कहानी संग्रह >> कामतानाथ संकलित कहानियां कामतानाथ संकलित कहानियांकामतानाथ
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आम जनजीवन से उठाई गई ये कहानियां कथाकार के रचना-कौशल की वजह से ग्रहण के स्तर पर एक तरफ बतरस का मजा देती हैं तो दूसरी तरफ प्रभाव के स्तर पर उद्वेलित करती हैं...
अमन का दूत
'अमन का दूत' वाक्वय सुनते ही आपके मस्तिष्क में केवल दो चित्र उभर सकते हैं।
एक तो हमारे प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू का और दूसरा चोंच में हरी टहनी
लिए आकाश में उड़ते हुए श्वेत कबूतर का। इस समय मेरा तात्पर्य कबूतर से ही
है, प्रधानमंत्री से नहीं। परंतु मैं आज तक यह नहीं समझ पाया कि कबूतर शांति
का दूत या प्रतीक कैसे हो सकता है। पंडितजी की बात तो समझ में आती है।
उन्होंने विश्व शांति के लिए काफी प्रयास किया है और बराबर कर रहे हैं।
स्वतंत्रता तथा शांति के प्रतीक हैं वे, संसार भर में नाम है उनका जो हमारे
लिए गर्व की बात है। परंतु कबूतर ने जहां तक मैं जानता हूं मनुष्यों की बात
तो दूर रही, पक्षियों में भी आज तक शांति स्थापित करने का कोई प्रयत्न नहीं
किया। कभी किसी पक्षी की स्वतंत्रता या मूल अधिकार के लिए लड़ा भी नहीं,
बल्कि मेरा विचार है कि वह स्वयं पक्षियों की एक दास जाति से संबंध रखता है।
जंगली कबूतरों की बात छोड़िए। शहर में या बस्ती में जितने भी कबूतर उड़ते
नज़र आते हैं सब मनुष्यों के गुलाम होते हैं और फिर जंगली कबूतर आज तक मैंने
कभी सफेद देखा भी नहीं। हां, यह बात अवश्य है कि कबूतर एक सीधा-साधा,
भोला-भाला-सा पक्षी है और उड़ते समय देखने में सुंदर भी मालूम होता है। परंतु
उड़ते हुए तो सभी पक्षी सुंदर लगते हैं। बगुलों को ही लीजिए। आकाश में उड़ती
हुई उनकी पंक्तियां क्या कम सुंदर लगती हैं? इतनी समानता, सुव्यवस्था तथा
नियंत्रण सेनाओं के मार्चपास्ट में भी नहीं होता।
और अगर ऊंची उड़ान की बात है तो इस दृष्टि से भी कबूतर ठीक नहीं है क्योंकि
साधारणतया कबूतर एक सीमित ऊंचाई तक ही उड़ सकता है। इस हिसाब से तो चील या
गिद्ध ज्यादा उचित रहेंगे। परंतु इन दोनों को आप अच्छे तर्कों द्वारा काट
सकते हैं। आप कह सकते हैं कि बगला इसलिए ठीक नहीं है क्योंकि वह पाखंड का
प्रतीक है। 'बगुला भगत' किसी को कह दीजिए तो वह आपको मार बैठे। एक बात और है
उड़ते। समय चाहे कितना ही सुंदर लगता हो, बैठे हुए देखने में निश्चय ही कुरूप
लगता है। खासतौर से जब वह अपनी एक टांग हवा में उठा लेता है। चील, गिद्ध को
आप सीधी बात कहकर टाल सकते हैं कि वे मांसाहारी पक्षी हैं
और शांति तथा मांसाहार में जमीन-आसमान का अंतर है। वैसे यह बात किसी हद तक
बगुलों पर भी लागू होती है क्योंकि वह भी मछली खाता है और इसलिए मांसाहारी ही
कहलाएगा। मगर यदि मैं आपसे पूछू कबूतर शांति का दूत कैसे हो सकता है तो आप
बगलें झांकने लगेंगे। कबूतरों ने, जहां तक मैं समझता हूं, जासूसों का काम
किया है, पोस्टमैन या संदेश वाहक का काम किया है, लेकिन कभी शांति के लिए काम
किया हो, यह बात मेरी तो समझ में आती नहीं।
फिर कबूतर शांति का दूत कैसे बना? यह किसकी सूझ हो सकती हैं? मैंने अक्सर इस
बात पर गौर किया है परंतु मेरी समझ में नहीं आया। लेकिन अब मेरा दृढ़ विचार
है कि यह सूझ अवश्य किसी न किसी चिड़ीमार या बहेलिए की रही होगी। जिस घटना से
मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा वह यह है।
मैं उन दिनों दिल्ली में था। दिल्ली के बारे में आपसे कुछ कहना आपका निरादर
