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कामतानाथ संकलित कहानियां

कामतानाथ

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6427
आईएसबीएन :978-81-237-5247

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आम जनजीवन से उठाई गई ये कहानियां कथाकार के रचना-कौशल की वजह से ग्रहण के स्तर पर एक तरफ बतरस का मजा देती हैं तो दूसरी तरफ प्रभाव के स्तर पर उद्वेलित करती हैं...


रात मुझे ठीक से नींद नहीं आई। कहीं बीमार तो नहीं है वह? ऐसा होता तो मां बतातीं। या फिर छुट्टियों में सब लोग कहीं बाहर तो नहीं चले गए। लेकिन रात मास्टर चाचा के मकान पर ताला तो था नहीं। फिर? देर तक मैं यही सब सोचता रहा। कोई तीन बजे मुझे नींद आई। फिर भी सुबह जल्दी ही उठ गया।

मां पहले ही से जाग रही थीं। कपड़े बदल कर मैं बाहर जाने लगा तो मां ने कहा, "चाय चढ़ा दी है। पीकर जाओ।"

"बनाकर रखो। अभी लौटकर पीता हूं।" मैंने कहा और बाहर आ गया।

मास्टर चाचा की बैठक खुली थी। तख्त पर कम्बल ओढ़े बैठे वे अखबार पढ़ रहे थे।

"नमस्ते मास्टर चाचा।" मैंने कहा।
"कहो, कब आए?" उन्होंने पूछा।
"कल शाम।" मैंने कहा, “अब तो यहीं नौकरी मिल गई है।"
"बैंक में ना?" उन्होंने कहा।
इसके मायने वह पहले से जानते है। “जी हां।" मैंने कहा।
“अच्छा है, घर के घर में रहोगे।"
 
मैं बाहर गली में खड़ा था। मास्टर चाचा अंदर कमरे में थे। बाहर खासी ठंड थी। लेकिन मास्टर चाचा ने मुझे अंदर आने के लिए नहीं कहा। जान-बूझकर मैं जोर से बोल रहा था। आवाज जरूर अंदर जा रही होगी। लेकिन न बिल्लो ही बाहर निकली और न ही मासी।

"बिल्लो की पढ़ाई कैसी चल रही है?" मैंने पूछा।
"ठीक ही है।" उन्होंने कहा।
"अभी तक सो रही है क्या?"
"कह नहीं सकता।"
"ठंड काफी पड़ रही है यहां। जबलपुर में इतनी नहीं थी", मैं सर्दी में ठिठुरने लगा था।
"हां।"
मास्टर चाचा ने फिर भी मुझे अंदर आने को नहीं कहा। बावजूद इसके कि मास्टर चाचा ऐसे ही बात करते थे, मुझे लगा उनकी बातों में कुछ रूखापन-सा है। मैं चला आया। लेकिन चीजें मेरी समझ में नहीं आ रही थीं। दो-ढाई महीनों में क्या इतना कुछ बदल जाता है?
"मास्टर चाचा के घर से कुछ लड़ाई-वड़ाई तो नहीं हुई?" मां चाय लेकर आईं तो मैंने पूछा।
"नहीं तो।" मां ने कहा।
यह कैसा षड्यंत्र है! मां भी बस "नहीं तो" कहकर रह गईं। यह भी नहीं पूछा कि आखिर मैं यह क्यों पूछ रहा हूं। क्या वह जानती नहीं?
"बिल्लो कहां है?" मैंने पूछा। “अपने घर में होगी।"

फिर वही बेहूदापन। अपने घर में होगी, यह तो मैं भी जानता हूं।
"यहां नहीं आती क्या?"
“आती क्यों नहीं।"
मुझे गुस्सा आने लगा। "मै पूछ रहा हूं कल से आज तक क्यों नहीं आई? उसे मालूम नहीं मैं आ गया हूं?"
मां ने मेरी ओर देखा। "उसकी शादी तय हो गई है।"
जमीन पैर के नीचे से निकलने वाला मुहावरा मैंने कितनी ही बार सुना था। अनुभव पहली बार हुआ। मुझे लगा जैसे मेरे दिल ने धड़कना बंद कर दिया हो। मेरा सारा शरीर कांप गया।
मां मुझे बराबर देखे जा रही थीं। "कहां?" मैंने पूछा।
"बनारस में।"
"कब है शादी?"
"अगले सोमवार को।"
मेरी आंखों के सामने अंधेरा-सा छाने लगा। मैं चुपचाप अपने स्थान पर बैठा रहा। कई मिनट निकल गए।
"और चाय लोगे?"
"नहीं।"
मां उठकर चल गईं।
यह क्या हो गया! सुनीता का विवाह किसी और से! और इतनी जल्दी! मुश्किल से चार महीने तो उसे कॉलेज जाते हुए होंगे। ऐसा ही था तो मास्टर चाचा ने उसका नाम क्यों लिखाया? मेरे जाने से पहले तो ऐसी कोई बात थी नहीं।

आज बुधवार था। बृहस्पति, शुक्र, शनि, इतवार, सोम। मैंने उंगलियों पर गिना। प्रलय हो सकती है क्या इन पांच दिनों में?

