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कामतानाथ संकलित कहानियां

कामतानाथ

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6427
आईएसबीएन :978-81-237-5247

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आम जनजीवन से उठाई गई ये कहानियां कथाकार के रचना-कौशल की वजह से ग्रहण के स्तर पर एक तरफ बतरस का मजा देती हैं तो दूसरी तरफ प्रभाव के स्तर पर उद्वेलित करती हैं...



खलनायक

आफिस के काम से बनारस जाना था। एक मुकदमे के सिलसिले में। कचहरी में कागज दाखिल करने थे।

चलने लगा तो मां ने पूछा, “लौटोगे कब?"
"क्यों?" मैंने कहा।

"वैसे ही।"

"परसों सुबह आ जाऊंगा।"

मां लिहाफ का खोल सिल रही थीं। चुपचाप मशीन चलाती रहीं। मैं सफर के लिए अपना सामान सहेजता रहा। कपड़े आदि अटैची में बंद करके मैं उठकर खड़ा हुआ तो मां ने भी मशीन बंद कर दी। मुझे दरवाजे तक छोड़ने आईं। मैंने मुड़कर उनके पैर छुए तो बोली, “फुर्सत मिले तो बिल्लो के यहां हो आना।"

मैंने उनकी ओर देखा। तब सड़क पर आकर रिक्शा खोजने लगा।

गाड़ी सुबह तड़के ही बनारस पहुंच गई। बर्थ सुरक्षित होने के बावजूद मुझे रात ठीक से नींद नहीं आई। स्टेशन पर उतरकर मैंने चाय पी। वेटिंग रूम में नहा-धोकर कपडे बदले और अटैची क्लोक रूम में जमा करके बाहर निकल आया।

कोई सात बजे थे। साढ़े आठ पर मुझे अपने ऑफिस द्वारा नियुक्त वकील के घर पहुंचना था। घंटे-डेढ़ घंटे का समय मेरे पास था। मुझे बिल्लो की याद आई। याद तो खैर रास्ते भर आती रही थी परंतु यह निर्णय मैं अभी तक नहीं ले पाया था कि उसके यहां जाऊं अथवा नहीं। आखिर, मैं फिलहाल टाल गया। सोचा, कोर्ट से फुर्सत मिलने के बाद देखा जाएगा। और मैं एक होटल में घुस गया।

नाश्ता करते हुए मुझे ध्यान आया कि लौटने के लिए आरक्षण भी करना है। लौटकर गया तो खिड़की खुल चुकी थी। रात की गाड़ी में मुझे बर्थ मिल गई।

कचहरी से मैं एक बजे ही फुर्सत पा गया। वापसी की गाड़ी नौ बजे रात की थी। समय मेरे पास काफी था। फिर भी मैं तय नहीं कर पा रहा था कि सुनीता के यहां जाऊं या नहीं। हां, "सुनीता" बिल्लो का ही नाम था। 'बिल्लो' नाम मैंने ही उसे दिया था। बात यह थी कि उसकी आंखें नीली थीं। इसीलिए मैं उसे 'बिल्लो' कहकर चिढ़ाता था। धीरे-धीरे सभी उसे 'बिल्लो' कहने लगे।

लखनऊ में मेरे घर के निकट ही उसका भी घर था। कोई दो-तीन मकान छोड़कर। मेरे मकान के सामने वाली पंक्ति में। उसके पिता एक स्कूल में मास्टर थे। तीन बहनों में वह सबसे छोटी थी। और सबसे खूबसूरत भी। मुझसे आयु में कोई तीन-चार वर्ष कम।

बचपन में हम सब एक साथ खेलते थे। वह मुझे 'लंबू' कहती और मैं उसे 'बिल्लो'। बहुत ही चंचल थी वह। अक्सर ही मुझे तंग करती। कभी चुटकी काटकर भागती तो कभी पानी से नहला देती। पकड़ पाता तो मैं उसकी खूब कुटम्मस करता। लेकिन पकड़ में वह कम ही आती। भाग कर मां के पास हो रहती। और मां सदा उसी का पक्ष लेतीं।

