कहानी संग्रह >> कामतानाथ संकलित कहानियां कामतानाथ संकलित कहानियांकामतानाथ
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आम जनजीवन से उठाई गई ये कहानियां कथाकार के रचना-कौशल की वजह से ग्रहण के स्तर पर एक तरफ बतरस का मजा देती हैं तो दूसरी तरफ प्रभाव के स्तर पर उद्वेलित करती हैं...
शिकस्त
गंगा की कटरी में लगे अमरूद के एक विशाल बाग में एक वृक्ष के नीचे बैठे हैं
तीन 'के', यानी मैं कामतानाथ, मेरा मित्र कार्तिक और हम दोनों का ही मित्र,
कालीचरन। बीच में सूखी लकड़ियों को, जिन्हें कालीचरन बाग से बीन कर लाया है,
जला कर उनकी आग में भुन रही है मांगुर मछलियां, जिन्हें हमने गंगा की छपक नली
(अंग्रेजी अनुवाद-गैंजेज स्पिल) से कटिया लगा कर पकड़ा है। हमारे हाथों में
कच्ची शराब के गिलास है और सामने जमीन पर पपीते के पत्तों पर भुनी हुई मछली,
जिस पर नमक-काली मिर्च छिड़क कर नींबू निचोड़ा गया है। मगर यह तो कहानी का,
यदि सच्ची घटनाओं को कहानी की संज्ञा दी जा सकती है तो, एक प्रकार से अंत है।
तब आरम्भ क्या है?
आरंभ के लिए हमें आज से कुछ समय पीछे जाना होगा। हुआ यह कि आपातकाल के बाद
जनता सरकार के दौरान जब एक ओर इस देश के भूतपूर्व (अथवा अभूतपूर्व:)
प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने-ईश्वर (यदि होता है तो) उन्हें
और लंबी आयु दे-इस देश की सरकार का कार्यभार संभाला और उसी के साध इस देश को
शराबमुक्त करने का फैसला लिया, तो दूसरी ओर कार्तिक ने कसम खाई कि किसी भी
कीमत पर शराब नहीं छोड़ेगा। अतः बकौल मिर्जा गालिब कि खाने का प्रबंध तो
अल्लाह करता है-क्योंकि कुरान पाक में लिखा है कि जितने मुंह उसने बनाए हैं,
उनके भरने का इंतजाम भी वह करेगा-लेकिन शराब का प्रबंध बंदे को खद करना
पड़ेगा, कार्तिक ने भी शराबबंदी लागू होने से पहले ही जितनी शराब का प्रबंध
वह कर सकता था, करने का निर्णय ले लिया।
अब देखिए, मुझे नहीं मालूम कि मिर्जा गालिब का यह किस्सा आपको मालूम है या
नहीं। बहरहाल, यह मानते हुए कि संभव है, आपकी वाकफियत गालिब के जीवन की इस
घटना से हो, लेकिन आपके अलावा और पाठक भी इस कहानी के हो सकते हैं, अतः उनकी
जानकारी के लिए उस घटना का वर्णन मैं यहां कर देना अपना फर्ज समझता हूं। हुआ
यह कि मिर्जा शराब के ठेकों से उधार शराब पिया करते थे। उधार शराब की बात से
आप चौंकिए मत। वह जमाना ही कुछ और था। आज तो कवियों और शायरों को पनवाड़ी पान
का एक बीड़ा भी उधार नहीं देगा, लेकिन उन दिनों ऐसी बात नहीं थी। उन दिनों
समाज में शायरों की इज्जत थी। उन्हें उधार सामान देकर लोग स्वयं को गौरवांवित
समझते थे। अतः सामाजिक रुतबे की इस आड़ में मिर्जा ने जम कर उधार की शराब पी।
मगर एक बात तो है ही। जमाना कैसा भी हो, हर बात की हद होती है। उधार की भी।
बल्कि उधार की हद और हदों से कुछ जल्दी ही पहुंच जाती है। सो एक ठेके पर
मिर्जा का कुछ झगड़ा हो गया और उस ठेकेवाले ने मिर्जा को उधार देना ही बंद
