कहानी संग्रह >> कामतानाथ संकलित कहानियां कामतानाथ संकलित कहानियांकामतानाथ
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आम जनजीवन से उठाई गई ये कहानियां कथाकार के रचना-कौशल की वजह से ग्रहण के स्तर पर एक तरफ बतरस का मजा देती हैं तो दूसरी तरफ प्रभाव के स्तर पर उद्वेलित करती हैं...
मास्टर चाचा का मकान किराए का था। मासी की मृत्यु के बाद उसे रखने का औचित्य
नहीं था। तीनों लड़कियां बाहर थीं। और कोई था नहीं जो घर में रहता। मकान
मालिक भी मकान खाली कराना चाहता था। वैसे भी उसे छोड़ना ही था। समस्या सिर्फ
सामान की थी। आखिर तीनों दामादों ने उसका बंटवारा कर लिया और जो जिसके हिस्से
में आया अपने साथ लेकर चला गया। कुछ सामान, जो आसानी से नहीं जा सकता था, बेच
दिया गया। या फिर महरी, महराजिनों को दे दिया गया। मासी की मृत्यु के आठ-दस
दिनों के अंदर ही मकान पर उसके मालिक का ताला पड़ गया।
जब से मासी ने मेरे साथ सुनीता के विवाह के संबंध में मां से हुई अपनी बात के
बारे में बताया था, मां और पिता दोनों से ही मुझे घृणा हो गई थी। मैं घर में
रहता जरूर था, खाना भी खाता था, लेकिन बात दोनों में से किसी से नहीं करता
था। पिता से तो कदापि नहीं, क्योंकि मैं अच्छी तरह जानता था कि इस घर में
उन्हीं की चलती है और जो भी हुआ है उसके लिए वही जिम्मेदार हैं। मां का कभी
साहस नहीं हुआ जो उनकी बात काट सकें।
मेरी इस खामोशी के बावजूद या शायद इसी कारण मां को सारी बात समझने में ज्यादा
देर नहीं लगी। मासी की मृत्यु के पंद्रह-बीस दिन बाद ही एक दिन वह रोने लगीं।
“मेरी कोई गलती नहीं बेटा!" उन्होंने कहा, "मैं तो खुद ही चाहती थी कि बिल्लो
इस घर की बहू बने लेकिन तुम्हारे बाबूजी माने नहीं। और उनका भी क्या कसूर!
पेट काटकर तुमको पढ़ाया-लिखाया। उनका भी हौसला है कि तुम्हारी शादी खानदान
में सबसे बढ़-चढ़कर हो। और फिर ऐसा भी नहीं कि हमारी कछ मांगने की हैसियत न
हो। अपना निजी घर है। कहने को गांव में जमीन भी है। दो बीघा ही है तो क्या
हुआ, कुछ राशन-पानी आता ही है। फिर टिंकी के विवाह पर हमने सब कुछ दिया नहीं
क्या? जमाने का चलन ही है यह। हमारे-तुम्हारे बदले तो बदलेगा नहीं।"
मैं चुपचाप सुनता रहा।
"और फिर मास्टर ने भी तो दोबारा बात नहीं चलाई। कुछ दिन रूक जाते तो कौन जाने
बात बन ही जाती।"
मैं फिर भी कुछ नहीं बोला।
"तुम्हारे बाबूजी से भी मैंने कहा कि न हो तो राजू से लिख कर पूछ लो। लेकिन
उनका मिजाज तो तुम जानते हो। कहने लगे कि लड़के का बाप मैं हूं कि वह।"
"कह चुकीं सब?" मां चुप हुईं तो मैंने कहा।
वह मेरा मुंह देखने लगीं। “आइन्दा इस बारे में मुझसे बात न करना।" मैंने कहा
और उठ कर बाहर चला गया।
पिता इस संबंध में पूर्णतया आश्वस्त थे। मेरी भावनाओं से अनभिज्ञ तो नहीं ही
रहे होंगे। मगर मेरा खयाल है सोचते होंगे दो, चार, दस, दिनों में सब ठीक हो
जाएगा। इसीलिए निश्चिंत थे। मेरे विवाह के संबंध में उन्होंने बड़े ऊंचे सपने
संजो रखे थे। टी. वी., स्कूटर, फ्रिज आदि तो मामूली बात थी। उनका खयाल था कि
पच्चीस-तीस हजार रुपये नकद भी वे खींच लेंगे। आखिर मैं बैंक में प्रोबेशनरी
अफसर था। खासी तनखाह पाता था। और फिर हमारा अपना मकान था। उस पर मैं अकेला
