कहानी संग्रह >> कामतानाथ संकलित कहानियां कामतानाथ संकलित कहानियांकामतानाथ
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आम जनजीवन से उठाई गई ये कहानियां कथाकार के रचना-कौशल की वजह से ग्रहण के स्तर पर एक तरफ बतरस का मजा देती हैं तो दूसरी तरफ प्रभाव के स्तर पर उद्वेलित करती हैं...
"कौन है आप उनके?"
"आप मुझे मकान बता दीजिए।" मैंने कहा।
"विश्वनाथ बाबू घर में नहीं हैं।"
"और कोई तो होगा।" मैंने कहा, “आप मुझे मकान बता दें, बस।"
"उनकी औरत है।" उसने कहा।
सुनीता के लिए "औरत" शब्द का प्रयोग मुझे अच्छा नहीं लगा। “आप मकान बताइए न।"
मुझे खीज-सी होने लगी।
"क्या कह दूं जाकर?"
यही मकान है क्या? "कह दीजिए लखनऊ से राजू आया है।" मैंने कहा।
घुटनों को दोनों हाथों से दबा कर वह मुश्किल से खड़ा हुआ और मकान के अंदर चला
गया। दूसरे ही क्षण सुनीता द्वार पर आ गई।
"अंदर आइए न।" उसने कहा। मैं अंदर चला गया।
दालान में स्टील की दो-तीन कुर्सियां, एक मेज और चारपाई पड़ी थी। उसी से मिला
हुआ एक कमरा था। बगल में आंगन और उसके पार रसोई।
सुनीता ने मुझे वहीं दालान में बिठा दिया। "कब आए?" उसने पूछा।
“आज सुबह। ऑफिस का एक केस था। कचहरी में कागज दाखिल करने थे।" मैंने कहा,
"तुम बैठोगी नहीं?"
"पहले आपके लिए चाय बना लाऊं।" उसने कहा। "अभी तम्हारे यहां आते समय ही कोर्ट
में चाय पी थी। आधा घंटा भी नहीं हुआ।"
उसने मेरी बात सुनी नहीं। रसोई में जाकर स्टोव जलाने लगी। स्टोव जल गया तो
चाय का पानी चढ़ाकर वह वापस दालान में आ गई और चुपचाप एक कुर्सी पर बैठ गई।
तभी बाहर वाला बूढ़ा पुनः अंदर आ गया। "कुछ मंगाना तो नहीं बहू?" उसने सुनीता
से पूछा।
सुनीता अपने आंचल में बंधे रुपये खोलने लगी।
"मैं कुछ खाऊंगा नहीं।" मैंने कहा।
सुनीता ने आग्रह नहीं किया। बूढ़ा वापस चला गया।
"अम्मा तो अच्छी हैं?" कुछ देर की खामोशी के बाद उसने पूछा।
"हां।" मैंने कहा।
फिर खामोशी। इस बार पहले से कहीं ज्यादा लंबी। सिर्फ रसोई में स्टोव के जलने
की आवाज। मैंने देखा घर में दिन के इस समय भी अंधेरा था। दालान की दीवार पर
दो-एक कैलेंडर टंगे थे। सुनीता के पति का उसकी पहली पत्नी के साथ विवाह के
अवसर पर लिया गया एक चित्र भी शीशे के फ्रेम में मढ़ा हुआ लगा था। दीवारें
धुंए से जगह-जगह काली हो रही थीं। पूरे वातावरण में कब्र के अंदर जैसा
सन्नाटा और अंधेरा था।
“यह आदमी जो अभी आया था कौन है?" मैंने पूछा।
"बाहर के कमरे में किराए पर रहता है।" सुनीता ने उत्तर दिया।
फिर खामोशी।
"एक बात पूछू?" इस बार सुनीता ने खामोशी भंग की।
"क्या?"
"आप शादी क्यों नहीं करते?" मैं चुप रहा।
"अम्मा को कितना कष्ट होता होगा, आप यह क्यों नहीं सोचते?" उसने आगे कहा।
मैंने उसे घूर कर देखा। “यह तुम कह रही हो बिल्लो !"
"क्यों?" उसने कहा। तब खुद ही बोली, “एक बार मन में आया था कि आपको पत्र
लिखू। फिर सोचा कभी आप मिलेंगे तो खुद ही कहूंगी आपसे।"
चाय का पानी शायद काफी देर से खौल रहा था। वह उठ कर चाय बनाने चली गई।
प्यालियां लाकर उसने मेज पर रख दी और पूर्ववत कुर्सी पर बैठ गई।
फिर खामोशी।
"मेरा तो जो होना था हो गया।" इस बार भी सनीता ही बोली, “आप क्यों अपना जीवन
नष्ट कर रहे हैं? मेरे भाग्य में शायद यही था।"
मैंने उसकी ओर देखा। “भाग्य में विश्वास करती हो तुम?" मैंने कहा। उसने कोई
उत्तर नहीं दिया।
"मैं नहीं करता।" मैंने कहा।
वह चुपचाप चाय पीती रही। मैं भी।
"मैं तो लड़की थी। लेकिन आप तो कुछ कर सकते थे।" कुछ क्षणों बाद सुनीता ने
कहा। वह चाय की प्याली में देख रही थी।
"देर नहीं हो चुकी थी बिल्लो?" मैंने कहा, “पांच दिन पहले ही तो मुझे पता चला
था।
“यह आप कर रहे हैं?" उसने मेरी ओर देखा, "और कहते हैं भाग्य में विश्वास नहीं
करते।" वह एक क्षण रूकी तब बोली, “पांच दिनों में तो दुनिया इधर-से-उधर हो
सकती थी।"
मैंने उसकी ओर देखा। सुनीता इतनी दृढ़ भी हो सकती है यह मैंने कभी
नहीं सोचा था।
"तुम्हारी ओर से भी तो...” मैंने कहा।
"सब कुछ शब्दों में ही कहा जाता है क्या? आप जानते नहीं थे?"