नहीं किया, बल्कि मिर्जा पर नालिश भी कर दी। फलस्वरूप मिर्जा को काजी के, हो
सकता है शहर कोतवाल या फिर जो भी उन दिनों होता हो उसके, सामने पेश होना
पड़ा। लिखा-पीढ़ी तो कुछ थी नहीं, अतः मिर्जा उधार की रकम से साफ इंकार कर
सकते थे। लेकिन जैसा कि मैंने कहा, वह जमाना ही और था और मिर्जा ठहरे तरहदार
आदमी, सो उन्होंने ठेकेवाले ने जो भी रकम बताई, बिना हील-इज्जत स्वीकार कर
ली। लेकिन जब काजी ने मिर्जा से रकम चुकता करने की बात कही, तो मिर्जा ने
अपनी मजबूरी जाहिर की।
जाहिर है, अगर मिर्जा के पास रकम होती, तो वे उधर पीते ही क्यों। अब, कानून
कानून होता है और आजकल तो कभी-कभार रुपये-पैसों की चमक से चौंधियां कर
दाएं-बाएं आंख की एक कोर खोल भी लेता है, उन दिनों वह पूरी तौर से अंधा हुआ
करता था। राजा-रंक तक में कोई अंतर नहीं था उसकी दृष्टि में, फिर एक शायर की
क्या मजाल! अतः काजी ने निर्णय लेने में रंचमात्र भी देर नहीं की और कर्ज की
रकम अदा न करने के जुर्म में जुर्माना और जुर्माना न ऐ सकने की स्थिति में
सजा बामशक्कत का फैसला सुना दिया। ऐसी हालत में एक ही बात हो सकती थी। वह यह
कि मिर्जा जेल जाएं और वहां जाकर चक्की पीसें। सो काजी के इस सवाल के जवाब
में कि मिर्जा जुर्माना भरेंगे या जेल जाएंगे, मिर्जा ने एक शेर पढ़ा, जो कुछ
इस प्रकार था-
कर्ज की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हां
रंग लायेगी हमारी फाकामस्ती एक दिन।
इस पर शहर कोतवाल के आदमी आगे बढ़े और मिर्जा के हाथ पकड़ कर उन्हें हथकड़ी
लगाने ही वाले थे कि काजी ने डपट कर उन्हें रोक दिया और जुर्माने की पूरी रकम
अपनी जेब से भर दी, जो निश्चय ही उधार की रकम से ज्यादा थी। अतः जुर्माने की
रकम से उधार की रकम काट कर ठेकेवाले को दे दी गई और बाकी रकम शाही खजाने में
जमा कर दी गई और मिर्जा जेल जाते-जाते बच गए।
लेकिन यह तो एक ठेके की बात थी। मिर्जा तो कई ठेकों पर उधार की शराब पी रहे
थे। अब जो उन ठेकेवालों को इस घटना का पता चला, तो वे भी अपनी लगभग डूबी हुई
रकम को उबारने के इरादे से काजी के यहां मुकदमा दायर करने की बात सोचने लगे।
हालांकि उन दिनों देश की आबादी आज की आबादी की चौथाई क्या दसवां हिस्सा भी
नहीं रही होगी, लेकिन बात उन दिनों भी इसी रफ्तार से फैलती थी, जिस रफ्तार से
आज फैलती है-जिससे यह साबित होता है कि बात फैलने का आबादी से कोई सीधा या
टेढ़ा अनुपात नहीं है-सो बात फैली और फैलते-फैलते बादशाह सलामत यानी
बहादुरशाह जफर तक पहुंची। हालांकि शायरी में जफर के उस्ताद मिर्जा जौक थे,
लेकिन बादशाह सलामत गालिब की इज्जत जौक से किसी मायने में कम नहीं करते थे।
अतः उन्होंने गालिब की मदद करनी चाही। लेकिन वह जानते थे कि गालिब
आत्मसम्मानी व्यक्ति हैं, वह आज के पिछड़े हुए देशों की तरह किसी से भी सीधे
मदद स्वीकार नहीं करेंगे। इसलिए मदद का कोई दूसरा रास्ता निकालना होगा, जो