बेटा। पूरी जमीन-जायदाद का वारिस। बैंक में मेरी नौकरी लगने के बाद से मेरे
विवाह के प्रस्ताव भी तेजी से आने लगे थे। एक सधे हुए व्यापारी की भांति पिता
ग्राहकों को बड़ी होशियारी से डील कर रहे थे। बाहर की बैठक पुतवा कर उन्होंने
उसे अपने ढंग से सजा लिया था। पुराने सोफे पर नए कवर लग गए थे। तख्त पर हमेशा
साफ धुली हुई चादर बिछी रहती। अच्छे किस्म की कुछ क्रॉकरी भी वह ले आए थे।
साथ में एक ट्रे भी जिसमें विवाह के संबंध में आए हुए लोगों को चाय आदि पेश
की जाती। कुछ-न-कुछ नमकीन और दालमोठ वगैरह भी घर में हमेशा बनी रहने लगी थी।
विशेषकर छुट्टियों वाले दिन पिता सुबह से ही नहा-धोकर धुले हए कपड़े पहनकर
बाहर बैठक में जम जाते। एक मंजे हुए खिलाड़ी की तरह वह एक ही समय में
तीन-तीन, चार-चार ग्राहकों से निपट रहे थे। बातों-ही-बातों में वह यह अनुमान
लगाने की कोशिश करते कि कौन किस सीमा तक बढ़ने को तैयार है। इसीलिए वह किसी
को आसानी से 'हां' या 'ना' नहीं कह रहे थे। मुझसे इस संबंध में उन्होंने कभी
कोई बात करने की आवश्यकता नहीं समझी। जैसा कि मां ने कहा था, वे अपने आप को
'लड़के' का बाप समझ रहे थे और इसीलिए मेरे विवाह के संबंध में वह जो भी
स्याह-सफेद करें, उसे अपना पूरा अधिकार समझते थे। मैंने भी उनके इस
क्रिया-कलाप में कभी कोई हस्तक्षेप नहीं किया। लेकिन मन-ही-मन मैंने निश्चय
कर लिया था कि विवाह नहीं करूंगा।
आखिर एक दिन पिता ने मुझे बुलाया। बोले, "तुम्हारी शादी के कई प्रोपोजल आए
हैं। लड़कियों के फोटो तुम्हारी मां के पास हैं। देखकर बताना कौन तुम्हें
पसंद है।"
"मुझे शादी नहीं करनी", मैंने कहा, “और आइन्दा इस विषय पर मझुसे कोई बात भी न
कीजिएगा।"
वे सन्नाटे में आ गए। दो-एक दिन खाना-वाना भी नहीं खाया। डांट-डपट से भी काम
लेना चाहा। लेकिन मेरे ऊपर कोई असर नहीं हुआ। मैंने इस विषय पर उनसे बात करने
से कतई इंकार कर दिया।
दो-एक महीने में ही उनका अहम् टूट गया और एक दिन मेरे सामने हाथ जोड़कर खड़े
हो गए। "तुमसे माफी मांगता हूं।" उन्होंने कहा, "तुम्हारा बाप होकर भी
तुम्हारे सामने हाथ जोड़ रहा हूं। जो गलती हुई हो उसे माफ करो।"
मैं खामोश रहा।
"देखो, ज्यादा दिन की जिंदगी मेरी नहीं हैं," उन्होंने आगे कहा, "बासठ पूरे
हो चुके हैं। दो-तीन वर्ष शायद और चलूं। तुम्हारी मां की भी तंदुरुस्ती ठीक
नहीं रहती। कब तक वह गृहस्थी संभालेंगी।" वह एक क्षण रूके तब बोले, “न मेरे
कहने से शादी करो तो जहां तुम्हारी इच्छा हो वहां कर लो। दहेज से तुम्हें
चिढ़े है तो नहीं लूंगा दहेज। एक पैसा भी लूं तो सौ जूते मार लेना।"
तुम मरो या जियो मुझसे कोई मतलब नहीं है। वैसे भी तुम्हें जीने का कोई अधिकार
नहीं है। कब्र में पैर लटके हैं तुम्हारे और तुम नवयुवकों की जिंदगी का सौदा
करना चाहते हो। तुम सड़ चुके हो। समाज का कोढ़ हो तुम। मैं तुमको कभी माफ
नहीं कर सकता। मैंने मन-ही-मन कहा। प्रत्यक्ष केवल इतना ही बोला, “मैंने आपसे
एक बार कह दिया, आप चाहेंगे तो सौ बारे कह दूंगा, हजार बार कह दूंगा-मुझे
शादी नहीं करनी।"
पिता ने फिर भी हथियार नहीं डाले। रिश्तेदारों से मेरे ऊपर दवाब डलवाया।
