कहानी संग्रह >> कामतानाथ संकलित कहानियां कामतानाथ संकलित कहानियांकामतानाथ
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आम जनजीवन से उठाई गई ये कहानियां कथाकार के रचना-कौशल की वजह से ग्रहण के स्तर पर एक तरफ बतरस का मजा देती हैं तो दूसरी तरफ प्रभाव के स्तर पर उद्वेलित करती हैं...
पांच बजे से परेड मैदान में सभा होनी थी। साढ़े चार के आसपास गुरू उठे। मुंह
धोया, कुर्ता-सदरी पहनी और परेड की ओर चल दिए। लेकिन वह सभास्थल पर नहीं गए
बल्कि उससे थोड़ी दूर चाय के एक स्टाल पर जाकर बैठ गए। सभा में मजदूरों का
जमाव शुरू हो गया था। माइक पर जोरों से नारे लगाए जा रहे थे
दुनिया के मजदूरों-एक हो।
दुनिया के मेहनतकशों-एक हो।
कल का दिन याद रहे-कारखानों में हड़ताल रहे।
काम का पहिया-जाम करेंगे।
कौन करेगा-हम करेंगे।
बोल मजूरा हल्ला बोल-हल्ला बोल हल्ला बोल।
रोटी चाहिए हल्ला बोल-हल्ला बोल हल्ला बोल।
कपड़ा चाहिए हल्ला बोल-हल्ला बोल हल्ला बोल।
दो-एक मजदूर उधर से निकले तो उन्होंने गुरू से सभास्थल पर चलने को कहा मगर
गुरू ने टाल दिया। 'तुम चलो हम आते हैं।'
काफी देर तक नारे लगते रहे। तब-सभा की कार्यवाही शुरू होने से पहले लोगों से
'शांत हो जाएं।' 'अपना-अपना स्थान ग्रहण कर लें। आदि की अपील होने लगी। तभी
एनाउन्समेंट हुआ, 'गुरू रामप्रसाद जहां भी हों मंच पर आ जाएं।
एनाउन्समेंट सुनकर गुरू के बदन में झुरझुरी-सी हुई, मगर गुरू अपना दिल मजबूत
किए चुपचाप बैठे रहे। उन्हें दामोदर प्रसाद के सुबह वाले शब्द याद आए कि असली
मर्द की औलाद होना तो हड़ताल संबंधी किसी मीटिंग, सभा में न आना। तभी चौधरी
भागा-भागा उनके पास आया। 'चलिए न आपको बुलाया जा रहा है।'
'तुम जाओ अपना काम करो।' गुरू ने उसे झिड़क दिया, 'मुझको आना होगा तो खुद चला
आऊंगा। न्योता भेजने की जरूरत नहीं है।'
चौधरी चला गया। गुरू भी उसके जाते ही उठ खड़े हुए। वह जानते थे कि अगर अधिक
देर वह वहां बैठे तो अभी कामरेड भल्ला, प्रोफेसर शुक्ला, अब्दुल रहमान वगैराह
आकर उन्हें जबर्दस्ती उठा ले जाएंगे। सभी जानते थे कि उनके सहयोग के बिना और
चाहे सभी जगह हड़ताल हो जाए, लाल इमली में नहीं हो सकती। वहां अभी भी गुरू की
ही तूती बोलती थी। उनके एक इशारे पर वहां का मजदूर मरने-मारने को तैयार रहता
था। इसीलिए उन्हें मंच पर बुलाया जा रहा था। वर्ना कितनी ही बार जब विदेशी
डेलीगेशन यहां आया है और प्रोफेसर शुक्ला या डॉ. बंसल के घर पर ह्विस्की की
दावतें उड़ी हैं तो किसी को गुरू का सपने में भी ख्याल नहीं आया।
वहां से उठकर गुरू नई सड़क की ओर आ गए। सात बजने वाले थे। गुरू के पांव अपने
आप पल्टन गद्दी की ओर मुड़ गए। वहां जाकर उन्होंने सौ ग्राम माल्टा लिया और
वहीं खड़े-खड़े बिना आनी-पानी मिलाए गले से नीचे उतार गए और बाहर आकर धनिया
के आलू लेकर खाने लगे। आलू खाकर पत्ता उन्होंने वहीं फेंक दिया और देर तक
जगमगाती जागती सड़कों पर मजाज के शब्दों में नाशाद-ओ-नाकारा घूमते रहे। तब सौ
ग्राम उन्होंने और चढ़ाई और उसे चढ़ाकर रोटी वाली गली में खाना खाने चले गए।
वह जानते थे कि लौट कर अपनी कोठरी में जाएंगे तो साथी लोग उन्हें वहीं घेर
लेंगे। अतः डेरे पर न जाकर उन्होंने मूलगंज से स्टेशन के लिए रिक्शा किया और
एक नंबर प्लेटफार्म पर आकर एक खाली बेंच पर बैठ गए। काफी देर तक वह वहां बैठे
रहे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह कहां जाएं। शहर में दो-एक ठिकाने उनके
और थे मगर उनकी जानकारी भी साथियों को थी। इसीलिए वह वहां भी जाना नहीं चाहते
थे। उन्होंने तय कर लिया था कि इस बार वह अपनी अहमियत जताकर ही रहेंगे। यही
तो उनकी कमी थी जिसका फायदा लोग उठा रहे थे। तीन सौ रुपये केंद्र से और दो सौ