मगर उसकी शोखी बचपन तक ही रही। बड़ी होने पर वह बिल्कुल विपरीत स्वभाव की निकली। इस परिवर्तन के पीछे मुख्य कारण शायद उसके घर की गरीबी थी। मास्टर चाचा को तनखाह कम ही मिलती थी। कुछ थोड़ा-बहुत वे ट्यूशनें करके कमा लेते थे। जो कुछ बचाया था, वह बड़ी लड़कियों के विवाह में निकल चुका था। अब उनके पास सुनीता के विवाह पर दहेज देने जैसा कुछ भी नहीं था। यही चिंता उन्हें चौबीस घंटे लगी रहती। जैसे-जैसे सुनीता बड़ी हो रही थी, उनकी यह चिंता भी बढ़ रही थी। सुनीता को शायद इसका आभास था। इसीलिए उसकी बचपन वाली शोखी और चंचलता जैसे पंख लगाकर उड़ गई थी। एक विचित्र प्रकार की सौम्यता और गाम्भीर्य ने उसका स्थान ले लिया था। इससे उसके सौंदर्य में और भी चार चांद लग गए थे।

मेरे यहां वह अब भी बराबर आती-जाती। कभी मशीन पर कोई कपड़ा सिलने तो कभी मां से कोई बुनाई आदि पूछने। मेरे लिए भी दो-एक बार उसने स्वेटर, कंफर्टर आदि बुन कर दिए थे। मैं अब भी उसे बराबर बिल्लो ही कहता। लेकिन उसे चिढ़ाने के किसी उद्देश्य से नहीं। यह नाम ही मेरी जबान पर चढ़ गया था। हां, उसने मुझे लंबू कहना बंद कर दिया था।

जिस वर्ष मैंने एम. ए. किया, सुनीता ने इंटर की परीक्षा पास की। वह आगे पढ़ना चाहती थी, परंतु उसके पिता इसके लिए तैयार नहीं थे। वे जल्दी-जल्दी उसका विवाह कर देना चाहते थे। मैं मन-ही-मन सुनीता को बहुत चाहने लगा था। मेरी भी यही इच्छा थी कि वह आगे पढ़े। इसीलिए जब मुझे पता चला कि मास्टर चाचा उसके आगे पढ़ने के पक्ष में नहीं हैं, तो मैंने सुनीता से कहा, "कहो तो मैं मास्टर चाचा से बात करूं।"

“आपकी बात मान जाएंगे?" उसने अर्थपूर्ण दृष्टि से मेरी ओर देखा।
"बात करके देखता हूं।" मैंने कहा।

शाम को ही मैं मास्टर चाचा के पास गया। "बिल्लो को आप आगे पढ़ने से मना क्यों कर रहे हैं, मास्टर चाचा?" मैंने कहा।

वह अखबार पढ़ रहे थे। "बैठो!" उन्होंने कहा और चश्मा उतारकर तख्त पर रख दिया। मैं तख्त पर ही एक किनारे बैठ गया।

"जवान बेटी बाप के ऊपर कितना बड़ा बोझ होती है.यह तुम नहीं जानते।" उन्होंने कहा, “मुझे उसकी पढ़ाई से ज्यादा उसके विवाह की चिंता है। जहां भी जाता हूं बीच-पच्चीस हजार से कम की बात कोई नहीं करता।"

“अभी उसकी उमर ही क्या है!" मैंने कहा, “और फिर जमाना बदल रहा है मास्टर चाचा! ऐसे लोग भी हैं आजकल जो दहेज लेने-देने के खिलाफ हैं।"

उन्होंने एक चुभती हुई दृष्टि मेरे ऊपर डाली। “मुझे तो नहीं मिले।" उन्होंने कहा।

"बिल्लो जैसी सुशील (मैं सुंदर कहने जा रहा था) लड़की से तो कोई भी लड़का विवाह करने को तैयार हो जाएगा," मैंने कहा। “आप उसे और पढ़ाइए। उसका मन भी है पढ़ने का। और मास्टर चाचा, आजकल लड़के पढ़ी-लिखी लड़की ही पसंद करते हैं। कम-से-कम ग्रेजुएट तो होनी ही चाहिए।"

"तुम कहते हो तो सोचूंगा।" उन्होंने कहा।

"इसमें सोचना क्या है!" मैंने कहा और वहीं बैठ-बैठ आवाज लगाई, "बिल्लो!"