मैंने उसकी ओर देखा। उसकी आंखें डबडबा रही थीं। गहरी शिकायत का भाव था उनमें।
मैं एक क्षण उसे ऐसे ही देखता रहा। उसने निगाह दूसरी ओर मोड़ ली। सहसा मोती
जैसे दो आंसू उसके गालों पर लुढ़क आए। उसने आंचल से उन्हें पोंछ और चाय की
खाली प्यालियां उठाकर उन्हें रखने चली गई।
पहली बार मुझे एहसास हुआ कि स्थितियों के आकलन में मैंने कितनी गंभीर भूल की
थी। इस सारी त्रासदी मे मैं अपने आपको एक अपकृत नायक माने बैठा था जिसके साथ
सभी ने अन्याय किया था। लेकिन इस दुखांत का खलनायक भी तो मैं ही था। मैंने ही
तो मास्टर चाचा के दिमाग में इस बात का बीज डाला था कि सुनीता जैसी लड़की से
कोई भी लड़का खुशी-खुशी विवाह करने को तैयार हो जाएगा। यह भी कहा था कि जमाना
बदल रहा है। ऐसे लोग भी आज दुनिया में हैं जो दहेज लेने-देने के खिलाफ हैं।
क्या अप्रत्यक्ष रूप से मेरा यह मतलब नहीं था कि मैं स्वयं बिना कोई दहेज लिए
बिल्लो से विवाह करने को तैयार हूं? सुनीता भी उस समय कमरे में नहीं तो आड़
में कहीं थी ही। उसने भी निश्चय ही सब सुना होगा। और फिर साफ-साफ शब्दों में
न सही, परोक्ष रूप से तो मैंने उसे यह विश्वास दिलाया ही था कि मैं उसे बहुत
चाहता हूं। मैं स्वयं तो उसे अपनी भावी पत्नी के रूप में देखने ही लगा था।
लेकिन जब मेरे कुछ करने और कहने का समय आया तो मैं बिल्कुल अकर्मण्य हो गया।
पिता, मास्टर चाचा और मासी तो अपने मूल्यों को जिए थे। मां का प्रश्न ही नहीं
उठता। उनके लिए तो पिता की आज्ञा शिरोधार्य करना ही उनका परम कर्तव्य था।
उनकी मर्जी के खिलाफ वे जबान भी खोल सकें, इतना साहस उनमें कभी नहीं रहा। सभी
ने अपनी मान्यताओं के अनुसार ही कार्य किया था। उनसे आज की बदली हुई अथवा
युवा मानसिकता की आशा करना उनके प्रति अन्याय नहीं तो कम-से-कम उनसे कुछ अधिक
अपेक्षा की बात तो थी ही। सुनीता तो लड़की थी। विशुद्ध मध्यवर्गीय परिवार की
लड़की। कुसूर यदि किसी का था तो मेरा ही। क्या किया था मैंने अपने मूल्यों की
रक्षा के लिए? कुछ भी तो नहीं। मन-ही-मन सबको दोषी करार देकर एकतरफा फैसला
सुना दिया था। बल्कि अपने ढंग से उन्हें सजा भी दी थी। मां को तो अब भी दे
रहा था। इसके विपरीत यदि मैं स्थितियों से समझौता न करके, अथवा प्रतिकूल
स्थितियों के समक्ष समर्पण न करके, उनके खिलाफ संघर्ष करता, विद्रोह करता, तो
क्या कुछ नहीं हो सकता था? जैसा कि सुनीता ने कहा, पांच दिनों में तो दुनिया
इधर-से-उधर हो सकती थी।
सुनीता लौट आई थी। शायद उसने मुंह धोया था। जल के कुछ कण अब भी उसके बालों
में उलझे हुए थे।
अब कछ नहीं हो सकता क्या? मैंने सोचा और उसकी ओर देखा। वह काफी कुछ सहज हो गई
थी। पहले जैसी सौम्यता आंखों में लौट आई थी। पहले से कहीं अधिक सुंदर भी लगी
वह मुझे।
“अब कुछ नहीं हो सकता बिल्लो?" मैंने कहा।
"नहीं। बहुत देर हो गई अब।" उसने कहा। "आइंदा ऐसी बात दिमाग में भी न
लाइएगा।"
मेरे अंदर अचानक कहीं कुछ टूट-सा गया। सारी जीवनी-शक्ति ही जैसे एक क्षण में
कहीं तिरोहित हो गई हो। शरीर एकदम निष्प्राण-सा लगा मुझे।
पल भर मैं वैसे ही बैठा रहा तब उठकर खड़ा हो गया। "चलूंगा," मैंने कहा।
सुनीता भी मेरे साथ ही उठकर खड़ी हो गई। मुझे द्वार तक छोड़ने आई। वह बूढ़ा
अभी भी चबूतरे पर बैठा था। मुझे बाहर आया देख वह भी उठकर खड़ा हो गया।
“नमस्ते बाबूसाब!" उसने कहा।
मैं चुपचाप गली पार करने लगा। परास्त और निढाल।
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