रुपये राज्य से स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की पेंशन मिलती थी उन्हें। इतना
पैसा उनके लिए काफी था। किसी भी मायने में वह किसी के मुहताज नहीं थे। आज तक
उन्होंने पार्टी को दिया ही दिया था, लिया कुछ नहीं था।
एक बार उन्होंने सोचा कि इसी बेंच पर बैठे-बैठे रात गुजार दें। लेकिन वहां
अच्छा-खासा शोरगुल हो रहा था। थोड़ी-थोड़ी देर में गाड़ियां आ-जा रही थीं।
आखिर कोई बारह बजे वे उठे और यार्ड में जाकर खाली गाड़ी के एक डिब्बे में लेट
कर सो गए।
सुबह कोई साढ़े चार बजे उनकी आंख खुली। वहीं गाड़ी में वह निवृत्त हुए। तब
प्लेटफार्म पर आकर दातुन बेचने वाले एक लड़के से दातुन लेकर दातुन-कुल्ला आदि
किया और हाथ-मुंह धोकर स्टेशन से बाहर आ गए। सामने एक दुकान पर गरमागरम
जलेबियां बन रही थीं। उन्होंने सौ ग्राम जलेबी और सौ ग्राम दही का नाश्ता
किया। डकार लेकर पान की दुकान से एक सिगरेट लेकर सुलागाई और वहीं सड़क पर
खड़े होकर कश मारने लगे। साढ़े पांच बजने वाले थे। उन्होंने सोचा अब तक सब
साथी लोग मिलों के गेटों पर पहुंच चुके होंगे। छः बजे सीटी बोलती है। रात की
पारी के लोग बाहर निकलते हैं। सुबह की पारी वाले अंदर जाते हैं।
'और चाहे जहां जो भी कर लें, लाल इमली में इनकी दाल गलने वाली नहीं।'
उन्होंने मन ही मन सोचा। लाल इमली के कुछ मजदूरों ने शाम की मीटिंग में जब
उनका नाम पुकारा जा रहा था, उन्हें चाय की दुकान पर बैठे देखा था। दो-एक ने
उन्हें 'लाल सलाम' भी किया था। बात जरूर फैल गई होगी कि गुरू नाराज हैं।
तभी उनके मन में आया चलो चलकर देखते हैं क्या रंग हैं। गेट के सामने नहीं
जाऊंगा, दूर से ही देखूगा, उन्होंने सोचा और सामने खड़े रिक्शे पर चढ़कर बैठ
गए। बोले, 'लाल इमली चलो।'
रिक्शा वाला चल दिया।
परेड चौराहे तक ही रिक्शा पहुंचा होगा कि छः बजे की सीटी बोल गई।
सीटी सुनते ही गुरू जैसे पगला गए।
'जल्दी चलो भाई जल्दी। और जल्दी। जरा जोर से पैडल मारो न।'
दूर से ही उन्होंने देखा कामरेड भल्ला गेट के सामने लकड़ी के तखतों से बने
मंच पर खड़े माइक पर बोल रहे थे, 'साथियों, आज की इस हड़ताल का हमारी जिंदगी
और देश की जिंदगी में एक खास महत्त्व है। आज देश की जो हालत आप देख रहे
हैं...।'
लेकिन गुरू के कानों में एक शब्द भी नहीं जा रहा था। उनकी निगाह गेट पर थी
जहां साथी पिकेटिंग कर रहे थे। वे गेट के सामने जमीन पर लेटे थे, मगर मजदूर
लेटे हुए साथियों को फलांग कर गेट के अंदर घुस रहे थे।
जब तक रिक्शा वहां पहुंचे-पहुंचे गुरू रिक्शे से फांद पड़े। दूसरे ही क्षण वह
लपक कर मंच पर चढ़ गए और कामरेड भल्ला को एक ओर ढकेल कर माइक हाथ में लेकर
दहाड़े, 'खबरदार कोई अंदर नहीं जाएगा।
"गुरू आ गए, गुरू आ गए।' चारों ओर शोर मच गया। जो मजदूर गेट के अंदर घुसने की
कोशिश कर रहे थे, गुरू को देखकर मंच की ओर बढ़ आए।
'जो साथी अंदर चले गए हैं वह भी बाहर आ जाएं। फौरन।' गुरू दोबारा दहाड़े।
'और मज़दूर अंदर से बाहर आने लगे। देखते-देखते मंच के सामने भीड़ लग गई।
'सभी साथी नारा लगाएं,' गुरू ने कहा और जोर से माइक पर दहाड़े, 'काम का
पहिया।
जबाब आया, 'जाम करेंगे।'
'इसी तरह जाम होगा पहिया! मुर्दो वाली आवाज से! इतनी जोर से बोलो कि मिल की
दीवारें हिल जाएं। वह एक क्षण रुके तब दोबारा नारा दिया, 'काम का पहिया।
'जाम करेंगे।'
'हां ऐसे।...कौन करेगा?'
'हम करेंगे।'
कुछ देर गुरू नारा लगवाते रहे। तब बोले, 'अब सभी साथी खामोशी से कामरेड भल्ला
की बात सुनें।' और उन्होंने माइक भल्ला की ओर बढ़ा दिया।
कामरेड भल्ला मुस्कुराए। उन्होंने नारा दिया, 'गुरू राम प्रसाद।'
'जिंदाबाद।
तभी गुरू को ध्यान आया कि उन्होंने रिक्शे वाले को पैसे नहीं दिए हैं। वह मंच
से उतरकर रिक्शे वाले को खोजने लगे।
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