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कामतानाथ संकलित कहानियां

कामतानाथ

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6427
आईएसबीएन :978-81-237-5247

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आम जनजीवन से उठाई गई ये कहानियां कथाकार के रचना-कौशल की वजह से ग्रहण के स्तर पर एक तरफ बतरस का मजा देती हैं तो दूसरी तरफ प्रभाव के स्तर पर उद्वेलित करती हैं...


क्या मुझे भी उसके विवाह पर कोई उपहार देना चाहिए? मैंने सोचा। सहसा मुझे लगा मैं यह सब कर क्या रहा हूं। आखिर सुनीता है कौन मेरी? खामखाह मैं उस पर अपना अधिकार समझे बैठा हूं। अकारण ही तो सोचता था मैं कि उसका विवाह मुझमें ही होगा। उसके मां-बाप हैं। जहां चाहेंगे उसका विवाह करेंगे। और फिर मुझमें कौन-से सुर्खाब के पर लगे हैं! इंटर कॉलेज का एक मामूली अध्यापक। या अधिक-से-अधिक बैंक का एक प्रोबेशनरी अफसर। वह भी मैं था नहीं, होने वाला था। सुनीता! उससे भी तो प्रत्यक्ष मेरा कोई संबंध रहा नहीं। बचपन से मेरे घर आती-जाती रही। बाल-नुचव्वल, चुटकी-मुक्का किया हमने। बड़ी हुई तो कभी चाय लाकर रख गई मेरे कमरे में। या अखबार दे गई। या फिर कभी कुछ पढ़ने-लिखने के सिलसिले में पूछ लिया। मात्र इसी से क्या मेरा उसके ऊपर कोई अधिकार बन जाता है? कितना मूर्ख हूं मैं भी!

यह सब सोचकर कुछ हल्का अनुभव किया मैंने। जब मां लौटकर आईं मैं काफी सहज हो चुका था। नहा-धोकर कपड़े बदल लिए थे। मां ने साड़ी लाकर मुझे दिखाई। मुझे अच्छी लगी।

"बिल्लो पर फबेगी।" मैंने कहा।

मां प्रसन्न हो गईं।

कोई पांच बजने वाले थे। मैं बाहर निकला तो देखा मास्टर चाचा के दरवाजे तंबू-कनात लग रहे थे। बिजली वाला बिजली की झालर सेट कर रहा था। बच्चे कुर्सियों पर धमाचौकड़ी मचा रहे थे। दो-तीन घंटे बाद लौटकर आया तो सारी गली जगमग-जगमग कर रही थी। लाउडस्पीकर पर फिल्मी गाने बज रहे थे। महल्ले के तमाम लोग बारात की अगवानी के लिए मास्टर चाचा के दरवाजे कुर्सियों पर बैठे थे। मेरे पिता भी उनमें थे। मैं भी एक किनारे बैठ गया। यह मैं अब तक निर्णय नहीं ले सका था कि सुनीता को कोई उपहार मुझे भी देना चाहिए या नहीं? और यदि हां, तो क्या?

कोई दस बजे बारात आई। दूल्हा कार में था। दो-तीन महिलाएं और ढेर सारे बच्चे भी उसमें ठुसे थे। सुनीता को उसकी सहेलियां द्वार पर लिए खड़ी थीं। खूब सजाया था उन्होंने उसे। बहुत सुंदर लग रही थी वह। वैसे भी थी। लेकिन दुल्हन के श्रृंगार में उसका रूप देखते ही बनता था। उसके हाथों में जयमाला थी जिसे वह बस किसी तरह पकड़े थी। आंखें उसकी बंद थीं।

बारात निकट आई तो लाउडस्पीकर बंद करा दिया गया। औरतें सेहरा गाने लगीं। लोगों ने दूल्हे को कार से उतारा। सूट, टाई पहने वह सिर पर पगड़ी बांधे था। चेहरे पर बेले की कलियों का सेहरा था। लोग उसे बढ़ा कर मास्टर चाचा के द्वार तक ले आए। तभी फोटोग्राफर भीड़ से निकलकर अपना कैमरा सेट करने लगा। किसी ने उसका सेहरा हटाया तो पहली बार दूल्हे का चेहरा ठीक से नजर आया। सांवला, रंग, साधारण चेहरा, पतली-पतली मूंछे। आयु लेकिन चालीस से कम नहीं लगी मुझे।

सहसा मेरा मन अंदर से बहुत ही उत्तेजित हो उठा। अधिक देर मैं वहां रूक नहीं सका। घर आया और साइकिल लेकर बाहर निकल गया। लगभग रात भर ठिठुरती हुई ठंड में मैं गोमती के किनारे बैठा रहा। अंदर-ही-अंदर रोता रहा और सोचता रहा कि यदि मैं नदी में फांद पडूं तो क्या सुनीता मेरे लिए रोएगी? शायद हां, शायद नहीं।

