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नारी विमर्श >> चैत की दोपहर में

चैत की दोपहर में

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6393
आईएसबीएन :0000000000

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चैत की दोपहर में नारी की ईर्ष्या भावना, अधिकार लिप्सा तथा नैसर्गिक संवेदना का चित्रण है।...


श्यामल ने अपराधी जैसे स्वर में ही कहा, ''दरअसल वह देखने में इस तरह की छोटी लगती है।''

ललिता ने आँख खोलकर देखा कि किस महिला ने उसके पति को इस तरह दुत्कारा-फटकारा लम्बी काठी की सुन्दरी, रानी-महारानी जैसी भंगिमा में खड़ी उस महिला को देख ललिता को ऊब का अह्सास हुआ। दुबारा आँखें बन्द कर लीं।
लेकिन वही ललिता गाड़ी पर चढ़ने के दौरान आत्म-समर्पिता की नाईं अवन्ती का हाथ कसकर पकड़े रही। दोनों पुरुषों ने कृतज्ञता से विगलित हो, मुग्ध भाव से देखा, कितनी सहजता और शीघ्रता से अवन्ती ने उस युवती को सजा-सँवारकर गाड़ी पर बिठा देने का इन्तजाम किया। गाड़ी स्टार्ट कर, गरदन घुमाते हुए पूछा, ''किस तरफ?''
दिन-भर यम और आदमी में खींचतान चलने के बाद सौभाग्य से आदमी की ही जीत हुई। एक गोरे-चिट्टे शिशु को मेज पर रखने में डॉक्टर को कामयाबी हासिल हुई और मृतप्राय होने के बावजूद एक जीवित तरुणी को बेड पर ले जाकर लिटाने में समर्थ हो सका।
एक भयंकर असह्य प्रतीक्षा के साथ तीन प्राणी बाहर बैठे रहे और एक अमोघ की पदचाप गिनते रहे।
फिर भी उसी बीच श्यामल ने कई बार अवन्ती को घर चले जाने को कहा था। अवन्ती हाथ उठाकर सिर्फ मना करती रही कि बातें न करे। अरण्य ने एक बार कहा था, ''मैंने ही तुम्हें इस उलझन में फँसा दिया।
अवन्ती ने दबे हुए स्वर में कहा था, ''बेवकूफ जैसी बातें मत करो।''
एक छोटा-सा नर्सिंग होम। कई दिनों तक आते-जाते रहने के कारण डॉक्टर मिसेज घोष से काफी जान-पहचान हो गई है। वे हँसकर बोलीं, ''अब आप अपनी पत्नी और पुत्र का भार मुझ पर सौंपकर घर जा सकते हैं, मिस्टर गुप्त!'' हँसते हुए इन लोगों की ओर भी देखा, ''और आप लोग भी। उम्मीद है, अब कोई ट्रवल नहीं होगी।''
फिर भी श्यामल ने दयनीय स्वर में कहा, ''कोई एक व्यक्ति रुक नहीं सकता? यानी मैं?''

वह हँस पड़ी, ''आप तो बिलकुल नहीं। कहने का मतलब है, रात नौ बजे के बाद किसी मर्द को यहाँ ठहरने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। ये आपकी बहन हैं या आपकी मिसेज की बहन? ये चाहे तो ठहर सकती हैं। मगर जरूरत ही क्या है?''
अवंती ने सिर उठाकर कहा, ''जरूरत नहीं पड़ेगी?''
''मेरी समझ में यही ठीक रहेगा। नर्से हैं, आया रहेगी।''
''ठीक है।''
अवन्ती उठकर खड़ी हुई।
एक कोने में जाकर बोली, ''श्यामल, जल्दबाजी में तुम ठीक से रेडी होकर आ सके हो या नहीं, मालूम नहीं। इसे तुम अपना समझकर उपयोग में ला सकते हो।''
वैनिटी बैग से अपना पर्स निकालकर दिया। उस मोटे पेट वाली वस्तु की ओर ताकने-पर दोनों मित्रों को लगा, ठीक तौर से रेडी होकर आने की जिम्मेदारी अवंती ने ही उठाई थी।
श्यामल ने शुष्क स्वर में कहा, ''अच्छा, इसे अभी रखो। मैं दफ्तर के कमरे में मिसेज घोष से एक बार...यानी हो सकता है कुछ लेने की जरूरत पड़ेगी। कहने का मतलब है अब भी डेट नहीं आयी थी, घर पर ठीक से वह-''
अवंती ने उसके आगे बढ़े हाथ की तरफ अपना हाथ बगैर बढ़ाए तीखे स्वर में कहा, ''इसे अपने साथ ले जाने में तुम्हें कोई आपत्ति है?''
श्यामल मुसकराया। बोला, ''कतई असुविधा नहीं है, यह कैसे कहूँ? लगता है, इसमें बहुत ज्यादा है।''

अवंती ने आहिस्ता से परिहास के लहजे में कहा, ''मिसेज घोष तुम्हें बच्चा समझकर सारा कुछ हथिया लेंगी, तुम्हें क्या यही लगता है?''
''धत्त!''