उन्होंने निकाला और मिर्जा को दरबार में ससम्मान बुलवा कर उनकी शायरी पर बतौर
इनाम एक हजार अशर्फियां अता फरमाईं। अब अगर गालिब की जगह कोई दूसरा समझदार
व्यक्ति होता, तो इतनी बड़ी रकम से अपने घर को सजाने-संवारने का कुछ इंतजाम
करता, बीवी के लिए जेवर गढ़ाता या फिर देशाटन को निकल जाता और नहीं तो इतना
तो करता ही कि जिस में सुबह की रोटी पकने के बाद शाम के लाले हों, कम-से-कम
डेढ़-दो महीने का राशन-पानी लाकर तो रख ही देता। लेकिन गालिब साहब ने किया यह
कि वहां से सीधे उन ठेकों पर पहुंचे, जिनका उधार बाकी था और सबका उधार अदा कर
दिया। उधार चुकता करने के बाद भी कम-से-कम आधी रकम बच पाई। अब देखिए, मिर्जा
करते क्या हैं! आखिरी ठेके पर उधार की रकम अदा करने के बाद अशर्फियों की थैली
वहीं उसकी गद्दी पर उलट देते हैं। ठेके का मालिक चौंक पड़ता है।
"गिनो, कितनी अशर्फियां है।"
मालिक घबरा कर अशर्फियां गिनता है और बताता है कितनी हैं। मिर्जा वहीं किसी
कुरसी या बेंच पर बैठ जाते हैं और कहते हैं कि इन अशर्फियों में जितनी भी
शराब आए, सब ठेले पर लदवा कर मेरे मकान पहुंचवा दो। ठेके का मालिक अब भी
घबराया हुआ है। वह मिर्जा को गौर से देखता है कि क्या ये आज दोपहर से ही इतनी
लगा आए हैं। लेकिन मिर्जा बराबर गंभीर बने बैठे हैं।
"सुना नहीं तुमने?" वह कहते हैं।
मालिक घबरा कर सारा इंतजाम करता है। एक नहीं पूरे तीन ठेले शराब के मर्तबानों
से भर जाते हैं। आगे-आगे मिर्जा और पीछे-पीछे ठेले। "गड्ढा बचा कर", "खांचा
है, संभाल कर।" "धीरे से, हां," मिर्जा कहते जाते हैं और आगे बढ़ते जाते हैं।
घर करीब आने पर मिर्जा लपक कर घर के अंदर जाते हैं और बेगम को आवाज देते हैं,
“बेगम, जल्दी दीवानखाना साफ करो, सामान रखवाना है।"
बेगम चौंक पड़ती हैं! “सामान! कैसा सामान?" वह पूछती हैं। तब तक ठेले मकान के
सामने आ जाते हैं।
“यह क्या है?" बेगम पूछती हैं।
"शराब, और क्या!" मिर्जा बहुत ही लापरवाही से कहते हैं।
“या अल्लाह! इतनी शराब का क्या होगा? कहां से उठा लाए।" बेगम पूछती
हैं।
"उठा लाए? खरीद कर लाया हूं। पूरी रकम अदा की है।"
"इतनी रकम आई कहां से?" बेगम समझ नहीं पातीं।
“कहां से आई? बादशाह सलामत ने इनाम बख्शा है।"
"तो मुई शराब ही लानी थी इस इनाम की रकम की। घर में एक दाना अनाज नहीं है।
घी-तेल कब का खत्म हो चुका है। उसका इंतजाम कौन करेगा?"बेगम अब कुछ बिगड़ती
हैं।
मगर गालिब वैसे ही गंभीर बने हुए हैं। बहुत सी संजीदगी से जवाब देते
हैं-"उसका इंतजाम अल्लाह करेगा। कुरान शरीफ में पढ़ा नहीं तुमने कि जितने
मुंह उसने बनाए हैं, उनके खाने का इंतजाम भी वह करेगा। अलबत्ता शराब का जिक्र
उसमें नहीं है। इसलिए जाहिर है उसका इंतजाम बंदे को खुद करना पड़ेगा। सो मैं
कर लाया।" इतना कह कर मिर्जा मजदूरों की तरफ मुड़ते हैं-"हां भाई, ले आओ
अंदर, टूटने न पाए, एक तरफ से लगाओ। देखो, इस कोने से शुरू करो।"
थोड़ी देर में बादशाह सलामत को इसकी खबर पहुंची, तो खासा मूड खराब हुआ उनका।