सुबह कोई छः बजे गली में घुसा तो विदाई की रस्में पूरी हो रही थीं। कुछ महिलाएं सुनीता को लिए हुए गली के मुहाने पर खड़ी कार की ओर बढ़ रही थीं। पीछे-पीछे महरी या शायद नाइन लोटे में पानी लेकर चल रही थी। सुनीता लंबा चूंघट डाले थी। मुझे लगा उसने मेरी साइकिल से ही मुझे पहचान लिया और चूंघट थोड़ा ऊपर उठाकर मेरी ओर देखा। दूसरे ही क्षण किसी ने उसका चूंघट नीचे खींच दिया।

मास्टर चाचा को विवाह वाले दिन ही बखार हो आया था। उन्होंने किसी से कहा नहीं। सारे काम बदस्तूर अंजाम देते रहे। लेकिन सुनीता के चले जाने के बाद उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया। मेहमान सब दो-चार दिन में ही चले गए। दवा के बावजूद मास्टर चाचा की हालत बिगड़ती चली गई। डबल निमोनिया था उन्हें। सुनीता को तार दिया गया। लेकिन वह उनकी मृत्यु के बाद ही आ सकी। बल्कि दाह-संस्कार भी हो चुका था। उसके पति भी साथ थे। दो-एक दिन बाद ही वे उसे लेकर वापस चले गए। सुनीता की दोनों बड़ी बहनें भी दो-एक सप्ताह रहकर चली गईं। वे मासी को अपने साथ ले जाने को तैयार थीं, परंतु मासी ने अपने पति की देहली छोड़ने से इंकार कर दिया।

नतीजा यह हुआ कि मासी बिल्कुल अकेले रह गईं। कुछ दिन तो वह ठीक-ठाक रहीं। सुबह उठकर सारा घर झाड़ती-बुहारतीं। पूजा करतीं। मास्टर चाचा का फोटो भी उन्होंने भगवान के चित्रों की बगल में लगा दिया था। उस पर फूल आदि चढ़ाती। भोजन पकाने से लेकर कपड़े धोने तक का सारा काम स्वयं करतीं। हां, बाहर वे कम ही निकलतीं। मैं अक्सर ही उनके यहां जाता रहता, घर का राशन-सब्जी आदि मैं ही लाकर देता। मुझसे वे मास्टर चाचा के बारे में या फिर वैसे ही अपने अतीत के बारे में देर तक बातें करती रहतीं। जोर देकर चाय आदि भी पिलातीं। लेकिन
वह उनका बाह्य रूप ही था। अंदर से वे बराबर टती जा रही थीं। तभी दो-तीन महीनों बाद उन्होंने भी बिस्तर पकड़ लिया।

मासी की बीमारी लंबी चली। कोई छः महीने वे खाट से लगी रहीं। सुनीता की दोनों बहनें बारी-बारी से आकर सेवा करके चल गईं। सुनीता भी आई। लेकिन उसके पति ने उसे आठ-दस दिन से अधिक यहां रहने नहीं दिया। इस बीच कभी ऐसा अवसर नहीं आया कि मैं उससे अकेले कुछ देर के लिए मिल सकू। एक तो उसका पति साथ था। दूसरे वह बहुत ही शक्की और ईर्ष्यालु स्वभाव का था। मेरे बारे में उसने खासी पूछताछ की कि मैं कौन हूं और क्यों यहां आता-जाता हूं। हां, इस बीच सुनीता एक बार मेरे घर जरूर आई और देर तक मां के पास बैठी रही। उसे देखकर मुझे मन में काफी क्लेश हुआ। शादी के बाद लड़कियां अपने घर लौटने पर जिस तरह खिली-खिली रहती हैं ऐसी कोई बात मुझे उसमें नहीं दिखी। साधारण वस्त्र और जेवरों के नाम पर गले में एक माला। या फिर कान में बुंदे। बस। जो वह पहले से ही पहनती थी। मां उससे देर तक उसकी ससुराल के बारे में पूछताछ करती रहीं। मेरी बस थोड़ी ही बात हुई। उसकी पढ़ाई के सिलसिले में। मैंने कहा, रेगुलर संभव न हो तो प्राइवेट बी. ए. वह अब भी कर सकती है।

"क्या करूंगी करके?" उसने संक्षित-सा उत्तर दिया।

मैं चुप हो गया।

इस बीच मुझे यह पता चल गया था कि सुनीता के पति का यह दूसरा विवाह है। उसकी पहली पत्नी विवाह के छः सात वर्षों बाद ही मर गई थी। एक लडकी थी जो अपने नाना-नानी के पास रहती थी। क्यों ऐसा घर मास्टर चाचा और मासी ने सुनीता के लिए चुना मैं समझ नहीं पा रहा था। सीधे-सीधे तो पूछ नहीं सकता था लेकिन घुमा-फिराकर कई बार मैंने यह बात मासी से जाननी चाही। तभी एक दिन सुनीता के चले जाने के बाद बिस्तर पर लेटे-लेटे ही उन्होंने कहा, "मेरी तो बड़ी इच्छा थी कि सुनीता तुम्हारे घर जाती। लेकिन..।" उन्होंने बात पूरी नहीं की।