करना है क्योंकि दिल्ली के बारे में हर साधारण शिक्षित भारतीय जनता है।
दिल्ली सदियों से भारत की राजनीतिक उथल-पुथल का केंद्र रही है। भारत की
राजधानी तो है ही। वहां की विशाल इमारतें, कुछ नई, कुछ पुरानी जो भारत का
गौरव हैं तथा विशाल जनसमूह जो पूर्णतया नया है, उसके बीच मनुष्य खो जाता है।
मैं भी दिल्ली में जाकर खो गया था परंतु चूंकि मैं खोने ही के उद्देश्य से
गया था इसलिए उस खोने में भी आनंद था। रोज सबुह घूमने निकल जाता और दिन-भर
घूमा करता। रात लगभग ग्यारह बजे लौटकर आता। रहता अपने मित्र के यहां था परंतु
उसके यहां केवल सुबह का नाश्ता करता था। खाना दोनों समय बाजार में ही खाता
था। घूमना और देखना, यही काम था।
सो एक दिन मैं कुतुबमीनार देखकर लौट रहा था। बस की प्रतीक्षा करते-करते थक
गया था अतः पैदल ही चला जा रहा था। सोचा था जब थक जाऊंगा तो कोई सवारी ले
लूंगा। तभी अचानक आकाश में हजारों कबूतर उड़ते दिखाई दिए। मैंने सोचा आज
राजधानी में कोई बड़ा व्यक्ति आया होगा या फिर कोई बड़ा समारोह होगा जिसके
उपलक्ष्य में ये शांति के दूत छोड़े गए हैं। किंतु मुझे आश्चर्य हो रहा था कि
यह उड़ते-उड़ते इधर कहां जा रहे हैं। पर फिर मुझे अपने ही ऊपर हंसी आई कि
आखिर कहीं-न-कहीं तो उड़कर यह जाएंगे ही और बस्ती से दूर सुनसान क्षेत्र की
ओर नहीं जाएंगे तो क्या संसद भवन पर बैठ जाएंगे? परंतु तभी मैंने देखा कि वे
कहीं जाने के बजाय आकाश में चक्कर काट रहे हैं। कम-से-कम दो-तीन हजार तो रहे
ही होंगे। मेरे देखते-देखते वह उड़ते-उड़ते मुझसे थोड़ी दूर पृथ्वी पर उतर
गए। मेरे मन में आया कि यह सब यहां कहां उतर पड़े हैं, देखना चाहिए। फिर मेरे
दिमाग में आया कि शायद शाम हो जाने के कारण कहीं बसेरा ले रहे हैं, कल सुबह
होने पर आगे कूच करेंगे। फिर भी मैं देखना चाहता था कि आखिर इन्होंने बसेरा
लिया कहां है क्योंकि पास में वहां कोई विशेष वृक्ष आदि भी न थे।
और जहां तक मेरी जानकारी है तीतर, बटेर वगैरह तो खेतों में भी बसेरा ले लेते
हैं लेकिन कबूतर खेतों में रात काटते हों ऐसा मैंने नहीं सुना था। सड़क सीधी
थी और मुझे भी उस ओर ही जाना था जिधर यह कबूतर उतरे थे अतः इतनी उत्सुकता
होना स्वाभविक ही था। परंतु काफी दूर तक निकल जाने पर भी मैंने वहां, वृक्षों
की बात तो दूर कोई खेत भी नहीं देखा। तभी अचानक मुझे अपने बायीं ओर एक
बड़ा-सा फाटक दिखाई पड़ा जिस पर लगे साइनबोर्ड पर बड़े-बड़े, सुंदर अक्षरों
में 'अमन के दूत' लिखा था। मेरी समझ में न आया कि यह क्या हो सकता है। पहले
सोचा होटल होगा मगर होटल वह बिल्कुल भी नहीं लग रहा था क्योंकि अंदर कोई खास
इमारत वगैरह दिखाई नहीं दी और फिर शहर से इतनी दूर लगभग सुनसान स्थान में
होटल होने का कोई औचित्य भी नहीं था। जिज्ञासावश मैं फाटक में अंदर घुसा तो
सामने एक बहुत बड़ा सहन दिखा, जिसमें लकड़ी के असंख्य ढाबे रखे थे जिनमें
जालियां लगी थीं। कुछ पेड़-पौधे भी थे वहां। उनमें भी लगभग हर डाल पर टीन के
पीपे या लकड़ी के डिब्बे लटक रहे रहे थे। इन पीपों और डिब्बों में असंख्य
कबूतर गुटूर-गू कर रहे थे। जमीन पर भी काफी कबूतर घूम रहे थे और दाढ़ीवाला एक
बूढ़ा तहमद बांधे उनको दाना खिला रहा था। मेरा आश्चर्य और बढ़ गया। मैं सोचने
लगा यह अमन के दूत यहां कैसे जमा हैं। मेरे दिमाग में आया, हो न हो यह बूढ़ा
अवश्य पागल है। उसकी बड़ी-बड़ी मूंछे तथा लंबी दाढ़ी देखकर कुछ ऐसा ही लगा।
इतने में उस व्यक्ति ने मुझे देख लिया और मेरी ओर मुखातिब होकर बोला, “क्या
बात है बाबूजी?"
