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प्रथम और अंतिम मुक्ति

जे. कृष्णमूर्ति

प्रकाशक : राजपाल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6418
आईएसबीएन :9788170287520

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कृष्णमूर्ति की शिक्षाओं के सघन अध्ययन में एक और आयाम जुड़े, इसी अभिप्राय से यह संस्करण प्रस्तुत है...

यह विश्वासों से अपनी रक्षा करने के लिए ही था। कि कृष्णमूर्ति ने ‘‘किसी धार्मिक साहित्य को नहीं पढ़ा, न तो भगवद्गीता को और न उपनिषदों को’’। बाकी हम लोग तो धार्मिक साहित्य पढ़ते ही नहीं हैं, हम तो अपने प्रिय समाचार-पत्रों को तथा जासूसी कहानियों को पढ़ा करते हैं। अर्थात् अपने युग के संकट का सामना हम प्रेम एवं सूझ से नहीं करते, बल्कि ‘रूढ़ियों एवं विचार-प्रणालियों से’ करते हैं और ये रूढ़ियां एवं विचार-प्रणालियां इसमें समर्थ हैं नहीं। परंतु ‘‘सहृदय व्यक्तियों को रूढ़ियों का सहारा नहीं लेना चाहिए,’’ क्योंकि रूढ़ियां हमें अनिवार्यतः ‘अंधविश्वासी सोच’ में ले जाती हैं। रूढ़ियों का आदी होना एक बहुत आम बात है, और ऐसा क्यों न हो, इस पर नहीं कि हम कैसे सोचें’’। साम्यवादी, ईसाई, मुसलमान, हिन्दू, बौद्ध, फ्रायडवादी जैसे किसी-न-किसी प्रकार के संगठन के सक्रिय अनुयायियों के रूप में हम पले-बढ़े हैं। परिणामस्वरूप, ‘‘आप किसी भी चुनौती के प्रति जो सदा नयी होती है, किसी प्राचीन प्रारूप के ही अनुसार प्रतिक्रिया करते हैं, और इसलिए प्रतिक्रिया में उस चुनौती के अनुरूप वैधता, नवीनता और ताज़ापन नहीं होता। यदि आप कैथोलिक या साम्यवादी के रूप में प्रतिक्रिया करते हैं, तो आप किसी ढांचे के अनुरूप बनाए गए विचार के अनुसार ही प्रतिक्रिया करते हैं। अत: आपकी प्रक्रिया की कोई सार्थकता नहीं है। और क्या हिन्दू ने मुसलमान ने, बौद्ध ने, ईसाई ने यह समस्या निर्मित नहीं की है ? जैसे कि राज्य की उपासना एक नया धर्म हो गया है, उसी प्रकार किसी विचार की उपासना प्राचीन धर्म था। यदि आप पुराने संस्कारों के अनुसार किसी चुनौती का उत्तर देते हैं, तो आपका उत्तर आपको उस नयी चुनौती को समझने में सक्षम नहीं बनाएगा। इसलिए, ‘‘नयी चुनौती का सामना करने के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति स्वयं को आवरणों से पूर्णतया मुक्त कर ले, अपनी पृष्ठभूमि का परित्याग कर दे और इस प्रकार उस चुनौती का नये सिरे से सामना करे।’’

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