कहानी संग्रह >> कामतानाथ संकलित कहानियां कामतानाथ संकलित कहानियांकामतानाथ
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आम जनजीवन से उठाई गई ये कहानियां कथाकार के रचना-कौशल की वजह से ग्रहण के स्तर पर एक तरफ बतरस का मजा देती हैं तो दूसरी तरफ प्रभाव के स्तर पर उद्वेलित करती हैं...
तीन : बयान मां
आज इनको मरे पूरे छह महीने हो गए। आज ही के दिन, लगभग इसी समय इन्होंने प्राण
तजे होंगे। अच्छे-भले स्ट्रेचर पर लिटाकर ऑपरेशन ठेठर में ले जाए गए, और लाश
बाहर निकाली। डॉक्टरों का कहना था कि हार्ट फेल हो गया। पहले से खराबी थी,
इसीलिए ऐसा हुआ। अब भगवान जाने हार्ट फेल हुआ कि कोई कह रहा था बेहोशी की दवा
ज्यादा दे दी, जिससे होश ही नहीं आया।
पिंटू तो डॉक्टरों को मारने पर उतारू था। किसी तरह मान ही नहीं रहा था। उसका
कहना भी ठीक ही था कि हार्ट पहले से चेक क्यों नहीं कर लिया। हार्ट कमजोर था
तो ऑपरेशन के लिए ठेठर में ले क्यों गए। पहले हार्ट का इलाज हो जाता। नहीं तो
न होता ऑपरेशन। उठ-बैठ न पाते, यही तो होता। जिंदा तो रहते। सबने उसको पकड़
लिया नहीं तो मारे बिना न छोड़ता वह डॉक्टर को। फंड से कि कहां-कहां से पैसा
निकालकर फीस भरी बेचारे ने। पूरे दस हजार गिनाकर रखा लिये, तब ऑपरेशन ठेठर
में ले गए उन्हें। डॉक्टर क्या, जल्लाद हैं सब।
मुझे तो लाश देखते ही बेहोशी का दौरा पड़ गया था। पता नहीं कितने छींटे पानी
के मारे लोगों ने। कोई इंजेक्शन भी दिया गया शायद। तब कहीं जाकर होश आया।
देखा, सब लोग पिंटू को पकड़े खडे समझा रहे हैं कि जिसको जाना था, वह तो चला
गया, अब फौजदारी से क्या फायदा। मौत पर किसी का बस आज तक चला है कि आज ही
चलेगा। जिसकी मिट्टी जहां लिखी होती है, मौत उसको वहीं घसीट ले जाती है। इनकी
मिट्टी ऑपरेशन ठेठर में ही लिखी थी। कहावत कही गई है, हिल्ले रोजी, बहाने
मौत। नहीं तो न वह मरा विज्ञापन देखते टीवी पर और न स्टूल लेकर बाथरूम में
टंकी ठीक करने जाते। जहां इतने दिनों से बह रही थी, कुछ दिन और बहती रहती।
लेकिन मेरे भाग्य में तो रंडापा भोगना लिखा था। जिंदा थे तो अक्सर कहते रहते
थे कि तुमसे पहले ही मर जाऊंगा मैं। मैं कहती, 'मरें तुम्हारे दुश्मन। तुम
क्या मुझे रांड बनाना चाहते हो? ऐसे बुरे करम किए होंगे तभी तुम्हारी मिट्टी
देगी, नहीं तो औरत की मरजाद इसी में है कि सधवा मरे। मांग से सिंदूर और पांव
से बिछुए पहनकर चिता पर चढ़े। नहीं तो औरत की जिन्दगी अकारथ है। वह कहते, 'यह
सब पुराने जमाने की बातें हैं। आजकल औरतों के मरने से आदमी को ज्यादा कष्ट
होता है, आदमी के मरने से औरत को उतना नहीं होता। और फिर तुमको क्या चिंता?