सुनीता आस-पास ही कहीं थी। मेरी आवाज सुनकर वह बैठक में आ गई। "सबजेक्ट क्या लोगी?" मैंने पूछा।

उसने मेरी ओर देखा। तब मास्टर चाचा की ओर। मास्टर चाचा खामोश रहे।

"और जो भी हो, इंगलिश जरूर लेना।" मैंने कहा।

"मुझसे चलेगी?" उसने कहा।

"मैं पढ़ा दिया करूंगा।"

मास्टर चाचा मान गए। लेकिन यूनिवर्सिटी में नाम लिखाने के लिए वे फिर भी तैयार नहीं हुए। इससे कोई अंतर नहीं पड़ा। कुछ ही दिनों में सुनीता लड़कियों के एक कॉलेज में जाने लगी। इंगलिश भी उसने मेरे कहने से ले ली और कभी-कभार मेरे पास कुछ पूछने भी आ जाती।

जाने क्यों मेरे मन में यह धारणा घर कर गई थी कि सुनीता की मां किसी-न-किसी दिन जरूर मेरी मां से मेरे साथ उसके विवाह की बात करेंगी। इसीलिए जब भी वह मेरे यहां आतीं, मैं इस बात की टोह लेने की कोशिश करता कि मां से उन्होंने क्या बात की। ऐसा होना अवश्यम्भावी है, मैं यह माने बैठा था और इसीलिए मन-ही-मन सुनीता को भावी पत्नी के रूप में देखने लगा था। सुनीता भी मेरे खयाल से अकेले मेरे सामने आने में लजाने-सी लगी थी। फिर भी वह मेरे यहां बराबर आती रही। शायद ही कोई दिन ऐसा होता जब चौबीस घंटों में कम-से-कम एक बार मैं उसे न देखता हूं।

आर्थिक दशा मेरे घर की भी अच्छी नहीं थी। पिता को नौकरी से रिटायर हुए तीन-चार वर्ष हो चुके थे। घर का खर्च बस किसी तरह घिसट रहा थ। एम. ए. का रिजल्ट निकलने के पहले से ही मैं बराबर इधर-उधर अर्जियां भेज रहा था। रिजल्ट निकलने के बाद यह सिलसिला और तेज हो गया। दो-एक जगह साक्षात्कार के लिए भी जा चुका था। प्रतियोगिताओं में भी बराबर बैठ रहा था। एम. ए. करने के बाद कोई तीन-चार महीने मैं खाली बैठा रहा। तभी मध्य प्रदेश में जबलपुर के एक कॉलेज में मुझे प्राध्यापक की जगह मिल गई। मैं वहां जाना नहीं चाहता था। लेकिन पिता जिद करने लगे। उन्होंने कहा, "खाली बैठने से तो अच्छा ही है। वहां अकेले रहकर कंपटीशन्स की तैयारी भी होती रहेगी। कोई दूसरी नौकरी मिल जाए तो छोड़ देना।"

मुझे मानना पड़ा। मन में सोचा कि जैसे भी होगा, जल्दी-से-जल्दी वापस आ जाऊंगा।

सुनीता को पता चला तो वह काफी उदास हो गई। कहा केवल इतना, “मुझे अंग्रेजी दिलाकर अब आप खुद बाहर जा रहे हैं?"

"फिक्र मत करो," मैंने कहा, “तुमसे जो बन पड़े करना। बड़े दिनों की छुट्टियों में आकर मैं तुम्हारा सारा कोर्स पूरा करवा दूंगा।"

वह चुप रही।

"जाना मुझे अच्छा थोड़े लग रहा है बिल्लो", मैंने कहा, "लेकिन क्या करूं। नौकरी की बात है। वैसे जल्दी-से-जल्दी वापस आने की कोशिश करूंगा। कोई गुलामी तो लिख नहीं रहा हूं। दूसरी नौकरी कहीं-न-कहीं मिलेगी ही। लखनऊ में ही कई जगह अप्लाई कर रखा है। और न होगा तो वैसे ही छोड़कर चला आऊंगा।"

