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नारी विमर्श >> चैत की दोपहर में

चैत की दोपहर में

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6393
आईएसबीएन :0000000000

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चैत की दोपहर में नारी की ईर्ष्या भावना, अधिकार लिप्सा तथा नैसर्गिक संवेदना का चित्रण है।...


गैरेज के अन्दर घुस एक गड़गड़ाहट पैदा कर अवंती बाहर निकल आयी।
लोकनाथ अब निश्चित होकर गैरेज की जिम्मेदारी सँभालेगा। इसलिए उस ओर निगाह उठाकर भी नहीं देखा। इसमें संदेह नहीं कि पुराना आदमी है। गाड़ी जब आगे बढ़ रही थी, अरण्य गेट के सामने से हटकर खड़ा हो गया था। अवंती ने दृढ़ स्वर में कहा, "बैठ जाओ।''

उसका कथन आदेश जैसा सुनाई पड़ा। कम-से-कम अरण्य को ऐसा ही लगा।
लेकिन इतना जरूर है कि अपमान का अहसास होने के बावजूद आदेश ठुकराने का साहस नहीं हुआ, क्योंकि हालत अभी गंभीर है। न मालूम वहाँ अब तक कौन-सी घटना घट चुकी होगी।
मगर सच्चाई क्या सिर्फ यही है? सिर्फ श्यामल की पत्नी की हालत सोचकर ही? आदेश ठुकराने की असमर्थता का कारण क्या कहीं दूसरी जगह निहित नहीं है?
वह गाड़ी पर चढ़कर बैठ गया। (जैसे गाड़ी पर चढ़ पीठ टिकाए बैठने पर उसकी जान में जान लौट आयी हो)। अरण्य जरा अवहेलना की हँसी हँसते हुए बोला, ''तुम्हारे पास बहुत सारे नौकर-चाकर हैं न? हुक्म करते-करते वही स्वर कंठस्थ हो गया है।''
अवंती ने स्टीयरिंग पर हाथ रखकर कहा, ''यह सब छोड़ो। पहले यह बताओ कि किस ओर जाना है।''
''जिस ओर से आ रहा था, उसी तरफ।''
''ठीक है, मकान बता देना।''
थोड़ी देर तक स्तब्धता छायी रही।
जनशून्य रास्ते पर गाड़ी चलाना कोई बड़ी बात नहीं है। फिर भी अरण्य ने अपनी बगल के मुखड़े की ओर निहतारते हुए सोचा, कितना आत्म-केन्द्रित भाव है! जैसे रानी-महारानी हो। अरण्य क्या उससे रश्क करे?
थोड़ी देर बाद अवंती ने ही चुप्पी तोड़ी। बोली, ''हाँ, क्या कह रहे थे? मेरे घर में बहुत सारे नौकर-चाकर हैं, इसलिए हुक्म का स्वर ही कंठस्थ हो गया है, यही न?''
''यह तो स्वाभाविक ही है।''
''सो तो नौकर-चाकर से बतियाते देखा; हुक्म का टोन कब देखा?''

अरण्य तनिक हतप्रभ हो गया। देखा नहीं है, यह सच है। लोकनाथ-दा कहकर ही संबोधित किया था। फिर भी लाज ढँकने के खयाल से बोल उठा, ''गौर नहीं किया। लेकिन इस अभागे के प्रति हुक्म का टोन जोरदार ही सुनने को मिला।''
''सुनना उचित ही है। क्योंकि यह अभागा सचमुच अभागा ही है।''
अरण्य हल्की हँसी हँस पड़ा। बोला, ''निःसंदेह यह बात सच है।''
उसके बाद बोला, ''अब दाहिनी ओर।''
अवंती बोली, ''श्यामल का यह फर्स्ट चाइल्ड है?''
''इसके अलावा और क्या हो सकता है? यही तो पिछले साल शादी हुई है।''
''कैसे जान सकती हूँ, बताओ तो सही! मुझे क्या कोई खबर भेजता है?''

अरण्य बोला, ''अरे बाबा! तुम्हारे ससुर की ड्योढ़ी लाँघ खबर पहुँचाने का साहस किसे है?
''यह जान छुड़ाने जैसी बात है। डाक प्यून कम-से-कम सबकी ड्योढ़ी लाँघ सकता है। बहरहाल, ऐसे वक्त में औरतें मायके में ही रहती हैं।,श्यामल की पत्नी यहाँ क्यों है?''
''माँ नहीं है, बाप बीमार है।''
'माँ नहीं है।' यह सुनते ही अवंती की आँखें एकाएक भीग क्यों गईं? अवंती की तो माँ है। इसके अतिरिक्त अवंती अतिशय संवेदनशील भी नहीं है।
अरण्य बोला, ''पहुँच गए हैं, कुछेक मकानों के बाद जो पीले रंग का मकान है, वही।''
लेक टाउन में शुरुआती दौर में मोटे तौर जिस किस्म के कुछेक मकान बने थे, उसी का नमूना है यह। गतानुगतिक प्लान। एल आकृति, सामने छोटा-सा बरामदा।
अवंती ने कहा, ''श्यामल यहाँ रहता है, इसकी जानकारी नहीं थी।''
''यहाँ रहता नहीं था। शादी के बाद किराए पर लेकर चला आया है। चाचाओं के साथ रहता था। घर पर अशांति का माहौल था...बहरहाल, बाद में सुनना।''
अवन्ती ने गाड़ी रोकी।
शायद गाड़ी की आवाज सुनकर ही श्यामल घर से निकल आया और बरामदे पर से ही बोला, ''अरण्य! आ गए!''
उसके गले के स्वर में व्याकुलता, दयनीयता और उत्कंठित प्रतीक्षा की समाप्ति की शांति है।
अरण्य ने पूछा, ''कैसी है?''
''उसी तरह नीम बेहोशी की हालत में। लेकिन अवन्ती? तुम्हें कहाँ से ले आया अरण्य?''
अवन्ती ने श्यामल के बेचैन चेहरे की ओर ताका।
अवन्ती ने व्यस्तता के साथ कहा, ''बातचीत बाद में करेंगे। फौरन इन्तजाम करो।''
घर के अन्दर घुसने पर श्यामल की पत्नी का पीड़ा से ऐंठते शरीर को देख अवन्ती बोली, ''इस्स! यह तो बिलकुल बच्ची है। तुम नीच हो, श्यामल।''

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