मुझे एक क्षण लगा कहीं मैंने गलत तो नहीं सुना है। तभी उन्होंने "भगवान की मर्जी!" कहकर बात समाप्त कर दी।

मुझे लगा मैं रो पडूंगा। बलपूर्वक मैं अपने को संयत बनाए रहा।

"भाभी से मैंने बात भी की थी।" उन्होंने आगे कहा। मेरी मां को वह 'भाभी' ही कहती थीं।

"कब?" मुझसे रहा नहीं गया।

"तुम्हारी बैंक वाली नौकरी का कागज आया है, उसी के दूसरे-तीसरे दिन। तुम्हारे मास्टर चाचा तो, तुम जानते हो, बिल्लो को आगे पढ़ाने के लिए तैयार नहीं थे। तुम्हारे कहने से ही मान गए थे। मैं तो पहले ही जानती थी हमारी सामर्थ्य के बाहर की बात है। मगर उन्होंने ही कहा एक बार भाभी से बात करके देखो।"

"क्या कहा अम्मा ने?"

"जाने दो। अब क्या धरा है इन बातों में! जो होना था वह हो गया। लेकिन जब से तुम्हारे घर से बात टूटी है, तुम्हारे मास्टर चाचा को जाने क्या झक सवार हो गई। एक दिन के लिए भी बिल्लो बोझ हो गई उनके लिए। कहने लगे, हटाओ इसको घर से।"

मेरे अंदर भीषण तूफान उठ रहा था। “कहा क्या अम्मा ने यह तो बताइए।"
"उन्होंने ठीक ही कहा बेटा। मेरी ही मति मारी गई थी जो अपनी हैसियत से बढ़कर बात करने गई थी। हमें पहले ही जान लेना चाहिए था हमारी औकात क्या है।"

"आखिर बिल्लो में नुक्स क्या निकाला उन्होंने?" बात की तह तक गए बिना मुझे चैन नहीं था।

"बिल्लो में नुक्स की बात नहीं बेटा। वह तो उन्हें भी बहुत पसंद थी। लेकिन तुम्हारे बाबूजी की मांग पूरी करने की हमारी सामर्थ्य नहीं थी।"

"क्या मांगा था उन्होंने?"

"वही जो सब मांगते हैं।"

"लेकिन क्या?"

"टी. वी., स्कूटर और क्या कहते हैं उसे, पानी ठंडा करने वाली मशीन।"

टी. वी., स्कूटर और फ्रिज। किसके लिए? जीवन-भर नलके का या सुराही का पानी पिया था बाबूजी ने, सवारी के नाम पर पहली साइकिल मैंने एक दोस्त से उधार ली थी। वह भी पुरानी। और माइनस नौ का चश्मा लगाकर टी. वी. देखेंगे? मुझे लगा मेरा सारा बदन जल रहा है।

"आपने मुझे क्यों नहीं लिखा?" मैंने कहा।

"मैंने तुम्हारे मास्टर चाचा को कहा था कि राजू के आने तक इंतजार कर लो। लेकिन उनके सिर पर न जाने कैसा भूत सवार हो गया था कि धोती-कुर्ता पहन कर घर से निकले तो रिश्ता तय करके ही लौटे।" मासी कह रही थीं और मेरे शरीर के अंदर का ताप बढ़ता जा रहा था।

"तुम्हें बहुत चाहती थी बिल्लो। तुम जब से गए हो बराबर रोती रहती थी।" उन्होंने कहा।

मैं डरा कि कहीं मासी के सामने ही मैं रोने न लगूं। अतः मैं उठकर खड़ा हो गया।

"घर में कुछ न कहना बेटा! मेरी इज्जत रखना।" मासी ने कहा।


ठीक ही कह रही थीं मासी। मैं घर गया भी नहीं। घर मेरे लिए अब नरक से भी बदतर था। लेकिन कब तक न जाता। बहरहाल, मैंने निश्चय कर लिया कि घर में किसी से भी इस संबंध में बात नहीं करूंगा। न मां से। न ही पिता से।

मासी कुछ ही दिन और जिंदा रहीं। इस बार तीनों लड़कियां उनकी मृत्यु से पहले ही पहुंच गई थीं। मरने से पहले कोई चार-पांच दिनों तक वे बेहोश रहीं। एक अजीव तनाव-भरा वातावरण घर में फैल गया था। जैसे साक्षात मृत्यु आकर घर में बैठ गई हो और सब लोग सांस रोके उसके जाने की प्रतीक्षा कर रहे हों।

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