लगभग सारा दिन मैं बिस्तर पर पड़ा रहा। थोड़ी-थोड़ी देर बाद मां चाय के लिए पूछ जातीं। कोई बारह बजे उन्होंने कहा, “नहाओगे-धोओगे नहीं? खाना तैयार है।"

"भूख नहीं है।" मैंने कहा।
मां ने जिद नहीं की।

शाम को मैं बाहर निकला तो मास्टर चाचा का दरवाजा बंद था। दिन में दो-एक बार छज्जे पर निकलकर भी देखा था। तब भी बंद था।

"निमंत्रण नहीं आया मास्टर चाचा के घर से?" रात मैं देर से घूमकर आया तो मां से पूछा।

"आया है।" उन्होंने कहा और निमंत्रण लाकर मेरे हाथ में दे दिया।

बहुत सादा-सा निमंत्रण-पत्र था। ऊपर गणेश जी के चित्र के नीचे "शुभ विवाह" छपा था। पूजन, द्वारचार, विदाई, आदि का समय और तिथियां थीं। सुनीता के होने वाले पति और उसके पिता का नाम दर्ज था-"वाराणसी निवासी स्वर्गीय श्री जगन्नाथ प्रसाद के सुपुत्र चि. विश्वनाथ..."

कार्ड लिए मैं देर तक उसे देखता रहा। तब बालकनी पर आ गया। गली में कोहरा छाया था। मास्टर चाचा की बैठक बंद थी। रोशनदान से बिजली का प्रकाश आ रहा था। अंदर औरतें कोई मंगल गीत गा रही थीं।

बिल्लो को तो प्रतिवाद करना चाहिए था, मैंने सोचा। कौन जाने किया भी हो! लेकिन मैं पूछता किससे? एक बार मन में आया जाकर सीधे बिल्लो से ही क्यों न पूर्वी कि उसने अपनी स्वीकृति क्यों दी। या फिर मासी से ही बात करूं। कुछ भी हो, बिल्लो को एक बार देखने की मन में बड़ी लालसा थी, लेकिन मास्टर चाचा का जो रुख मैंने सुबह देखा था, उससे उनके यहां जाना मुझे उचित नहीं लग रहा था। फिर और मेहमान भी तो होंगे उनके यहां। उनके सामने...?

ये चार दिन मैंने किस तरह काटे, शब्दों में बता पाना कठिन है। समय मेरे लिए ठहर-सा गया था। नहाना-धोना, शेव करना सब भूल गया था। दिन भर रोगियों की तरह बिस्तर पर पड़ा रहता। ठंड के बावजूद रात देर तक सुनसान स्थानों पर घूमता रहता। न खाना अच्छा लगता, न पीना। सांस जरूर लेता था। इसलिए कहा जाएगा कि जिंदा था। वर्ना मुर्दो से भी बदतर था।

इस बीच बिल्लो को मैंने केवल एक बार देखा। दोपहर के समय मैं छज्जे पर खड़ा था। तभी उसके घर से ढेर सारी औरतें उसे लेकर किसी देवी-देवता की पूजा के लिए गाती-बजाती निकलीं। वह उनके बीच घिरी हुई थी। जाते समय तो नहीं, हां, लौटते समय मैंने उसे ठीक से देखा। उसने भी मुझे देख लिया था और जब तक सारी औरतें उसे अपने साथ घर के अंदर ढकेल नहीं ले गई वह एकटक मुझे देखती रही। मुझे लगा, अधिक देर उसकी ओर देखूगा तो रो पडूंगा। मैं दूसरी ओर देखने लगा।

जिस दिन बारात आनी थी उस दिन अपराह मां मेरे पास आईं। उनके हाथ में सौ रुपये का एक नोट था।

"न हो तो तुम ही साड़ी ले आओ।" उन्होंने मुझसे कहा।
"साड़ी?"
"हां! बिल्लो के लिए। शादी पर देनी होगी न।"
बिल्लो की शादी पर देने के लिए साड़ी? यानी उपहार? मुझे लाना होगा? "मैं नहीं जाऊंगा।" मैंने कहा।
"मेरे साथ ही चले चलते। नए-नए चलन की साड़ियां मेरी समझ में तो आती नहीं।"

“साड़ियां खरीदता फिरता हूं मैं जो नए चलन की साड़ियां मेरी.समझ में आ जाएंगी। मैं कहीं नहीं जाऊंगा।" मैंने कहा।

मां चली गईं।

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