बहन-बहनोई को विशेषकर इसीलिए बुलवाया गया कि वे आकर मुझे इस बारे में समझाएं।
जाप और पूजा-पाठ भी करवाया कुछ। लेकिन मेरे ऊपर असर नहीं पड़ा। मैं अपने
निर्णय पर दृढ़ था।
आखिर पिता बिल्कुल टूट गए। उनका स्वास्थ्य बराबर गिर रहा था। हो सकता है वह
एक-दो वर्ष और चलते। लेकिन मेरे इस निर्णय ने उनकी मृत्यु के दिन को कुछ और
नजदीक कर दिया। अचानक ही एक दिन सुबह उनको दिल का दौरा पड़ा। जब तक डॉक्टर
बुलाया जाए उनका अंत हो गया।
कोई विशेष रंज मुझे इस बात का नहीं हुआ। हां, मां को जरूर गहरा सदमा पहुंचा।
लेकिन इतनी तारीफ मैं उनकी करूंगा कि अपने मुंह से उन्होंने मुझसे शादी करने
के लिए फिर भी नहीं कहा। हां, दूसरों से जरूर अपनी तकदीर का रोना रोती रहतीं।
मेरे दोस्तों के सामने भी दो-एक बार अपना दुखड़ा रोया। लेकिन मेरी उपस्थिति
में कभी जबान नहीं खोली। वे मुझे अच्छी तरह समझती हैं, बल्कि वही सबसे अधिक
समझती हैं कि इस मामले में मेरा इरादा कभी बदल नहीं सकता।
जैसा कि मैंने कहा कोर्ट में मेरा काम लंच से पहले ही निपट गया था। इस समय
मैं कोर्ट कम्पाउंड के बाहर सड़क पर एक होटल में बैठा चाय पीते हुए यह सब सोच
रहा था। यह निर्णय मैं अभी तक नहीं ले पाया था कि सुनीता के यहां जाऊं या
नहीं। उसका पता मुझे अच्छी तरह याद था। मां के पास कभी-कभी उसके पत्र आ जाते
थे। उन्हीं के माध्यम से मुझे उसका पता ज्ञात था। वैसे उसके पत्रों में कुछ
खास नहीं होता था। विशेषकर मेरे बारे में शायद ही कभी कुछ होता हो। हां, एक
बार यह जरूर पूछा था उसने कि मेरा विवाह कहीं तय हुआ या नहीं। साथ ही मां से
अनुरोध भी किया था कि इस अवसर पर उसे जरूर बुलाएं। हां, इधरं काफी दिनों से
उसका पत्र नहीं आया था। एक वर्ष से ऊपर मुझे उसे देखे बीत चुका था। अकेले
उससे बात हुए तो और भी काफी समय हो चुका था। शायद जबलपुर जाने के बाद से ऐसा
अवसर नहीं आया था। मास्टर चाचा की मृत्यु और फिर मासी के देहांत पर वह आई
जरूर थी। कुछ क्षणों के लिए अकेले आमना-सामना भी हुआ था। लेकिन कोई बात हो
सके इतना समय हमें नहीं मिला था। इस समय घर पर वह अवश्य ही अकेली होगी। कैसी
होगी भला वह?
तभी चाय का बिल देते हुए सामने खड़े रिक्शेवाले से मैंने पूछा, “गोदौलिया
चलोगे?"
"आइए बाबू साहब।" उसने कहा।
मैं रिक्शे पर बैठ गया। काफी देर तक विभिन्न सड़कें काटते घुमाते कुछ ऊबकर
उसने पूछा, "कहां जाओगे बाबूसाब?"
“गौदोलिया आ गया?" मैंने पूछा।
"कब का आ गया।"
मैंने रिक्शा रुकवाकर एक व्यक्ति से गली का पता पूछा। रिक्शा कुछ आगे निकल
आया था। मैंने उसे वापस मुड़वाया। गली के मुहाने पर ही मैंने उसे छोड़ दिया।
गली काफी संकरी थी। और सूनी भी। थोड़ी दूर चलकर एक मकान के चबूतरे पर दो
व्यक्ति बैठे थे। उनमें से एक रोगी-सा लग रहा था। दूसरा व्यक्ति काफी वृद्ध
था। वह रोगी जैसे लगने वाले व्यक्ति की कनपटी अपने दोनों हाथों में पकड़े
होठों-ही-होठों में कुछ बुदबुदा कर उसके माथे पर फूंक मार रहा था। मैं रूक कर
उसे ऐसा करते देखता रहा। “विश्वनाथ जी का मकान कौन सा है?" झाड़ फूंक समाप्त
कर चुका तो मैंने उससे पूछा।
"आप कहां से आए हैं?" उसने प्रश्न किया।
"लखनऊ से।"
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