तुम्हारा जवान, कमाऊ बेटा है। बहू है, पोता है। तुमको हमारी कमी नहीं खलेगी।
तुम मर जाओगी तो मुझे कौन पूछेगा? पिंट्र को ही देख लो। एको बात मानता है
मेरी? इतनी बार कहा, वक्त से घर आ जाया करो। घर की जिम्मेदारी समझो। सुनता हो
भला मेरी! मैं समझाती, 'तुमको क्या करना। तुम अपनी दो जून की रोटी खाओ।
चींटी, चिड़िया चुगाओ। सुबह-शाम बाहर टहलने निकल जाया करो। पोता बड़ा हो रहा
है। उसे बिठाकर 'क' 'ख' 'ग' कि 'ए' 'बी' 'सी' 'डी' पढ़ाओ।'
बस, एक ही चिंता उनको खाये जा रही थी कि घर बरबाद हो रहा है। पिंटू उनकी बात
पर ध्यान नहीं देता। इस कान से सुनता है, उस कान से निकाल देता है। कितनी साध
से उन्होंने मकान बनवाया था। जरा-सा प्लास्टर उखड़ता था तो उनके कलेजे में
हूक उठती थी। मैं समझाती रहती कि मकान में टूट-फूट तो लगी ही रहती है। वह
कहते 'टूट-फूट लगी रहती है यह तो सही है लेकिन टूट-फूट ठीक भी तो होनी चाहिए।
पिंटू को नहीं चाहिए कि इस तरफ ध्यान दे? चलो, खुद से न ध्यान दे, मेरे कहने
से तो दे। मेरी उमर हो गई। अब इतना काम होता नहीं मुझसे। जल्दी थक जाता हूं
मैं।' मैं कहती, 'नहीं होता तो चुपा के बैठो, जैसा हो रहा है वैसा होने दो।
पिंटू अभी जवान है। क्या समझे दुनियादारी? जवानी में कोई किसी चीज की परवाह
करता है? तुम करते थे कि तुम्हारा बेटा ही करेगा? उसके खेलने-खाने के दिन है।
दोस्तों के बीच बैठकर गपशप लड़ाता होगा, जैसे तुम लड़ाते थे। रात-रात भर
ताश-पत्ता खेलते थे कि नहीं?' लेकिन उनको यही चिंता खाये जा रही थी कि अभी से
पिंटू का यह हाल है तो आगे तो भगवान की मालिक है।
पता नहीं क्यों, जैसे-जैसे उनकी उमर बढ़ रही थी वैसे-वैसे माया-मोह भी बढ़
रहा था। स्वभाव भी चिड़चिड़ा होता जा रहा था। कोई कह रहा था कि शक्कर की
बीमारी के मारे ऐसा था। उस बीमारी में आदमी को गुस्सा ज्यादा आता है। जो भी
हो, ऊपर से तो कभी कुछ पता चला नहीं कि शक्कर की बीमारी है, नहीं तो इलाज हो
जाता। पिंटू को भी अफसोस है कि न शक्कर की बीमारी का पता चला पहले से, न दिल
की कमजोरी के बारे में ही किसी डॉक्टर ने कभी बताया। आखिर छोटी-मोटी बीमारी
में डॉक्टर को दिखाने जाते ही थे। उसको बताना चाहिए था कि नहीं? पहले से पता
चलता तो जमकर इलाज हो जाता।
मुझको तो लगता है कि महंगाई खा गई उनको। हड्डी टूटना तो बहाना था। नहीं तो
पैंसठ-छियासठ की कोई उमर होती है आजकल। रिटायर हुए थे तो कितने खुश थे। दफ्तर
की विदाई पार्टी में यारों-दोस्तों ने ढेर सारे प्रेजेण्ट दिए थे। रिक्शे पर
लदे-फंदे घर लौटे तो बोले, 'चलो, हो गई नौकरी। अब कुछ आराम करूंगा जिन्दगी
में।' कितने लोग तो घर तक पहुंचाने आए थे। सभी कह रहे थे कि आज तक किसी को
रिटायरमेंट पर इतने प्रेजेण्ट नहीं मिले, जितने इनको मिले थे। दूसरे ही दिन
बाजार जाकर एक किलो बादाम लाए और गांधी आश्रम वाली शहद की शीशी। मुझसे बोले,
'लो, रोज शाम को चार-छह बादाम भिगो दिया करना। सुबह घिसकर शहद के साथ खाऊंगा।
मौसमी फल तो हर वक्त घर में बने रहते। हफ्ते में दो बार खुद जाकर गोश्त लाते।
मुझसे कहते, 'खूब गलाकर पकाना। मसाला कम डालना। मसाला नुकसान करता है। मैं
बनाकर देती तो शौक से बैठकर खाते। कहते, 'जवानी तो झींकते बीती। बुढ़ापे में
आराम करूंगा अब। भगवान की दुआ से इतनी पेंशन मिल जाती है कि किसी बात की कमी
नहीं पड़ेगी। पिंटू एक बार न भी दे एको पैसा घर में, तो भी रामजी की किरपा से
कमी न होगी।' लेकिन कमी होने लगी। धीरे-धीरे चीजों के दाम ड्योढ़े, दूने,
तिगुने हो गए। घर का खर्च जो ढाई-तीन हजार में चल जाता था, पांच हजार भी काम
पड़ने लगे उसके लिए। सो, एक-एक कर खर्चे कम किए जाने लगे। पहले बादाम बंद
हुए, फिर गोश्त, तब फल। सुबह जहां दही-जलेबी, ब्रेड-मक्खन और अंडे का नाश्ता
होता था, वहां नमकीन-पूरी बनने लगीं। बाद में तो नाश्ता करना ही छोड़ दिया
उन्होंने। मैंने कहा भी कि पूरी-परांठा अच्छा न लगता हो तो तुम्हारे लिए अलग
से अंडा कि मक्खन मंगा दिया करें। बस, बिगड़ उठे। बोले, 'बच्चा हूं क्या मैं?
