होल डे।' यह सब शायद उसको 'डे-ड्यूटी' 'नाइट ड्यूटी' की देन है।
'क्यों रें तुलसी, तुझे देर नहीं हो रही है?' ननी कहता है।

ननी जानता है कि उसकी बहन की आँखों में यह लड़की किरकिरी से भी ज्यादा चुभती है। उसे यह भी मालूम है कि वह जो, जब तब यहाँ आ धमकती है और इन रस्सी टूटे बैलों के साथ ताश खेलती है और सिगरेट फूँकती है, यह उसकी बहन को तिलमिला देने के लिये बहुत है। इसीलिये वह जरा रोक-थाम करने की कोशिश करती है।

ननी की इस घबराहट को तुलसी जानती है, इससे उसे बड़ा मजा आता है। वह तपाक से कहती है, 'क्या जाने क्या कहते हो ननी भैया! चुड़ैलों की जैसे सालगिरह नहीं होती, तुलसी को भी कभी देर नहीं होती। इस करणपुर के जितने भूत-प्रेत, दानों-दैत्य हैं, सब से मेरी जान पहचान है। रात को जब घर लौटती हूँ तब उन्हीं से गप-शप करती चली जाती हूँ।'

सुखेन ने व्यंग्य से कहा, 'तेरे कहने का मतलब यह तो नहीं कि तेरी राह में वे ओंखें बिछाये इन्तजार करते होते हैं!'
'ऐसे तो हो ही सकता है। भूत तो मनुष्य की गन्ध से ही खिंचे चले आते हैं।'
'आज नाइट ड्यूटी नहीं है तेरी?'
'है। रात के बारह बजे के बाद। आपरेशन होगा।'
'तो तेरा क्या? नर्स तो नहीं है तू।'
इस बात को सुन तुलसी के मुख पर आत्मप्रत्यय भाव चमका। उसने कहा, 'नहीं हूँ तो क्या है? नर्सिंग पास की हुई नर्सों से ज्यादा विश्वास रखते हैं डाँक्टर लोग मुझ पर।'
'सो तो जरूर रखते होंगे!' राजेन भी क्यों पीछे हटता? 'नौजवान डॉक्टरों की बात कह रही है न?'
'नौजवान? अब और ज्यादा मत हँसा मुझे राजेन!'

हँसाने को तुलसी ने मना जरूर किया, पर हंस-हँसकर दोहरी होती हुई वह बोली, तू सोचता है कि नौजवान ही पापी होते हैं, न? मगर सच पूछे तो बताऊँ, वे अच्छे होते हैं। असल पाजी तो हैं वह बूढ़े बदजात।'
'अच्छा? तो यह ज्ञान भी मिल गया है तुझे?' हाथ के ताशों को फेंक सुखेन ने कहा, तो फिर 'नाइट डयूटी' का वक्त सिर्फ बीमारी के साथ ही नहीं गुजारना पड़ता!'
'देख सुखेन, इस तरह बात मत किया कर! बाज वक्त तेरी बातों से जी ऐसा जल जाता है कि तबीयत होती है कि तुझे जान से मार कर फाँसी चढ़ जाऊँ। ताश फेंक क्यों दिये तूनै?'
'अब अच्छा नहीं लग रहा है।'

लगेगा, जरा धुँआ पी। हाय, तौबा! अब तो सिगरेट भी नहीं है मेरे पास...ला, अपने पास से एक बीड़ी ही दे।'
ननी जरा हिल-डुल कर फिर ठीक से बैठता हुआ बोला, क्या री, तुझे तो बीडी की महक से चक्कर आता है न?'
'आता तो है। पर अभी तो सुखेन की बात सुन कर यों ही ऐसे मूड 'ऑफ' हो गया है कि उसी से चक्कर आने लगा है। अब जहर से जहर उतारना है।'
चार-चार मर्दों के बीच बैठी निःसंकोच बीड़ी फूँकती जाती है तुलसी। उसके हालचाल देख कर यही लगता है कि वह भी सुखेन राजेन की 'जोड़ीदार' है।
'तो अब ताश खेला नहीं जायेगा न?' बिखरे पत्तों को बीनता हुआ ननी बोला, मैं तभी जान गया था।'

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book