सुनीता के आंसू आ गए। उसने आंखों में आंचल दे लिया।

जिस दिन मुझे जाना था, वह लगभग सारा दिन मेरे ही घर में बनी रही। मेरे सफर में ले जाने के लिए खाना बनाया। मां के साथ मिलकर और सारा सामान भी सहेजा। बराबर याद दिलाती जाती कि कोई सामान छूट न जाए। चलने लगा तो मां के साथ वह भी बाहर तक आई। मास्टर चाचा और मासी को भी बुला लाई। मैंने मां के पैर छुए तो वह उनकी बगल में ही खड़ी थी। खामोश।

नमस्ते आदि की औपचारिकता हमारे बीच कभी नहीं रही। अटैची-होल्डॉल रिक्शे पर रखकर मैं गद्दी पर बैठ गया। रिक्शा गली के बाहर निकलने लगा तो मैंने मुड़कर देखा। वह उसी तरह मां की बगल में खड़ी थी।

जबलपुर मैं चला तो आया, लेकिन मेरा मन यहां बिल्कुल नहीं लगा। रह-रहकर सुनीता की याद आती रहती। जाड़ों की छुट्टियों के लिए कॉलेज बंद होने में लगभग दो महीने थे। यह दो महीने मुझे दो साल से भी अधिक लगे। दो-एक बार मन में आया सुनीता को पत्र लिखूं। लेकिन एक तो आज तक कभी उसे पत्र लिखा नहीं था और दूसरे यह सोचकर कि मास्टर चाचा पता नहीं क्या सोचें, मैंने ऐसा नहीं किया। हां, मां को जब भी पत्र लिखता, उसमें यह लिखना कभी न भूलता कि मास्टर चाचा और मासी को मेरा नमस्ते कहिएगा। सुनीता के लिए बस एक बार इतना जरूर लिखा कि बिल्लो से कहिएगा, और विषय मन लगाकर पढ़े, अंग्रेजी की चिंता छोड़ दे। बड़े दिनों की छुट्टियों में मैं आऊंगा तो सब तैयार करवा दूंगा।

तभी क्रिसमस के पहले ही मुझे एक बैंक में प्रोबेशनरी ऑफिसर की नियुक्ति का पत्र मिला गया। परीक्षा और साक्षात्कार मैं पहले ही दे चुका था। नतीजा अब निकला था। पत्र लखनऊ के पते पर था जिसे पिता ने अपने पत्र के साथ मझे भिजवाया था। पत्र मिलते ही मेरा मन हुआ कि मैं तुरंत त्यागपत्र देकर यहां से रवाना हो जाऊं। लेकिन उसमें ज्वाइन करने की तारीख क्रिसमस के बाद की थी। फिर पिता ने अपने पत्र में यह भी लिखा था कि मैं इस संबंध में वहां किसी को न बताऊं ताकि क्रिसमस की छुट्टियों का वेतन भी मुझे मिल जाए।

बहुत खुशी हुई मुझे। बैंक में अफसरी मिलने की खुशी तो थी ही, अतिरिक्त खुशी इस बात की थी कि पोस्टिंग भी लखनऊ में ही होनी थी। मैं दिन गिनने लगा।

छट्टियां हुई। चलते समय अपना अधिकतर सामान मैंने साथ ले लिया। लौटकर महज त्यागपत्र देने ही तो आना था।

घर पहुंचा तो मां और पिता दोनों ही बहुत प्रसन्न दिखे। बिल्लो को मेरे घर पहंचने की खबर न मिली हो ऐसा हो नहीं सकता। मैं जानता था वह मां से मेरे बारे में सारी खबर लेती रही होगी। इसीलिए मैंने काफी पहले ही लिख दिया था कि अमुक दिन अमुक गाड़ी से आ रहा हूं। मुझे पूरी उम्मीद, बल्कि उम्मीद शब्द यहां गलत है, पूरा विश्वास था कि जब घर पहुंचूंगा तो बिल्लो घर पर ही मिलेगी। लेकिन मुझे पहुंचे कोई एक घंटा हो रहा था ओर वह कहीं नजर नहीं आ रही थी। क्या हो सकता है, मन-ही-मन मैंने सोचा। मां से पूर्वी क्या? लेकिन मैं टाल गया। शाम को तो मैं पहुंचा ही था। एक-दो घंटे में अंधेरा हो गया। मैं दोस्तों से मिलने बाहर निकला तो देखा मास्टर चाचा का दरवाजा बंद था। कुंडी खटखटाना मैंने उचित नहीं समझा।

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