और तुम क्या समझती हो कि इस मारे नाश्ता नहीं करता मैं । इस बूढ़े शरीर को अब
और चाहिए क्या? कुछ भी खा लूं मैं, इस शरीर में अब कुछ लगने वाला नहीं, बल्कि
नुक्सान ही करेगा। इसीलिए कहते हैं कि बुढ़ापे में जितना कम खाए, उतना ही
ठीक।' कपड़ों के बारे में भी मैंने कहा कि न हो तो खद्दर भंडार से ही दो-चार
कुर्ते-पाजामे ले आओ अपने लिए। अच्छा लगता है कि तहमद पहने बाहर बैठे रहते
हो? अब इतना टोटा भी नहीं है पैसों का कि नंगे-उघारे बैठे रहो। मेरी बात
सुनकर एक क्षण चुप रहे। तब बोले, 'अब इस तन को और क्या चाहिए? कफन चाहिए, सो
कोई न कोई डाल ही देगा।' 'क्यों ऐसी अशुभ बात मुंह से निकालते हो?' मैंने कहा
तो बोले, 'मैं अब और ज्यादा जिऊंगा नहीं। ज्यादा से ज्यादा चार-छह महीने या
एक साल!'
सो, वह तो चले गए, मगर इधर पिंटू को पता नहीं क्या होता जा रहा है। उनके मरते
ही जैसे उसके चेहरे की रौनक ही खत्म हो गई हो। जब देखो, तब गुमसुम बना बैठा
रहता है। दफ्तर से सीधे घर आ जाएगा। कमरे में कुर्सी पर बैठा अखबार कि कोई
किताब लिये पढ़ता रहेगा। कितनी बार मैंने कहा कि शाम को घूम-फिर आया करो
कहीं, दोस्तों के यहां चले जाया करो, लेकिन क्या मजाल कि दफ्तर के अलावा कहीं
चला जाए। हां, दूसरे-तीसरे थैला लटकाकर सब्जी लेने जरूर जाता है। या फिर
सुबह-सुबह दूध लेने चला जाता है। पहले घोसी घर पर दे जाता था। उसे मना कर
दिया। कहने लगा, इसमें पानी मिला होता है। बात सही भी थी। अब दूध दूध लगता
है। एक अंगुल मोटी मलाई पड़ती है। नहीं तो पहले मलाई के नाम पर झाग भले निकाल
लो चम्मच, दो चम्मच, मलाई आंख आंजने भर को भी नहीं निकलती थी। मिल का पिसा
आटा लेना भी बंद कर दिया है। महीने, दो महीने पर बाजार से गेहूं ले आता है।
मैं बीन-पछोर देती हूं। पहली बार उसने देखा तो बहू पर बिगड़ने लगा कि चौधराइन
बनी बैठी हो और मम्मी गेहूं बना रही हैं। बहू तुरन्त भाग कर आई, लेकिन मैंने
ही मना, कर दिया कि इसी बहाने थोड़ा हाथ-पांव चला लिया करूंगी, नहीं तो गठिया
ने तो पकड़ ही रखा है।
पिछले कुछ दिनों से एक और बात देख रही हूं। रात में सोने से पहले नलों की
टोंटिया देखता है, किं बंद हैं कि नहीं। बाथरूम की वह मरी टंकी तो बदल ही गई
है। रसोई के नल में भी नई टोंटी लगा दी है। कहीं कोई फालतू बत्ती जल रही होगी
कि पंखा चल रहा होगा तो बहू पर बिगड़ने लगेगा कि पैसा क्या पेड़ में लगता है,
जो यह बेकार की बिजली फूंकी जा रही है। सब उन्हीं के लक्षण आते जा रहे हैं।
अभी कल कि परसों की बात है, रात में कुछ खटपट हुई तो मेरी आंख खुल गई। देखती
क्या हूं कि दरवाजों के कुंडे-सिटकिनी टटोल रहा है कि ठीक से बंद हैं कि
नहीं। मैंने देखा तो मेरा मन अंदर से कांप उठा। वह तो बुढ़ापे में यह सब करते
थे। इसको क्या होता जा रहा है?
हे भगवान! दया करना।
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