मैंने कहा, "कुछ नहीं खां साहब, देख रहा था आपने इतने कबूतर क्यों पाल रखे
हैं।"
ऐसा ही हुआ। खां साहब मुस्कुराएं और बोले, "बेटा, यह अमन के दूत हैं।"
मैं भी हंसा कि कहीं खां साहब बुरा न मान जाएं और फिर मुझे शक था कि इनका
दिमाग थोड़ा-बहुत खराब जरूर है। परंतु जो कुछ उन्होंने कहा था मेरी बात का
उत्तर न था, अतः मैंने दोबारा पूछा, "मगर खां साहब इतने क्यों पाल रखे हैं?"
"इनका बिजनेस करता हूं मैं।" वह बोले।
"अभी इस शौक के लोग दिल्ली में हैं? मैं तो समझता था कि नवाबों के बाद इनकी
कद्र करने वाला कोई रहा नहीं।"
खां साहब ने बाल्टी से दाने की अंतिम मुट्ठी भरकर जमीन पर फेंकी और कमर पर
हाथ रखकर खड़े हो गए। “ऐसी बात नहीं बेटा," इतना कहकर वह रुके तब बोले, “यह
कबूतर मैं सरकार के हाथ बेचता हूं।"
"सरकार? वह इनका क्या करती है?"
“सरकार इनको लेकर उड़ा देती है। जब कोई बड़ा आदमी मुल्क में आता है तो सरकार
उसके स्वागत में इन अमन के दूतों को छोड़ती है।"
"तो अभी आप ही के कबूतर उड़ रहे थे?"
"हां, रोज शाम को उड़ाता हूं इन्हें ताकि खुली हवा खा लें और रास्ता भी पहचान
लें।"
"रास्ता पहचान लें?" मैंने आश्चर्य से पूछा।
"और नहीं तो भटक न जाएं। एक कबूतर खो जाए तो पांच रुपये का नुकसान हो जाए।
बड़े आला नस्ल के हैं ये।"
"मगर कहां से भटक जाएं खां साहव?"
"अरे भाई जब यह वहां से उड़ा दिए जाते हैं तो फिर मेरे पास चले आते हैं।" यह
कहकर उन्होंने एक दरबे से एक कबूतर निकाल कर जमीन पर फेंक दिया। “यह देख रहे
हैं। शीराजी है यह। पंडितजी के हाथों सात बार उड़ चुका है। देखिए जरा किस तरह
से गर्दन फुला रहा है।"
"तब तों इस बिजनेस में फायदा ही फायदा है। कितने का बेचते है। एक कबूतर आप?"
"अरे बेचने की न कहिए बाबूजी, खिलाना भी तो पड़ता है।"
"फिर भी कितने का बेचते हैं आप?"
"बेचने को तो एक कबूतर दस-दस रुपये तक का बिक जाता है।"
"और कितने बिक जाते होंगे हर महीने?"
"यह न कहिए बाबूजी, बिकने को एक-एक दिन में पांच हजार तक बिके हैं जब एक बार
एशिया भर के खेल हुए थे यहां।"
मैंने मन ही मन हिसाब लगाया। दस रुपये के हिसाब से पांच हजार कबतर! "माफ
कीजिएगा, खां साहब, तब तो आपकी हैसियत कुछ और ही होनी चाहिए थी", मैंने कहा।
"मगर बाबूजी दस रुपये फी कबूतर मिले तब तो।"
"क्यों? आप ही तो कह रहे हैं एक कबूतर दस रुपये में बिकता है।"
"कागज पर जरूर बिकता है मगर मुझे तो एक कबूतर का सिर्फ दो रुपया मिलता है।"
"बाकी"
“कहिएगा नहीं किसी से बाबूजी, बाकी सरकारी ठेकेदार का, जिसमें से कुछ, जैसा
कि वह बताता है, सरकारी अफसरों का, नहीं तो मेरी पहुंच कहां सरकार तक।"
"सौदा तो फिर भी बुरा नहीं", मैंने कहा, "आखिर लौटकर तो सब आपके पास आ ही
जाते हैं।"
खां साहब हल्का-सा मुस्कुराए। “जब अल्लाह ने पेट दिया है तो उसके भरने का
इंतजाम तो करेगा ही," उन्होंने दाढ़ी पर हाथ फिराते हुए कहा। "और फिर हुजूर
चिड़िया पकड़ने, उन्हें दाना खिलाने, उनका रख-रखाव करने में खर्च भी तो आता
है।"
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