लेकिन वह आखिर बादशाह थे-रिआया परवर! अगर मूड खराब करके बैठ जाते तो मुल्क का
इंतजाम कैसे चलता! इसलिए मूड पर काबू पाकर उन्होंने इस बार गालिब के घर पर
चार-छह बोरे गेहूं, दाल, चावल और चार-छह टिन घी और तेल के यह कहकर मिजवा दिए
कि यह भी इनाम का एक हिस्सा है।
शराब दीवानखाने में लग ही रही थी कि बादशाह सलामत द्वारा भिजवाया गया राशन भी
पहुंच गया। तब तक बेगम खासी नाराज होकर अंदर कमरे में बैठी कुढ़ रही थीं और
ऐसे लावबाली आदमी से निकाह होने पर अपनी किस्मत को कोस रही थीं। गालिब ने
राशन से भरे ठेले देखे और बादशाह सलामत द्वारा भिजवाया रुक्का पढ़ा, तो फौरन
बेगम को आवाज दी। लेकिन बेगम ने उनकी आवाज अनसुनी कर दी। आखिर गालिब अंदर
जनानखाने में गए और किसी तरह बेगम को बुला कर लाए और राशन से लदे ठेलों की ओर
इशारा करके बोले, "देखा, मैं न कहता था कि खाने का इंतजाम अल्लाह करता है, सो
कर दिया उसने इंतजाम। अब रखाओ इसे जहां रखवाना हो।"
उम्मीद है, मुख्य कहानी में आए इस विषयांतर से आप बोर नहीं हुए होंगे। इतना
सब मुझे इसलिए लिखना पड़ा कि कार्तिक भी बकौल गालिब इस बात में विश्वास करता
था कि खाने का प्रबंध ऊपर वाला करता है, जबकि पीने की व्यवस्था मनुष्य को
स्वयं करनी पड़ती है। अतः उसने कानपुर ड्राई घोषित होने के पहले से ही अपनी
भविष्य निधि यानी प्रॉविडेंट फंड से, कोऑपरेटिव सोसाइटी से और जितने प्रकार
के और अडवांस उसे अपने ऑफिस से मिल सकते थे-मेरी तरह वह भी एक बैंक के काम
करता है, जहां फेस्टिवल अडवांस , पंखा अडवांस , साइकिल अडवांस , स्कूटर
अडवांस , फ्रिज अडवांस से लेकर कार अडवांस तक मिलता है-लेकर शराब का स्टॉक
अपने घर में जमा कर लिया। चूंकि वह अविवाहित है, इसलिए गालिब की तरह बेगम से
झगड़े का भी कोई भय उसे नहीं था।
उसके पास दो कमरों का एक मकान है। पीछे वाला कमरा साफ करवा के उसने उसमें
बोतलें जमा कर लीं। टांड़ पर, अलमारी में, जमीन पर, मेज पर, यानी जो भी जगह
कमरे में थी, उस जगह ह्विस्की, रम, जिन आदि की बोतलें सुसज्जित हो गईं। इस
प्रकार मोरारजी भाई की चुनौती का सामना करने की पूरी तैयारी उसने कर ली और
नशाबंदी के पहले ही दिन दो-तीन दोस्तों को घर पर बुलाकर अपने धर्मयुद्ध की
घोषणा कर दी। गिलासों में ह्विस्की उंडेल कर, उसमें सोडा और बरफ मिलाई गई। तब
कार्तिक ने अपना गिलास हवा में ऊपर उठा कर “टु हेल विद मोरारजी" का नारा
बुलंद किया और गिलास होठों से लगा लिया।
इस प्रकार वह बिला नागा रोज मौज से मोरारजी भाई के नाम अपना विचित्र टोस्ट
प्रस्तावित करके ह्विस्की, रम या जिन के चूंट अपने गले के नीचे उतारने लगा।
प्रायः मैं भी उसके साथ होता, क्योंकि झूठ क्यों बोलूं, इस धर्मयुद्ध में मैं
भी पूरी तरह उसके साथ था और स्टॉक जमा करने में मेरा भी अपनी क्षमतानुसार
योगदान था। कभी-कभी कुछ अन्य मित्र भी आ आते। तब खासी महफिल जमती।
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