''फिर? जाओ, फटाफट काम निवटाकर चले आओ। अब चलती हूँ। सवेरे खबर जरूर भेजना। फोन नम्बर रखोगे?''
''फोन नम्बर लेकर क्या होगा? मेरे पास क्या फोन है?''
"उफ! तुम लोग मर्द की जात वीच-वीच में इतने बेवकूफ हो जाते हो! तुम्हारे पास नहीं है पर इस नर्सिंग-होम में तो है। नहीं है क्या?''
''अब तक नहीं मिला है। हाल ही में खोला गया है।''
''फोन नहीं मिला है और नर्सिंग-होम खोलकर बैठ गए!''
अवन्ती ने दाँत से होंठ दवा धीमे स्वर में कहा, ''नर्सरी स्कूल और प्राइवेट नर्सिंग-होम आए दिन एक वहुत बड़ा विजनेस हो गया है। खैर, झटपट चले जाओ। रात गहराती जा रही है। नम्बर रख लो, जरूरत अड़ने पर कहीं बाहर से...उम्मीद है, जरूरत नहीं पड़ेगी। मैं सवेरे आऊंगी।''
रात गहराती जा रही थी, तो भी श्यामल को उसके दरवाजे पर उतार, अवंती ने अरण्य से कहा, ''सिर बेहद दुख रहा है,, थोड़ी देर तक-चक्कर लगाकर घर लौटना चाहती हूँ। तुम्हारे पास वक्त है?''  ''जल्दबाजी और मुझे!''
अरण्य ने कहा, ''उसी वक्त तो अभागे के रूप में मेरा परिचय मिल गया है। अभागों के लिए कभी किसी भी वक्त समय की कमी नहीं होती! पर सोचता हूँ, तुम्हारे मिस्ट रकी मानसिक हालत अभी कैसी होगी!''
''संभव है, उग्र ही होगी।''
''फिर?''
''फिर क्या?''
''कहने का मतलब है, और अधिक देर करोगी? अब ही तो साढ़े नौ बज चुके हैं।''
''मुश्किल का सामना नहीं करना पड़ेगा?''
अवंती के दोनों हाथ हल्के से स्टीयरिंग पर टिके हुए हैं, उन हाथों कीं लम्बी उँगलियों को ध्यान से देखा। कितने आश्चर्य की बात है। नाखून लम्बे और धारदार नहीं हैं, न ही रंग लगे हुए; जबकि दर्द से ऐंठे हुए ललिता के हाथ-पैर के नाखूनों को रंगे हुए देख चुका है।
पहले भी क्या अवंती नाखूनों में रंग नहीं लगाती थी? याद नहीं आ रहा। हो सकता है उसकी सहजात लम्बी गढ़न की उँगलियों और गुलाबी आभा के नाखूनों का वैभव प्राकृतिक है।
उन्हीं उँगलियों से पहिए को धीरे से घुमाकर अवंती ने कहा,  ''सिर के दर्द से छुटकारा पाए बगैर जानें से और भी अधिक मुश्किल का सामना करना पड़ेगा।
''तुम्हारे पास नहीं है? औरतों के वैनिटी बैग में, सुना है वह चीज़ हमेशा मौजूद रहती है।''
''लगता है, इस बीच औरतों के सम्बन्ध में बहुत जानकारी बटोर चुके हो। और क्या सुना है, बताओ तो सही?''
''वाह! सारा कुछ क्या जबानी याद है?''
''याद नहीं है? खैर, गनीमत है। लतिका से कितने दिनों से प्यार का सिलसिला चल रहा है?''
''प्यार? मैं प्यार करने गया ही कब? श्यामल भी नहीं कर पाया था। महज एरेंजमेंट की शादी है। और उन लोगों का पर भी ऐसा ही है। पति के मित्र के साथ अड्डेबाजी? सोच भी नहीं सकती।''
''अच्छी बात है, बहुत ही अच्छी!''
अवंती बोली, ''यह पारिवारिक स्वास्थ्य का लक्षण है। हाँ, तुम्हारे लिए घर में कोई एरेंजमेंट नहीं हो रहा है?''
अरण्य ने बुझे हुए स्वर का स्वांग रचकर कहा, ''अभी कहाँ हो रहा है?'' 
''कहो तो घटक का काम कर सकती हूँ।''
''शुभेच्छा के लिए मेनी-मेनी थैक्स! अरे, तुम्हारे घर का रास्ता तो पार हो गया।''
''अभी तुरन्त घर घुस जाने की बात थी?' 
''नहीं, मतलब...''
अवंती एकाएक कठोर स्वर में बोल उठी, ''डर लग रहा है क्या?'

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